Sunday, June 15, 2014

हास्‍य-व्‍यंग जी हां, मैं दिग्‍गी राजा

हास्‍य-व्‍यंग
जी हां, मैं दिग्‍गी राजा
   अम्‍बा चरण वशिष्‍ठ

मैं दिगविजय सिंह हूं। प्‍यार से लोग मुझे दिग्‍गी राजा भी पुकारते हैं। कई शरारती, घटिया लोग तो डॉगी राजा ही कह देते हैं। सफाई देते हैं कि 'I' के स्‍थान पर उनसे   'o' टाइप हो गया। मैं भी उन लोगों को मुआफ कर देता हूं। पर मैं भी कच्‍चा खिलाड़ी नहीं हूं। मैं भी तीर चलाने में माहिर हूं। जब भी मेरा तुक्‍का लगेगा मैं भी उन्‍हें घायल कर रख दूंगा।

मैं राजा के घर पैदा हुआ तो उस में मेरा क्‍या कसूर। कोसना है तो ईश्‍वर को कोसो, मेरे पिता को दोष दो। मैं ने तो जनता पर राज किया नहीं। जनता का सेवक बन कर मैंने बस उस की सेवा ही की है। मध्‍य प्रदेश का मुख्‍य मन्‍त्री रह कर दस वर्ष मैंने राष्‍ट्र की सेवा ही की। पर मेरी जनता बड़ी कृतघ्‍न निकली। बांधती रही मेरी तारीफों के पुल और चुनाव में जिता दिया मेरे विरोधियों को। तब मैं ने भी प्रण कर लिया कि जनता को इस अपराध की सज़ा अवश्‍य दूंगा अगले दस वर्ष तक कोई चुनाव न लड़ कर और न कोई पद ग्रहण कर। राजा नहीं हूं पर संस्‍कार तो मुझ में हैं ना — प्राण्‍ जायें पर वचन न जाये।

पर कमज़ोरी तो हर इन्‍सान में होती है। गांधी परिवार तो मेरी कमज़ोरी है। मैं उनका अनन्‍य भक्‍त हूं। मेरा तो धर्म-ईमान ही वही हैं। जब सोनियाजी ने मुझे केन्‍द्र में पार्टी का महासचिव बना दिया तो मैं उन्‍हें कैसे मना कर सकता था। मैं ही क्‍या, कोई और भी ऐसी हिमाकत नहीं कर सकता। मैं ने कह दिया, ''जो हुक्‍म जनाब''। मैं ने तो अपने परिवार में भी यही देखा है। वहां भी बस ''हां'' ही होती है। ना का तो कोई सवाल ही नहीं। फिर मैं तो दरबारी आदमी हूं। पद मैंने मांगा तो नहीं ना।

इस एहसान के बदले में मैंने सोनियाजी की जो सेवा की है वह सर्वविदित है। मैंने कभी उन पर आंच नहीं आने दी। उन पर तो क्‍या मैंने कभी उसे नहीं बख्‍शा जिसने उनके पुत्र पर कभी टेढ़ी नज़र से देखा हो। फिर राहुल बाबा तो मुझे अपना गुरू भी मानते हैं। मैं भी उनका बड़ा आदर करता हूं। समय-समय पर उन्‍हें सीख देता रहता हूं। पर मुझे दु:ख है कि इस बार वह पार्टी को फिर से सत्‍ता में न ला सके। मुझे भी उनसे बड़ी उम्‍मीद थी। पर राहुल जी भी क्‍या कर सकते थे\ अगर सिपाही ही कायर और कमज़ोर निकले तो सेनापति क्‍या कर लेगा\ वह हर स्‍थान पर, हर मोर्चे पर स्‍वयं तो लड़ नहीं सकता। इस बार संगठन व प्रत्‍याशियों की कमज़ोरी से अगर पार्टी हार गई तो उसके लिये राहुलजी बिल्‍कुल जि़म्‍मेवार नहीं हैं।

