हास्य-व्यंग
जी हां, मैं दिग्गी राजा
— अम्बा चरण वशिष्ठ
मैं दिगविजय सिंह हूं। प्यार से लोग मुझे दिग्गी राजा भी पुकारते हैं। कई
शरारती, घटिया लोग तो डॉगी राजा ही कह देते हैं। सफाई देते हैं कि 'I' के स्थान पर उनसे
'o' टाइप हो गया। मैं भी उन
लोगों को मुआफ कर देता हूं। पर मैं भी कच्चा
खिलाड़ी नहीं हूं। मैं भी तीर चलाने में माहिर हूं। जब भी मेरा तुक्का लगेगा मैं
भी उन्हें घायल कर रख दूंगा।
मैं राजा के घर पैदा हुआ तो उस में मेरा क्या कसूर। कोसना है तो ईश्वर को
कोसो, मेरे पिता को दोष दो। मैं ने तो जनता पर राज किया नहीं। जनता का सेवक बन कर मैंने
बस उस की सेवा ही की है। मध्य प्रदेश का मुख्य मन्त्री रह कर दस वर्ष मैंने राष्ट्र
की सेवा ही की। पर मेरी जनता बड़ी कृतघ्न निकली। बांधती रही मेरी तारीफों के पुल
और चुनाव में जिता दिया मेरे विरोधियों को। तब मैं ने भी प्रण कर लिया कि जनता को
इस अपराध की सज़ा अवश्य दूंगा अगले दस वर्ष तक कोई चुनाव न लड़ कर और न कोई पद ग्रहण
कर। राजा नहीं हूं पर संस्कार तो मुझ में हैं ना — प्राण् जायें पर वचन न जाये।
पर कमज़ोरी तो हर इन्सान में होती है। गांधी परिवार तो मेरी कमज़ोरी है। मैं
उनका अनन्य भक्त हूं। मेरा तो धर्म-ईमान ही वही हैं। जब सोनियाजी ने मुझे केन्द्र
में पार्टी का महासचिव बना दिया तो मैं उन्हें कैसे मना कर सकता था। मैं ही क्या,
कोई और भी ऐसी हिमाकत नहीं कर सकता। मैं ने कह दिया, ''जो हुक्म जनाब''। मैं ने तो
अपने परिवार में भी यही देखा है। वहां भी बस ''हां'' ही होती है। ना का तो कोई
सवाल ही नहीं। फिर मैं तो दरबारी आदमी हूं। पद मैंने मांगा तो नहीं ना।
इस एहसान के बदले में मैंने सोनियाजी की जो सेवा की है वह सर्वविदित
है। मैंने कभी उन पर आंच नहीं आने दी। उन पर तो क्या मैंने कभी उसे नहीं बख्शा
जिसने उनके पुत्र पर कभी टेढ़ी नज़र से देखा हो। फिर राहुल बाबा तो मुझे अपना गुरू
भी मानते हैं। मैं भी उनका बड़ा आदर करता हूं। समय-समय पर उन्हें सीख देता रहता
हूं। पर मुझे दु:ख है कि इस बार वह पार्टी को फिर से सत्ता में न ला सके। मुझे भी
उनसे बड़ी उम्मीद थी। पर राहुल जी भी क्या कर सकते थे\ अगर सिपाही ही
कायर और कमज़ोर निकले तो सेनापति क्या कर लेगा\ वह हर स्थान पर, हर मोर्चे पर स्वयं तो लड़ नहीं सकता। इस
बार संगठन व प्रत्याशियों की कमज़ोरी से अगर पार्टी हार गई तो उसके लिये राहुलजी
बिल्कुल जि़म्मेवार नहीं हैं।
मैं सोच रहा था कि मेरा भी दस वर्ष का बनवास खत्म हो गया
है। राहुलजी जीत जाते तो मेरा भी कुछ बन जाता। मन्त्रिमण्डल तो तय ही था। प्रश्न
तो केवल यह था कि मन्त्रालय गृह मिलता कि रक्षा या फिर विदेश। पर सब चौपट हो गया।
