Sunday, June 27, 2021

अद्भुत आदर्श राम और रामायण के

अद्भुत आदर्श राम और रामायण के रामायण एक अति उत्तम पावन ग्रन्थ है | यह भारत की संस्कृति और मान्यताओं का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है | यह ग्रन्थ रामायण काल में परिवार, माता-पिता, भाई-भाई, भाई-बहन, पति-पत्नी, मित्रता, राजा और प्रजा के बीच परस्पर संबंधों का एक आदर्श प्रस्तुत करता है | यही कारण है कि जो व्यक्ति जितनी बार भी रामायण पढता है उसके मन में इसे और बार भी पढने, सुनने और सुनाने की प्रबल इच्छा जागृत हो जाती है | इस महान ग्रन्थ में से एक प्रसंग निकाल कर एक मित्र ने भेजा है | मेरे विचार में इसे जितने और भी महानुभाव पढेंगे उतना ही और आनंद आएगा और जनमानस का भला होगा| इससे सबको और भी शिक्षा और प्रेरणा प्राप्त होगी| हाँ, इतना अवश्य है कि जो भी इसे पढेंगे, यह प्रसंग उनके दिल को छू जाएगा और उन्हें अपनी भावनाओं और आंसुओं पर अवश्य संयम बरतना होगा| रामायण का यह एक छोटा सा वृतांत आपके लिए प्रस्तुत है| एक रात की बात हैं| माता कौशल्याजी को सोते हुए अपने महल की छत पर किसी के चलने की आहट सुनाई दी। नींद खुल गई, पूछा कौन हैं ? मालूम पड़ा कि श्रुतकीर्ति जी (सबसे छोटी बहु, शत्रुघ्न जी की पत्नी) हैं। माता कौशल्याजी ने उन्हें नीचे बुलाया| श्रुतकीर्तिजी आईं, चरणों में प्रणाम कर खड़ी रह गईं | माता कौशिल्याजी ने पूछा, श्रुति ! इतनी रात को अकेली छत पर क्या कर रही हो, बेटी? क्या नींद नहीं आ रही ? शत्रुघ्न कहाँ है ? श्रुतिकीर्ति की आँखें भर आईं, माँ की छाती से चिपटी, गोद में सिमट गईं| बोलीं, माँ उन्हें देखे हुए तो तेरह वर्ष हो गए हैं । उफ ! कौशल्याजी का ह्रदय काँप कर छटपटा गया । तुरंत आवाज लगाई, सेवक दौड़े आए । आधी रात ही पालकी तैयार हुई| आज शत्रुघ्नजी की खोज होगी, माँ चली । पूछा, आपको मालूम है कि शत्रुघ्नजी कहाँ मिलेंगे ? अयोध्याजी के जिस दरवाजे के बाहर भरतजी नंदिग्राम में तपस्वी होकर रहते हैं, उसी दरवाजे के भीतर एक पत्थर की शिला हैं, उसी शिला पर, अपनी बाँह का तकिया बनाकर लौटे मिले शत्रुघ्नजी !! माँ सिराहने बैठ गईं | बालों में हाथ फिराया तो शत्रुघ्नजी ने आँखें खोलीं, उठे, चरणों में गिरे | बोले, माँ ! आपने क्यों कष्ट किया ? मुझे बुलवा लिया होता । माँ ने पूछा , शत्रुघ्न ! यहाँ क्यों ?" शत्रुघ्नजी की रुलाई फूट पड़ी, बोले- माँ ! भैया रामजी पिताजी की आज्ञा से वन चले गए| भैया लक्ष्मणजी उनके पीछे चले गए, भैया भरतजी भी नंदिग्राम में हैं| क्या ये महल, ये रथ, ये राजसी वस्त्र, विधाता ने मेरे लिए ही बनाए हैं ? माता कौशल्याजी निरुत्तर रह गईं । देखो क्या है ये रामकथा...यह भोग की नहीं....त्याग की कथा हैं..!! यहाँ त्याग की ही प्रतियोगिता चल रही हैं और सभी प्रथम हैं, कोई पीछे नहीं रहा... चारो भाइयों का प्रेम और त्याग एक दूसरे के प्रति अद्भुत-अभिनव और अलौकिक हैं । "रामायण" जीवन जीने की सबसे उत्तम शिक्षा देती हैं । भगवान राम को 14 वर्ष का वनवास हुआ तो उनकी पत्नी सीता माईया ने भी सहर्ष वनवास स्वीकार कर लिया..!! बचपन से ही बड़े भाई की सेवा मे रहने वाले लक्ष्मणजी कैसे रामजी से दूर हो जाते? माता सुमित्रा से तो उन्होंने आज्ञा ले ली थी, वन जाने की | परन्तु जब पत्नी उर्मिला के कक्ष की ओर बढ़ रहे थे तो सोच रहे थे कि माँ ने तो आज्ञा दे दी, पर उर्मिला को कैसे समझाऊंगा.?? क्या बोलूँगा उनसे.? यहीं सोच विचार करके लक्ष्मणजी जैसे ही अपने कक्ष में पहुंचे तो देखा कि उर्मिलाजी आरती का थाल लेकर खड़ी थीं और बोलीं- "आप मेरी चिंता छोड़ प्रभु श्रीराम की सेवा में वन को जाओ...मैं आपको नहीं रोकूँगीं। मेरे कारण आपकी सेवा में कोई बाधा न आये, इसलिये साथ जाने की जिद्द भी नहीं करूंगी।" लक्ष्मणजी को कहने में संकोच हो रहा था.!! परन्तु उनके कुछ कहने से पहले ही उर्मिलाजी ने उनको संकोच से बाहर निकाल दिया..!! वास्तव में यहीं पत्नी का धर्म है..