मैं सोच रहा था कि मेरा भी दस वर्ष का बनवास खत्‍म हो गया है। राहुलजी जीत जाते तो मेरा भी कुछ बन जाता। मन्त्रिमण्‍डल तो तय ही था। प्रश्‍न तो केवल यह था कि मन्‍त्रालय गृह मिलता कि रक्षा या फिर विदेश। पर सब चौपट हो गया। उधर मध्‍य प्रदेश की जनता ने भी मुझ पर कोई कृपा नहीं की। उल्‍टे उन्‍होंने कांग्रेस की हार को पहले से भी अधिक करारी बना दिया। मुझे तो एक प्रकार से प्रदेश निकाला ही दे दिया। शुक्र है उन्‍होंने मेरे बेटे को विधान सभा में जिता कर मेरी लाज रख ली। पर मेरे कई विरोधी तो चुटकी लेते हैं — बेटा जीत गया, बाप होता तो उसकी बुरी हालत होती। चलो, कुछ भी है। जीता तो मेरा बेटा ही ना। मेरी पार्टी की कुल व्‍यवस्‍था तो वाधित नहीं हुई।

कई मुझ पर भी उंगली उठा रहे हैं। कह रहे हैं कि तेरा शिष्‍य हार गया। वह सब मुर्ख हैं, अनाड़ी। उन्‍हें इतिहास का ज्ञान नहीं। उन्‍हें पता नहीं कि कौरव और पांडव दोनों ही गुरू द्रोणाचार्य के शिष्‍य थे। दोनों को ही उन्‍होंने शस्‍त्रविद्या सिखाई थी। पर कौरव हार गये और पांडव जीत गये, तो कौरवों की हार में द्रोणाचार्य का क्‍या दोष है\

लोग चाहे माने या न माने पर मैं अपने आपको महाभारत के संजय का अवतार मानता हूं जो धृतराष्‍ट्र को युद्ध का आंखों देखा हाल सुनाते थे। यही कारण है कि देश-विश्‍व में कहीं भी कोई भी घटना घट जाये मेरी आंख उसी क्षण सब देख लेती थी कि किसने क्‍या किया और उसमें किस का हाथ है। मैंने कई बार मीडिया के माध्‍यम से सरकार को भी सूचित व सावधान किया। मैंने कई बार बताया कि किस घटना के पीछे संघ का हाथ है। मैंने तो आगाह किया था कि करकरे ने उनसे बात की थी और उन्‍होंने हिन्‍दू संगठनों से अपने जीवन को खतरे के प्रति संकेत दिया था। मैंने सैकुलरीज़म के महानतम् तीर्थधाम आज़मगढ़ के भी कई बार दर्शन किये और कांग्रेस के लिये मन्‍नतें मांगी। मैंने बार-बार कहा कि बाटला हाऊस ऐनकाऊंटर एक ड्रामा था। पर तब सरकार ने मेरी एक न सुनी। कांग्रेस बुरी तरह हारी। अब पछताने से क्‍या फायदा जब चिडि़यां चुग गईं खेत।

कहते हैं कि प्‍यार की उम्र नहीं होती। यह बात मैंने अपने आप पर सच उतरती देखी है। मेरी धर्मपत्नि स्‍वर्गवास हो गई। इस उम्र में तो आप को पता है कि जीवन साथी की बड़ी आवश्‍यकता होती है। और विधि का विधान देखो कि उधर मेरी धर्मपत्नि गई और उधर मेरी जि़न्‍दगी में उसकी जगह भरने के लिये आ गई एक और सुन्‍दर और उससे भी कम उम्र की — मेरी बेटियों से कम उम्र की। हम दोनों ने साथ रहने, साथ जीने-मरने की कसमें भी खाईं। हमारा प्‍यार इतना सच्‍चा व पवित्र था कि हम दोनों ने शादी करने की घोषणा भी कर दी। मेरी तो पत्नि नहीं थी पर उसका तो पति था। वह मेरे लिये बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने के लिये तैयार हो गई। उसने भी अपने पति से तलाक लेने के लिये आवेदन कर दिया और अपना निश्‍चय दोहराया कि तलाक मिलने पर वह मुझ से तुरन्‍त शादी रचा लेगी।