उधर मध्य प्रदेश की जनता ने भी मुझ पर कोई कृपा नहीं की। उल्टे उन्होंने कांग्रेस
की हार को पहले से भी अधिक करारी बना दिया। मुझे तो एक प्रकार से प्रदेश निकाला ही
दे दिया। शुक्र है उन्होंने मेरे बेटे को विधान सभा में जिता कर मेरी लाज रख ली। पर
मेरे कई विरोधी तो चुटकी लेते हैं — बेटा जीत गया, बाप होता तो उसकी बुरी हालत
होती। चलो, कुछ भी है। जीता तो मेरा बेटा ही ना। मेरी पार्टी की कुल व्यवस्था तो
वाधित नहीं हुई।
कई मुझ पर भी उंगली उठा रहे हैं। कह रहे हैं कि तेरा शिष्य
हार गया। वह सब मुर्ख हैं, अनाड़ी। उन्हें इतिहास का ज्ञान नहीं। उन्हें पता नहीं
कि कौरव और पांडव दोनों ही गुरू द्रोणाचार्य के शिष्य थे। दोनों को ही उन्होंने
शस्त्रविद्या सिखाई थी। पर कौरव हार गये और पांडव जीत गये, तो कौरवों की हार में
द्रोणाचार्य का क्या दोष है\
लोग चाहे माने या न माने पर मैं अपने आपको महाभारत के संजय
का अवतार मानता हूं जो धृतराष्ट्र को युद्ध का आंखों देखा हाल सुनाते थे। यही
कारण है कि देश-विश्व में कहीं भी कोई भी घटना घट जाये मेरी आंख उसी क्षण सब देख
लेती थी कि किसने क्या किया और उसमें किस का हाथ है। मैंने कई बार मीडिया के माध्यम
से सरकार को भी सूचित व सावधान किया। मैंने कई बार बताया कि किस घटना के पीछे संघ
का हाथ है। मैंने तो आगाह किया था कि करकरे ने उनसे बात की थी और उन्होंने हिन्दू
संगठनों से अपने जीवन को खतरे के प्रति संकेत दिया था। मैंने सैकुलरीज़म के महानतम्
तीर्थधाम आज़मगढ़ के भी कई बार दर्शन किये और कांग्रेस के लिये मन्नतें मांगी।
मैंने बार-बार कहा कि बाटला हाऊस ऐनकाऊंटर एक ड्रामा था। पर तब सरकार ने मेरी एक न
सुनी। कांग्रेस बुरी तरह हारी। अब पछताने से क्या फायदा जब चिडि़यां चुग गईं खेत।
कहते हैं कि प्यार की उम्र नहीं होती। यह बात मैंने अपने
आप पर सच उतरती देखी है। मेरी धर्मपत्नि स्वर्गवास हो गई। इस उम्र में तो आप को
पता है कि जीवन साथी की बड़ी आवश्यकता होती है। और विधि का विधान देखो कि उधर
मेरी धर्मपत्नि गई और उधर मेरी जि़न्दगी में उसकी जगह भरने के लिये आ गई एक और
सुन्दर और उससे भी कम उम्र की — मेरी बेटियों से कम उम्र की। हम दोनों ने साथ
रहने, साथ जीने-मरने की कसमें भी खाईं। हमारा प्यार इतना सच्चा व पवित्र था कि
हम दोनों ने शादी करने की घोषणा भी कर दी। मेरी तो पत्नि नहीं थी पर उसका तो पति
था। वह मेरे लिये बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने के लिये तैयार हो गई। उसने भी अपने
पति से तलाक लेने के लिये आवेदन कर दिया और अपना निश्चय दोहराया कि तलाक मिलने पर
