Wednesday, February 10, 2016

फिल्‍म में मेरा रोल कैसा लगा?

फिल्‍म में मेरा रोल कैसा लगा?

एक व्‍यक्ति फिल्‍म देख कर आया। उसने अपने दोस्‍त को बताया कि वह फिल्‍म उसे बहुत अच्‍छी लगी। दोस्‍त ने पूछा — उसमें तुझे मेरा रोल कैसा लगा?
तेरा रोल? उस व्‍यक्ति ने बड़ी हैरानी से पूछा। मुझे तो सारी फिल्‍म में तू कहीं नहीं दिखा।
दोस्‍त ने कहा — दोबारा देख कर आना और मुझे बताना कि मेरा रोल कैसा लगा।
दोस्‍त था इसलिये वह फिल्‍म दोबारा देखने चला गया। बड़े ध्‍यान से देखा पर दोस्‍त कहीं नहीं दिखा। व्‍यक्ति ने दोस्‍त को कहा — तू फिज़ूल में मत बोल। मैंने तेरे लिये दोबारा पैसे खर्च कर बड़े ध्‍यान से देखा पर तू तो कहीं था ही नहीं।
कलाकार दोस्‍त बोला — तू एक बार फिर देख मेरे लिये। उस व्‍यक्ति ने फिर कहा — तू यार मेरा बेवकूफ मत बना। तू मुझे कहीं नहीं दिखा। मेरी तो आंखें फट गई़ ढूंढते-ढूंढते।
दोस्‍त ने कहा — तू मेरे लिये एक बार फिर देख ध्‍यान से। ले, टिकट के पैसे भी मैं देता हूं। ध्‍यान से देखना।
दोस्‍ती के चक्‍कर में वह फिर चला गया देखने। पर वह फिर विफल रहा अपने कलाकार दोस्‍त को फिल्‍म में ढूंढ पाने में।
वह व्‍यक्ति खीज गया। तू फिज़ूल की बात कर रहा है। तू तो फिल्‍म में है ही नहीं। मैं दावे से कह सकता हूं।
दोस्‍त ने उसकी अज्ञानता पर हैरानी व्‍यक्‍त करते हुये कहा – तू भी यार कुछ नहीं। तू सारी फिल्‍म में अपने दोस्‍त को ही नहीं पहचान सका।
खीजकर उस व्‍यक्ति ने कहा – अब, तू ही समझा कि सारी फिल्‍म में तू है कहां?
उसकी नासमझी पर चुटकी लेते हुये दोस्‍त ने कहा – तूने देखा न खलनायक फिल्‍म के नायक को पीट-पीट कर उसका कचूमर निकाल देता है और वह अधमरा हो जाता है?
हां, यह तो मैंने देखा। पर तू कहां था? उस व्‍यक्ति ने पूछा।
दोस्‍त ने बताया — जब खलनायक अधमरे नायक को बोरी में डालकर अपने कंधे पर टांग कर ले जा रहा था तो उस बोरी मे मैं ही तो था।                                        ***
(किसी ने यह सुनाया था)       

             