पति संकोच में पड़े, उससे पहले ही पत्नी उसके मन की बात जानकर उसे संकोच से बाहर कर दे.!! लक्षमणजी चले गये परन्तु 14 वर्ष तक उर्मिला ने एक तपस्विनी की भांति कठोर तप किया.!! वन में प्रभु श्रीराम व माता सीता की सेवा में लक्ष्मणजी कभी सोये नहीं , परन्तु उर्मिला ने भी अपने महलों के द्वार कभी बंद नहीं किये और सारी रात जाग-जागकर उस दीपक की लौ को बुझने नहीं दिया.!! मेघनाथ से युद्ध करते हुए जब लक्ष्मणजी को “शक्ति” लग जाती है और हनुमानजी उनके लिये संजीवनी का पर्वत उठाकर लौट रहे थे | बीच में जब हनुमानजी अयोध्या के ऊपर से गुजर रहे थे तो भरतजी ने उन्हें राक्षस समझकर हनुमानजी पर बाण मार देते हैं और वह पृथ्वी पर गिर जाते हैं.!! तब हनुमानजी सारा वृत्तांत सुनाते हैं कि सीताजी को रावण हर ले गया, लक्ष्मणजी युद्ध में मूर्छित हो गए हैं। यह सुनते ही कौशल्याजी कहती हैं कि राम को कहना कि “लक्ष्मण” के बिना अयोध्या में पैर भी मत रखना। राम वन में ही रहे.!! इस पर लक्ष्मणजी की माता सुमित्रा कहती हैं कि राम से कहना कि कोई बात नहीं..अभी शत्रुघ्न है.!! मैं उसे भेज दूंगी..मेरे दोनों पुत्र “राम सेवा” के लिये ही तो जन्मे हैं.!! माताओं का प्रेम देखकर हनुमानजी की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी । परन्तु जब उन्होंने उर्मिलाजी को देखा तो सोचने लगे कि यह क्यों एकदम शांत और प्रसन्न खड़ी हैं? क्या इन्हें अपनी पति के प्राणों की कोई चिंता नहीं है ? हनुमान जी पूछते हैं -- देवी! आपकी प्रसन्नता का कारण क्या है? आपके पति के प्राण संकट में हैं...सूर्य उदित होते ही सूर्य कुल का दीपक बुझ जायेगा। उर्मिलाजी का उत्तर सुनकर तीनों लोकों का कोई भी प्राणी उनकी वंदना किये बिना नहीं रह पाएगा.!! उर्मिलाजी बोलीं- "मेरा दीपक संकट में नहीं है, वह बुझ ही नहीं सकता.!! रही सूर्योदय की बात तो आप चाहें तो कछ दिन अयोध्या में विश्राम कर लीजिये, क्योंकि आपके वहां पहुंचने से पूर्व सूर्य उदित हो ही नहीं सकता.!! आपने कहा कि प्रभु श्रीराम मेरे पति को अपनी गोद में लेकर बैठे हैं..! जो “योगेश्वर प्रभु श्रीराम” की गोदी में लेटा हो, उसे काल भी छू नहीं सकता..!! यह तो वह दोनों लीला कर रहे हैं | मेरे पति जब से वन गये हैं, तबसे सोये नहीं हैं..उन्होंने न सोने का प्रण लिया था..इसलिए वे थोड़ी देर विश्राम कर रहे हैं..और जब भगवान् की गोद मिल गयी तो थोड़ा विश्राम ज्यादा हो गया...वे उठ जायेंगे..!! और “शक्ति” मेरे पति को नही प्रभु श्री रामजी को लगी है.!! मेरे पति की हर श्वास में राम हैं, हर धड़कन में राम, उनके रोम-रोम में राम हैं, उनके खून की बूंद बूंद में राम हैं और जब उनके शरीर और आत्मा में सिर्फ राम ही हैं, तो शक्ति रामजी को ही लगी, दर्द रामजी को ही हो रहा है.!! इसलिये हनुमानजी आप निश्चिन्त होकर जाएँ..सूर्य आपके वहां पहुँचने से पहले उदित ही नहीं होगा।" राम राज्य की नींव जनकजी की बेटियां ने ही की थीं... कभी “सीता” तो कभी “उर्मिला”..!! भगवान् राम ने तो केवल राम राज्य का कलश स्थापित किया .. वास्तव में राम राज्य की संरचना ही इन सबके प्रेम, त्याग, समर्पण और बलिदान से ही हो पाई थी .!! जिस मनुष्य में प्रेम, त्याग, समर्पण की भावना हो उस मनुष्य में राम ही बसते है... कभी समय मिले तो अपने वेद, पुराण, गीता, रामायण को पढ़ने और समझने का प्रयास कीजिएगा | जीवन को एक अलग नज़रिए से देखने और जीने का सुअवसर मिलेगा .!! "लक्ष्मण सा भाई हो, कौशल्या माई हो, स्वामी तुम जैसा, मेरा रघुराइ हो.. नगरी हो अयोध्या सी, रघुकुल सा घराना हो, चरण हो राघव के, जहाँ मेरा ठिकाना हो.. हो त्याग भरत जैसा, सीता सी नारी हो, लव कुश के जैसी, संतान हमारी हो.. श्रद्धा हो श्रवण जैसी, सबरी सी भक्ति हो, हनुमत के जैसी निष्ठा और शक्ति हो... " ये रामायण है, पुण्य कथा श्री राम की। ***

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