वह मुझ से तुरन्त शादी रचा लेगी।
मुझे अपने बेटे पर नाज़ है कि उसने भी मेरी भावनाओं और प्यार
के प्रति मेरी निष्ठा का सम्मान किया और कह दिया कि यदि मैं अपने बच्चों को
बनी-बनाई मां का उपहार दे दूं तो वह उसे सहर्ष स्वीकार कर लेंगे।
प्यार का दुश्मन तो सारा ज़माना होता है। उसमें बाधायें
और रोड़ा अटकाने वाले अनेक होते हैं। यही मेरे साथ हुआ। प्यार के आगे तो सारा
ज़माना झुक जाता है। ईश्वर भी नतमस्तक हो जाता है और अन्तत: आशीर्वाद दे देता
है। पर उफ, मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ। सारी दुनिया मेरी बैरी बन बैठी। आखिर मैं ही
हार बैठा और घोषणा करनी पड़ी कि मैंने शादी करने का अपना मन बदल लिया है।
देखो, लोग मुझे अब कायर कहने लगे हैं, उस व्यक्ति को जिसने
इस उम्र में भी प्यार करने की हिम्मत दिखाई, उस व्यक्ति को जिसने प्यार के
इज़हार में कायरता नहीं वीरता दिखाई। मैंने शादी न करने का निर्णय ज़रूर लिया है
पर मैं बेवफा नहीं हूं। मेरा प्यार खत्म नहीं हुआ है। प्यार न खत्म होता है, न
मरता है। कोई बात नहीं यदि हम इस जीवन में एक न हो सके, स्वर्ग में तो अवश्य
इकट्ठे होंगे। वहां तो हमें कोई नहीं रोक सकेगा, ईश्वर भी नहीं। पर धत्त–तेरे की।
वहां भी दूध में मक्खी। मेरी धर्मपत्नि तो आगे ही स्वर्गवासी है। वह तो मुझ से
भी पहले स्वर्ग पहुंच चुकी है। वह तो मुझ पर पहले ही कब्ज़ा कर लेगी। वह तो हमें
वहां भी शादी करने न देगी। पर मैं भी अपने प्यार के लिये हर कुर्बानी देने को
तैयार हूं। मैं धर्मराज के पांव पकड़ लूंगा और तब तक नहीं छोड़ूगा जब तक वह मुझे
और मेरे प्यार को नर्क भेजने का फरमान जारी न कर दें। उसके बाद हम दोनों और हमारा
प्यार मौज-मस्ती में अपना जीवन बितायेंगे।
हमारा प्यार, जि़न्दाबाद।
हमारा प्यार, जि़न्दाबाद।
तभी मुझे एक कड़क सी आबाज़ सुनाई दी: ''सपने में क्या बकते
जा रहे हो\''
मेरी बीवी\ फिर ख्याल आया कि यह तो मेरा भ्रम ही है। मेरी बीवी तो मर चुकी है। तभी फिर आवाज़ आई — ''उठते हो या
मैं पानी गिराऊं उठाने के लिये\''
आंखें मलते हुये मैं बड़बड़ाया — ''पर मैं तो दिग्गी
राजा....''
तभी एक बार फिर कड़क आवाज़ आई — '' सुबह-सुबह किसका नाम
सुना दिया\ आज पता नहीं कैसा दिन गुज़रेगा\ पर यह दिग्गी-दिग्गी क्या बड़बड़ाये जा रहे हो\ पता नहीं क्या-क्या
सपने देखते रहते हो। पर याद रखना, यदि उस कलमुंहे की तरह इस
उम्र में शादी की बात करोगे तो'', उसने झाड़ू लहराते हुये कहा, ''मैं उसकी बीवी की
तरह मरी नहीं हूं, जि़न्दा हूं। इस झाड़ू से पीट-पीट कर घर से बाहर कर दूंगी''।
''मुआफ कर, भाग्यवान्'', मैंने हाथ जोड़ते हुये कहा। ''वह
तो सपने की ग़लती थी''।