Tuesday, February 9, 2016

हास्‍य-व्‍यंग -- शुभकामनाओं के ढेर के नीचे दबी मेरी किस्‍मत

हास्‍य-व्‍यंग
कानोंकान नारदजी के
शुभकामनाओं के ढेर के नीचे दबी मेरी किस्‍मत

मैं एक बड़ा नेता हूं। इसमें कोई शक नहीं। लोग मुझे 'नेताजी' के नाम से जानते हैं। यह तो सब को पता है कि इस सम्‍मानित सम्‍बोधन से केवल नेताजी सुभाष चन्‍द्रजी को ही जाना जाता है। पर अब मेरे सहयोगी, समर्थक व शुभचिन्‍तक मुझे नेताजी ही कहते हैं। यही अब मेरी पहचान बन गई है। मैं भी इसे जनता के प्‍यार व सम्‍मान के रूप में स्‍वीकार करता हूं।
यह सब बिना कारण भी नहीं है। मैं राजनीति में नहीं, राजनीति मुझ में पैदा हुई थी। बहुत बड़े-बड़े नेताओं की तरह मैं भी राजनीति में एक नेता की तरह ही अवतरित हुआ था। पार्टी में कार्यकर्ताओं ने काम किया। अपनी ऐड़ी-चोटी घिसा दी। पार्टी को बड़ा लाभ हुआ। नाम मुझे मिला। श्रेय मुझे ही गया क्‍योंकि नेता तो मैं ही था। इसमें हैरानी की भी कोई बात नहीं। सब जानते हैं कि लड़ाई लड़ता तो जवान है पर विजय का सेहरा बंधता है जनरल के सिर पर ही। आखिर राजनीति भी तो एक युद्धही है अपने विरोधियों के विरूद्ध। नेता जनरल होता है और कार्यकर्ता सिपाही। कार्यकर्ता का कर्तव्‍य है राजनीति के मैदान में जी-जान से लड़ना, संघर्ष करना जनता के लिये और राजनीतिक लाभ प्राप्‍त करना पार्टी के लिये। पर उसके लिये जनरल तो चाहिये। उनको मार्गदर्शन देते हैं मुझ जैसे नेता।
जब चुनाव का समय आया तो पार्टी ने टिकट मुझे ही दिया, किसी पुराने कार्यकर्ता को नहीं। किसी और को मिलता भी कैसे? पार्टी को चुनाव में चाहिये एक नेता न कि कार्यकर्ता क्‍योंकि चुनाव भी तो एक लड़ाई ही है — राजनीतिक जिसमें चुनाव तो लड़ना है कार्यकर्ता को और जीतना है नेता (प्रत्‍याशी) को।
मेरे विरोधियों ने तो यहां तक कह दिया कि मुझे टिकट मिला नहीं, मैंने खरीदा है। जब मैं जीत गया तो उन्‍होंने कहा कि मैं बाहुबल व धन बल से जीता हूं। असल में मेरे विरोधी मेरी जीत पचा नहीं पाये। उन बेचारों को यह नहीं पता कि जीतता है प्रत्‍याशी और हारती है पार्टी।
मेरा तो स्‍टैंड बड़ा स्‍पष्‍ट है। मैं जीत गया केवल इसलिये कि जनता में मेरी छवि स्‍वच्‍छ है और मैं सब से अधिक लोकप्रिय हूं। मेरे विरोधियों ने तो मुझे हराने में कोई कसर न रखी। उन्‍होंने पूरा ज़ोर लगाया। मेरे विरूद्ध काम भी किया, प्रचार भी किया, धन भी पानी की तरह बहाया। पर मेरी लोकप्रियता की तोप के आगे उनके सब पटाखे फुस्‍स हो गये। मैं फिर भी जीत गया।