मुझे अपने बेटे पर नाज़ है कि उसने भी मेरी भावनाओं और प्‍यार के प्रति मेरी निष्‍ठा का सम्‍मान किया और कह दिया कि यदि मैं अपने बच्‍चों को बनी-बनाई मां का उपहार दे दूं तो वह उसे सहर्ष स्‍वीकार कर लेंगे।

प्‍यार का दुश्‍मन तो सारा ज़माना होता है। उसमें बाधायें और रोड़ा अटकाने वाले अनेक होते हैं। यही मेरे साथ हुआ। प्‍यार के आगे तो सारा ज़माना झुक जाता है। ईश्‍वर भी नतमस्‍तक हो जाता है और अन्‍तत: आशीर्वाद दे देता है। पर उफ, मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ। सारी दुनिया मेरी बैरी बन बैठी। आखिर मैं ही हार बैठा और घोषणा करनी पड़ी कि मैंने शादी करने का अपना मन बदल लिया है। 

देखो, लोग मुझे अब कायर कहने लगे हैं, उस व्‍यक्ति को जिसने इस उम्र में भी प्‍यार करने की हिम्‍मत दिखाई, उस व्‍यक्ति को जिसने प्‍यार के इज़हार में कायरता नहीं वीरता दिखाई। मैंने शादी न करने का निर्णय ज़रूर लिया है पर मैं बेवफा नहीं हूं। मेरा प्‍यार खत्‍म नहीं हुआ है। प्‍यार न खत्‍म होता है, न मरता है। कोई बात नहीं यदि हम इस जीवन में एक न हो सके, स्‍वर्ग में तो अवश्‍य इकट्ठे होंगे। वहां तो हमें कोई नहीं रोक सकेगा, ईश्‍वर भी नहीं। पर धत्‍त–तेरे की। वहां भी दूध में मक्‍खी। मेरी धर्मपत्नि तो आगे ही स्‍वर्गवासी है। वह तो मुझ से भी पहले स्‍वर्ग पहुंच चुकी है। वह तो मुझ पर पहले ही कब्‍ज़ा कर लेगी। वह तो हमें वहां भी शादी करने न देगी। पर मैं भी अपने प्‍यार के लिये हर कुर्बानी देने को तैयार हूं। मैं धर्मराज के पांव पकड़ लूंगा और तब तक नहीं छोड़ूगा जब तक वह मुझे और मेरे प्‍यार को नर्क भेजने का फरमान जारी न कर दें। उसके बाद हम दोनों और हमारा प्‍यार मौज-मस्‍ती में अपना जीवन बितायेंगे।

हमारा प्‍यार, जि़न्‍दाबाद।
हमारा प्‍यार, जि़न्‍दाबाद।

तभी मुझे एक कड़क सी आबाज़ सुनाई दी: ''सपने में क्‍या बकते जा रहे हो\''

मेरी बीवी\ फिर ख्‍याल आया कि यह तो मेरा भ्रम ही है। मेरी बीवी तो मर चुकी है। तभी फिर आवाज़ आई — ''उठते हो या मैं पानी गिराऊं उठाने के लिये\''

आंखें मलते हुये मैं बड़बड़ाया — ''पर मैं तो दिग्‍गी राजा....''

तभी एक बार फिर कड़क आवाज़ आई — '' सुबह-सुबह किसका नाम सुना दिया\ आज पता नहीं कैसा दिन गुज़रेगा\ पर यह दिग्‍गी-दिग्‍गी क्‍या बड़बड़ाये जा रहे हो\ पता नहीं क्‍या-क्‍या सपने देखते रहते हो। पर याद रखना, यदि उस कलमुंहे की तरह इस उम्र में शादी की बात करोगे तो'', उसने झाड़ू लहराते हुये कहा, ''मैं उसकी बीवी की तरह मरी नहीं हूं, जि़न्‍दा हूं। इस झाड़ू से पीट-पीट कर घर से बाहर कर दूंगी''।