मैं चुनाव ही नहीं जीता, मुझ पर पार्टी व नेता इतने प्रसन्‍न हुये कि उन्‍होंने मुझे मन्‍त्री भी बना दिया।  इस दीपावली पर मुझे इतने वधाई और शुभकामना सन्‍देश मिले कि मैं तो उनको निहारने व उन पर नज़र डालने में ही थक जाता था। मुझे नींद आ जाती था। स्‍वप्‍न में भी मुझे बधाई सन्‍देश और मिठाइयां व उपहार ही दिखाई देते थे। इस पावन अवसर पर मुझे भेंट देने वालों की तो मेरे घर लम्‍बी लाइनें ही लग गईं थी। मुझे तो यह समझ न आये कि लोगों ने यह कैसे समझ लिया कि मैं इतना पेटू हूं कि मैं और मेरा परिवार अकेले ही उनके द्वारा दी गई मिठाई गटक जायेगा। कुछ डिब्‍बे तो मैंने अपने स्‍टाफ में भी बांटे। जिसने मुझे मिठाई व उपहार दिये मुझे तो उन सब का नाम याद रख पाना भी मुश्‍किल हो गया। जो मिठाई मुझे अच्‍छी लगी वह मैंने सम्‍भाल कर रख ली और बाकी के डिब्‍बे खोलकर मैंने अपने प्रशंसकों में बांटने शुरू कर दिये। पर वह इतने थे कि सड़ने लगे। तब मुझे ग़रीबों की याद आई जिन्‍होंने मुझे जिताया था। मैंने वह डब्‍बे उनको बांट दिये। सभी को धन्‍यवाद देना भी मुझे दूभर काम लग रहा था।
अभी मैं उनके उत्‍तर भी न दे पाया था कि भगवान् यीशु मसीह का पावन जन्‍म दिवस आ गया। शुभाकानाओं और उपहारों का दौर चलता रहा। शुभकामनाओं का सिलसिला नव वर्ष के हफता-दस दिन तक चलता रहा। जो लोग दीपावलि पर आये थे वह क्रिसमस व नव वर्ष के शुभ अवसर पर नये उपहारों के साथ फिर हाजि़र हो गये। उपहारों को तो मैं एक खाली कमरे में रखवाता रहा ताकि अपने व्‍यस्‍त बहुमूल्‍य समय से कुछ क्षण निकालकर देख व याद कर पाऊं कि किसने क्‍या दिया है।
भला हो हमारे शासक अ्ंग्रेज़ों का जो सात समुन्‍दर पार कर आकर हम में यह नई व अच्‍छी परम्‍परायें डाल गये। वरन् हमारे पास क्‍या था? हमारे पास त्‍यौहार व पर्व तो अनेकों थे पर कोई उपहार ले कर नहीं आता था। उल्‍टा कहते थे कि मैं ने भी ब्रत रखा है और तू भी रख ले। अगर उन्‍हें पता चल जाये कि हमने ब्रत नहीं रखा तो वह हमें हीन समझने लगते थे। अंग्रेज़ व पाष्‍चात्‍य सभ्‍यता की ही यह महान् देन है कि आज हम भी खाने-पीने लगे हैं। मौज-मस्‍ती करना सीख गये हैं। हमारी सभ्‍यता ने तो हमें भूखे ही मार रखा था।
उनके नव वर्ष और हमारे नव वर्ष का क्‍या मुकाबला। चैत्र नवरात्रों से हमारा नव वर्ष शुरू होता है। नव वर्ष नहीं भूखे रहने का पर्व शुरू हो जाता है। कोई कहता है कि पूरे 8-9 दिन ब्रत रखो तो कोई कहता है कि कम से कम 2-3 तो अवश्‍य रखो। पर अंग्रेज़ी नव वर्ष धूम-धड़ाके से आता है। खूब खाओ। इतना पियो कि तुम अपने सारे ग़म भूल जाओ। नाचना नहीं भी आता तो भी आप के पांव अपने आप ही थिरकने लगते हैं। किसी क्‍लब-होटल में चले जाओ। जिसके साथ चाहो जाम टकरा लो। जिसके साथ चाहो डांस कर लो — किसी जवान-बूढ़े के साथ, किसी की बीवी, बहू और बेटी के साथ। सब खुश होते हैं, गर्व वहसूस करते हैं। हमारे तो आलम ही उलटा है। अपनी बीवी भी डांस करने को तैय्यार नहीं होती। प्रेमिका को कहो तो वह भी मना कर देती है यह कह कर कि सब देख लेंगे।
इस नव वर्ष की पूर्वसंध्‍या पर मेरा एक प्रशंसक मुझे एक पांच सितारा होटल ले गया। कहने लगा कि नये वर्ष का स्‍वागत हम खूब धूमधाम से करेंगे। जैसा अच्‍छा नव वर्ष का प्रथम पल होगा, सारा वर्ष भी वैसा ही सुखी व शुभ गुज़रेगा। मैं कहता रहा कि मैं पांच सितारा कल्‍चर से दूर रहना चाहता हूं। पर उसने बड़ा ज़ोर दिया। उसके प्‍यार के आगे, उसके इसरार के आगे मैं भी झुक गया।
होटल में मैंने बढि़या खाया और पिया — वह भी जो पहले कभी मैंने छुआ तक न था। मुझे सरूर सा आ गया। बड़े प्‍यार से वह मुझे डांस फलोर तक खींच कर ले गया। मुझे पता नहीं कि मैं कैसे डांस करने लगा। मैं तो जि़न्‍दगी में कभी नाचा नहीं था — अपनी शादी में भी नहीं, अपनी बीवी के इशारे पर भी नहीं। मैं किसके साथ अपनी टांगें व हाथ भिड़ा रहा था, यह याद रखने की हालत में मैं न था। पर मुझे इतना तो याद रह गया कि वह  हाथ व बाज़ू नर्म ही थे।
मेरी बीवी ने बढि़या-बढि़या वधाई कार्ड अपने सारे कमरों में सजा दिये। कमरे में कार्डों का ढेर लग गया। मेरे छोटे पोते-पोतियां, नाती-नातियां तो उन पर चढ़ कर ऐसे खेलने लगे जैसे कि कोई रेत का ढेर हो।
मैं भी इन शुभकामनाओं के ढेर को, दीवारों पर सजे सुन्‍दर से सुन्‍दर कार्डों को, अनगिनत उपहारों को निहारूं। इस अथाह सद्भावना, समर्थन व स्‍नेह की थाह न ले पा रहा था। मैं गर्व से दबा जा रहा था। मैंने अपने स्‍टाफ को कहा कि सब के उत्‍तर जाने चाहियें। सब को धन्‍यवाद करना है। उन्‍होंने सुझाया कि एक धन्‍याद पत्र मैं अपने हाथ से लिखूं और वह इसे ऐसे छपवा देंगे कि यह लगेगा कि मैंने सबको अपने हाथ से धन्‍यवाद पत्र भेजा है। वह गद्कद् हो उठेंगे। मैंने भी उनके प्रस्‍ताव का समर्थन किया। मेरा स्‍टाफ भी मेरे प्रति कितना निष्‍ठावान् है, यह मैंने तब जाना। उन्‍होंने कहा कि नव वर्ष के वधाई सन्‍देश इतने अधिक हैं कि उत्‍तर देने में ही एक मास से अधिक लगेगा। अभी तो दीपाववलि के कुठ धन्‍यवाद पत्र भी भेजने को रह गये हैं।
मैं गद्गद् था। इतनी शुभकामनाओं के साथ, इतने समर्थन और प्‍यार के आगे मेरा कोई कुछ नहीं विगाड़ सकता। मुझे लगा कि चुनाव में मुझे हराने वाला कोई पैदा नहीं हुआ।
कुछ दिन बाद मुझे मन्‍त्री पद से त्‍यागपत्र देने के लिये कह दिया गया। मैंने हाथ जोड़ कर पूछा कि क्‍या मेरी कार्यपरायणता में कमी है, मेरी कार्यकुशलता में कोई दोष है। पर कोई उत्‍तर नहीं मिला। बड़े इसरार पर कहा कि सरकार से अधिक पार्टी संगठन में तुम्‍हारी सेवाओं की ज्‍य़ादा आवश्‍यकता है। मैंने कहा, सर संगठन से अधिक तो देश को मेरी सेवाओं की आवश्‍यता है। इस पर उसने बड़े रूखेपन से कहा — उससे अधिक पार्टी को तुम्‍हारी आवश्‍यकता है। पार्टी की सेवा भी देश सेवा ही है। मैं उसकी आंखों में कुछ पढ़ रहा था।
अपने बंगले पर आकर मैं शुभकामनाओं के अंबार के आगे कुर्सी पर निढाल हो गया। कभी मैं अपनी कुर्सी को देखूं तो कभी उस शुभकामनाओं के ढेर को। यह ढेर मेरी कुर्सी न बचा पाया। किस काम की यह शुभकामनायें। यह नव वर्ष की शुभकामनायें मेरे अशुभ्‍ को न रोक सकीं। कभी तो सोचूं कि इस ढेर को भी माचिस लगा कर ऐसी ही स्‍वाह कर दूं जैसे कि मेरा भाग्‍य जलकर राख हो गया है।                             ***
 Courtesy: UdayIndia (Hindi)