''मुआफ कर, भाग्‍यवान्'', मैंने हाथ जोड़ते हुये कहा। ''वह तो सपने की ग़लती थी''। 

Modi Government's stress INCLUSIVE APPROACH FOR INCLUSIVE GROWTH

Modi Government's stress
INCLUSIVE APPROACH FOR INCLUSIVE GROWTH

By Amba Charan Vashishth


Governance is the key to a good administration. The malady of our governments in the past has been that we had a bloated government but a weak apparatus for governance. The then Finance Minister in the Manmohan Singh government, Mr. P. Chidambaram, had himself once admitted that the malady of the UPA government lay in “governance deficit”. The government allowed the administration to drift. It seemed to believe that it need not have to act. It allowed the problems and issues to drift in the hope that in the course of time these will find their own solution.

But it is not so with the new BJP-led NDA government of Mr. Narendra Modi who has decided to take head on the problems and the issues confronting the nation. He doesn’t wish to take chances. He wishes to himself work and make his colleagues to lend him their helping hand to work out solutions.

Shri Modi convened a second meeting of his cabinet in just three days of his being sworn in. He exhorted his ministers to chalk out a 100-day agenda with focus on efficient governance, delivery and implementation of programmes. He wants to make the decision making process fast and an inclusive affair by giving priority to the issues highlighted by the States and the MPs crucial to the country’s development. As against the previous government where Ministers of State complained of having no work to perform, Shri Modi has asked cabinet ministers to assign work to their junior ministers  All these steps were in line with the PM’s 10-point vision which primarily involved increasing investment, completing infrastructure projects in a time-bound manner and exploiting the natural resources for the country’s benefit with the issues like the price rise, agriculture and women safety  remaining in the priority zone.

Shri Modi does not believe, like his predecessors, in sweeping away to the dust bin the programmes of the previous government he inherited. He has decided to take forward these rotting for want of action and decision.
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From his experience Shri Modi is aware that implementing a decision is much more vital than framing a policy however beneficial to the people it may be.
Similarly, a programme or policy needs to be implemented with no less intensity of the spirit with which it is formulated. A faulty and corrupt implementation may take out the very life and spirit of a welfare programme.
That is why Shri Modi wishes to take along not only the political class but also the bureaucracy.

To inject a sense of belonging to the bureaucracy in the formation and implementation of a policy, Shri Modi made a new beginning by meeting and speaking to administrative secretaries of more than 75 ministries on June 4. He was displaying his zeal to generate a “positive environment” in administration.  He has given a lie to the general perception among the political class that babudom is a hindrance to the realisation of dreams of the government in power. He sent out a positive signal to the bureaucray that in his scheme of things its role is central to implement his agenda of “minimum government and maximum governance”. This gesture has infused such a positive signal that a senior secretary is reported to have commented: “”It was a different experience. For four years, we had gotten used to the idea of even someone like the Cabinet Secretary not having the time to spare for secretaries, forget about the Prime Minister”.  Added another secretary: "Ït was a pleasant change. One came away with the feeling that he (Modi) means business and has the ability to take important decisions".

The Industrial Policy and Promotion Secretary Amitabh Kant was so impressed that he tweeted: First time in my career frank and fearless interaction with the Prime Minister of the country. Highly motivating, great flow of ideas.

But some people  are trying to read something wrong in this positive gesture of the PM. Some have interpreted it as undermining the position of the ministers when secretaries meet the PM directly. It makes no difference as long as the bridges of communication between the three organs — the secretary, the minister and the Prime Minister — are kept alive. The problem will arise only when egos clash. And a conflict of egos never augurs well for anybody, high or low, in any situation.

Even if an idea directly propounded by a secretary clicks with the PM, it can ultimately come to fruition only in consultation with the minister concerned.  Moreover, it is a normal practice that in the event of a difference of opinion between a secretary and a minister on any issue, the matter goes to the prime minister (chief minister in a State) for final decision and if necessary, it can land in the council of ministers' court even.   


The doubts being aired that the bureaucracy will rule the roost overriding the ruling class are misplaced. unfounded and far-fetched. If under Shri Modi this could not happen in Gujarat, it can never occur in Delhi too.                        *** 
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