पिता की आंखों में आंसू

पिता की आंखों में आंसू

मेरे एक सम्‍बन्‍धी हैं। एक बार अपने जीवन की कहानी सुना रहे थे। कहने लगे कि एक दिन उनके पिताजी ने बताया कि वह उनकी शादी की बात कर आये हैं। उन्‍होंने बताया कि लड़की कौन है और उसका परिवार कैसा है। पर मेरे सम्‍बंधी कहीं और अपनी मर्जी़ से किसी और लड़की से विवाह रचाना चाहते थे। मेरे सम्‍बंधी ने पिताजी को साफ इन्‍कार कर दिया। तभी उनको ऐसा लगा कि उनके पिता की आंखों में आंसू आ गये हैं। वह समझ रहे थे कि उनकी ज़ुबान झूठी पड़ गई क्‍योंकि वह तो लड़की के परिवार से हां कर आये थे। अपने पिता की आंखों में आंसू मेर सम्‍बंधी देख न सके। उन्‍होंने उसी समय अपने पिताजी को कह दिया कि वह शादी वहीं करेंगे जहां वह चाहते हैं। पिता तुरन्‍त प्रसन्‍न हो गये।

आज मेरे सम्‍बंधी का भरा पूरा परिवार है — पत्नि, लड़का, लड़कियां, पोता, नाती-नातिने। आज वह स्‍वयं कहते हैं कि मैंने पिताजी की बात का सम्‍मान कर बड़ा सुख पाया। उनका जितना सुखी परिवार आज है, वह मानते हैं कि शायद तब न होता यदि वह वहां विवाह कर लेते जहां उनकी मर्जी़ थी। वह समझते हैं कि यह उसी चीज़ का परिणाम है जो उन्‍होंने अपने पिता के मन व आत्‍मा को दु:खी नहीं होने दिया।                                                       ***

Friday, February 5, 2016

हास्‍य–व्‍यंग — सूट-बूट की सरकार

हास्‍य–व्‍यंग
 कानोंकान नारदजी के
सूट-बूट की सरकार
बेटा:   पिताजी।
पिता:  हां बेटा।
बेटा:   पिताजी, राहुलजी बहुत ग़रीब हैं?
पिता:  क्‍या बकवास कर रहा है तू? राहुल गांधी और ग़रीब?
बेटा:   पिताजी, मुझे कुछ ऐसा शक हो रहा है।
पिता:  क्‍यों?
बेटा:   वह बार-बार मोदी सरकार को सूट-बूट की सरकार कह रहे हैं।
पिता:  बेटा, जो सत्‍ता से बाहर होता है वह ऐसा ही बोलता है। अपना विरोधी खाता-पीता और पहनता किसी को नहीं भाता। उसे दु:ख ही होता है।
बेटा:   पर पिताजी, यह भाषा तो वही बोलता है जिसके पास ऐसी कोई चीज़ नहीं होती और वह उसे पहन या वर्त नहीं सकता हो ।
पिता:  बेटा, तुझे नहीं पता। यह सब पालिटिक्‍स के चोंचले हैं। इसमें वह नहीं होता जो दिखाई देता है और वह होता है जो दिखाई नहीं देता। तू क्‍या समझता है कि जो खादी के कुर्त-पाजामें में घूमते फिरते हैं वह ग़रीब और सादे होते हैं? उनके पास पैसे की कमी होती है?
बेटा:   पिताजी, मुझे तो आपकी बात पर विश्‍वास नहीं हो रहा। आपको तो पता है कि सोनियाजी के पास अपनी एक छोटी सी कार भी नहीं है। क्‍या उनके पास इतने भी पैसे नहीं हैं कि वह अपने लिये एक कार खरीद सकें? उन्‍हें दूसरों का कारों पर ही निर्भर करना पड़ता है।
पिता:  बेटा पार्टी व उनके समर्थकों की बेशुमार कारें उनके लिये हर पल उपलब्‍ध हैं तो फिर अपनी कार खरीद कर फिज़ूलखर्ची करने में समझदारी नहीं है।
बेटा:   तो फिर यह सारा मामला है क्‍या?
पिता:  तुम जब स्‍कूल में पढ़ते थे तो फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता होती थी न? यह सब पालिटिक्‍स का फैंसी ड्रेस है। तुझे बेटा नेहरू-गांधी परिवार का इतिहास ज्ञान नहीं है।
बेटा:   पिताजी, मुझे बताओ, समझाओ।
पिता:  बेटाराहुल के पड़-नाना जवाहर लाल नेहरू तो इतने सम्‍पन्‍न परिवार से थे कि लेखकों ने कहा कि उन पर तो अंगेज़ी की कहावत चरितार्थ होती है कि अपने जन्‍म के समय उनके मुंह में चांदी का चम्‍मच था (He was born with a silver spoon in his mouth) । उनके कपड़े पैरिस से धुल व ड्राईक्‍लीन होकर आते थे।   
बेटा:   फिर भी नेहरूजी बहुत कम सूट-बूट पहनते थे? उनके तो बहुत कम फोटो हैं जहां उन्‍होंने कोट, पैंट और टाई पहनी हो।
पिता:  यही तो मैं तुम्‍हें समझा रहा हूं। बातों पर मत जा। यह ठीक है कि राहुल की दादी श्रीमती इन्दिरा गांधी साड़ी ही पहनती थीं पर उन्‍हें अपने अच्‍छे पहरावे व सलीके के लिये भी जाना जाता था। बेटा, राहुलजी के दादा भी बहुत बड़े रईस थे।
बेटा:   क्‍या राहुलजी के पिताजी बड़े सादा और सूट-बूट से नफरत करने वाले थे?
पिता:  नहीं बेटा। तुम्‍हें पता नहीं है। वह तो राजनीति में ज़बरदस्‍ती से लाये गये थे। उनकी तो राजनीति में कोई रूचि ही नहीं थी। पर हालात की मजबूरी ने उन्‍हें राजनीति में धकेल दिया। अपनी मां की इच्‍छा को वह टाल न सके। राजनीति में आने से पूर्व तो वह इण्डियन एयरलान्‍स में पायलेट थे। पायलटों के शौक तो तुम्‍हें पता ही है।      
बेटा:   तो क्‍या राजनीति में आने के बाद उन्‍होंने सूट-बूट छोड़ दिया?   
पिता:  नहीं। उन्‍होंने बस इतना किया कि राजनीति में आने के बाद सूट सदा बन्‍द गले का ही  पहना। वह उसमें भी बड़े स्‍मार्ट लगते थे। वह हमारे प्रधान मन्त्रियों में सब से स्‍मार्ट थे।
बेटा:   आपका मतलब है कि वह नेताओं का कुर्ता-पाजामा पहरावा नहीं पहनते थे?   
पिता:  ऐसा नहीं बेटा। जब-जब पार्टी की बैठकें होतीं थीं तो वह सदा कुर्ता-पाजामा ही पहनते थे। वह स्‍वयं इतने सुन्‍दर थे कि उनके पहनने से इस पहरावे को भी सुन्‍दरता मिल जाती थी।      
बेटा:   आप तो पिताजी मुझे कन्‍फयूज़ करते जा रहे हैं। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा। राहुलजी की पार्टी केन्‍द्र में दस वर्ष तक सत्‍ता में रही। इसका मतलब क्‍या यह हुआ कि कांग्रेस के मन्त्रियों ने कभी सूट-बूट नहीं पहना?
पिता:  मैं तो बेटा स्‍वयं इस शब्‍दावलि से कन्‍फयूज़ हो रहा हूं।
बेटा:   पिताजी, मैंने तो कांग्रेस के अनेक नेताओं को बढि़या सूट-बूट में देखा है। तब वह बड़े स्‍मार्ट लगते थे। यह ठीक है भारत में डा0 मनमोहन सिंह एक हाथ जैकट की जेब में डालकर तेज़ रफतार ही चलते थे। पर विदेश में तो टीवी पर मैंने उन्‍हें भी सूट और कई बार टाई पहने भी देखा है।
पिता:  और बूट?
बेटा:   बूट तो पिताजी सभी पहनते हैं। नंगे पांव कौन चलेगा? हां गर्मियों में सभी बढि़या चप्‍पल अवश्‍य पहनते हैं।   
पिता:  यह बात तो तेरी ठीक है। मैंने भी ऐसा ही देखा है।       
बेटा:   पिताजी, क्‍या राहुलजी ने कभी सूट-बूट नहीं पहना?
पिता: बेटा, जब से वह सार्वजनिक राजनीति में आये हैं तब से तो नहीं देखा। इससे पहले का मुझे पता नहीं।
बेटा:   उससे पहले? 
पिता:  बेटा, दुनिया की नज़रे तभी उठती हैं जब कोई व्‍यक्ति राजनीति के सार्वजनिक जीवन में पांव रखता है। पहले की कौन परवाह मारता है और न कोई ध्‍यान करता है।
बेटा:   पिताजी, राहुलजी तो साल में दो-चार बार विदेश भी हो आते हैं। क्‍या तब भी वह सूट-बूट नहीं पहनते?
पिता:  यह तो बेटा तब पता चले जब राहुलजी अपने चाहने वालों को यह जानने दें कि वह कहां, किसके पास, क्‍यों और किस देश में गये हैं। इस कारण उनकी कोई फोटों छपती नहीं। वैसे बेटा, आमतौर पर हमारे सभी नेता व शासक जब विदेश जाते हैं तो विदेशी पहरावे का मोह छोड़ नहीं पाते। राहुलजी का पता नहीं। उनकी सोच भी औरों से अलग होने की सम्‍भावना कम ही है।         
बेटा:   पिताजी, यह सूट-बूट और कुर्ते-पाजामें का भेदभाव समझ नहीं आता।
पिता: बेटा, आज़ादी की लड़ाई के समय गांधीजी ने सब को आम आदमी की तरह खादी पहनने पर ज़ोर दिया। परिणामस्‍वरूप जो आज़ादी की लड़ाई में कूदा उसने उस समय कुर्ता-पाजामा व गांधी टोपी पहननी शुरू कर दी। समय बीतने पर यह कांग्रेसियों व आज़ादी के लड़ाकुओं की एक प्रकार से वर्दी ही बन बैठी।     
बेटा:   पितीजी, गांधी टोपी तो अब दिखाई नहीं देती?
पिता:  बेटा, ऐसा हुआ कि जब आज़ादी मिल गई तो कांग्रेसी भाईर्यों ने पहरावे में सादगी बनाये रखने का प्रण लिया। कुर्ता-पाजामा एक प्रकार से सत्‍ताधारी दल की वर्दी व पहचान सी बन गया। पर अब तो खादी कम और दूसरे ही बढि़या कुर्ते पाजामें चलते हैं। ज्‍यों-ज्‍यों सत्‍ताधारियों में सम्‍पन्‍नता छाती गई कुर्ता-पाजामा बढि़या होता गया। गांधी टोपी तो अब कांग्रेसियों के सिर से उतर गई है। कभी-कभार खास मौकों पर अवश्‍य प्रकट हो जाती है।
बेटा:   पिताजी, अब तो बढि़या कुर्ता-पाजामा नेता का ड्रैस ही बन गया है। जो भी राजनीति में कूदता है वह अपनी पैंट-कमीज़ त्‍याग कर बढि़या से बढि़या कुर्ता-पाजामा धारण कर लेता है। वह नेता हो न हो पर ड्रैस से अवश्‍य लगता है।       
पिता:  तूने बिलकुल ठीक कहा। कुर्ता-पाजामा नेता होने की पहचान बन गया है। यह अलग बात है कि यह भेद कर पाना मुश्किल हो गया है कि कौन व्‍यक्ति किस पार्टी से है?       
बेटा:   पिताजी, यह बात तो ठीक है कि जब कोई व्‍यक्ति बढि़या कुर्ता-पाजामा पहने प्रकट हो जाता है तो दूसरा बिन पूछे ही मान बैठता है कि यह महानुभाव कोई नेता तो हैं ही ।
पिता:  इस पर तो मुझे एक पुरानी घटना याद आ गई। शुरू-शुरू में कई लोग इसी प्रकार कुर्ता-पाजामा व गांधी टोपी पहन लेते थे और दूसरे यह समझ बैठते थे कि यह कोई कांग्रेसी नेता है। ऐसे ही एक शहर में एक नया एसडीएम आया। जब वह सुबह आफिस आता तो एक सफेदपोश कांग्रेसी रोज़ उसका अभिवादन करने पहुंच जाता । एसडीएम बडे आदर से उससे हाथ मिलाता। काफी दिन बीत जाने पर एक दिन उसने अपने पीए से पूछ ही लिया कि यह बहुत अच्‍छे कांग्रेसी नेता कौन हैं जो रोज़ मेरे आने पर मेरा अभिवादन करने पहुंच जाते हैं। एसडीएम ठगा सा रह गया जब उसके पीए ने बताया कि यह तो हमारे आफिस का एक चपड़ासी है।      
बेटा:   इसमें तो कोई शक नहीं कि गलतफहमी तो हो ही जाती है। पर पिताजी, यह पहरावा सादगी का रूप तो अवश्‍य है।   
पिता: खाक। इन्‍हीं लोगों ने तो पांच-सितारा संस्‍कृति को जन्‍म दिया। पहनते तो कुर्ता-पाजामा है पर रहते पांच-सितारा ठाठ में। यह तो एक छलावा है।
बेटा:   पर पिताजी, राहुलजी तो ऐसे नहीं हैं। वह तो आम आदमी की तरह का ही सादा जीवन व्‍यतीत करते हैं। ग़रीब की, किसान की, पिछड़े समाज की बात करते हैं। उनके सच्‍चे हितैषी हैं।
पिता:  तू मेरे को बता कि चुनाव से पूर्व तो वह जनजाति परिवारों, अनुसूचित जाति के घरों में घुस जाते थे। चुनाव के बाद भी गये वह? किसान के हितैषी तो बनते हैं पर 10 साल जब कांग्रेस का शासन रहा तो वह समस्‍यायें उन्‍होंने क्‍यों नहीं हल कीं जिनके लिये आज वह सब कुछ न्‍यौछावर करने का दम भरते हैं?        
बेटा:   वह मोदी सरकार को सूट-बूट की सरकार इसी लिये बताते हैं क्‍योंकि वह स्‍वयं सादा रहते हैं। पर पिताजी आपकी बातों से तो यह पता चलता है कि सूट-बूट तो कांग्रेसी व उनके पूर्वज भी पहनते थे। तो आजके सूट-बूट व पिछले शासकों के सूट-बूट में क्‍या अन्‍तर है? 
पिता:  बेटा, यह तो तू अपने प्रिय नेता राहुल जी से ही पूछ।                         *** 
Courtesy: UdayIndia Hindi