अध्यादेश मामला
कुछ नहीं, राहुल ने केवल कांग्रेस की झेंप
मिटाई
--- अम्बा चरण वशिष्ठ
यह मान बैठना तो सरासर भूल होगी कि कांग्रेस राजगद्दी के स्पष्ट उत्तराधिकारी
व पार्टी उपाध्यक्ष श्री राहुल गांधी अखबार नहीं पढ़ते और न ही कोई समाचार चैनल ही
देखते हैं जो उन्हें पता ही न चल पाया कि पिछले मानसून सत्र में मनमोहन सरकार ने
संसद में जनप्रितिनिधि कानून 1951 में एक संशोधन
विधेयक प्रस्तुत किया गया था जिसका मन्तव्य उच्च्तम् न्यायालय के 20
जुलाई के उस आदेश को निरस्त करना था जिसके अनुसार यदि किसी जनप्रतिनिधि को सज़ा हो
जाती है तो उसकी संसद या राज्य विधान सभा की सदस्यता तत्काल रद्द हो जायेगी। फिर
श्री गांधी तो स्वयं लोक सभा के सदस्य भी हैं। इतना ही नहीं। इस बिल व बाद में 24
सितम्बर को मनमोहन मन्त्रिमण्डल द्वारा राष्ट्रपति महोदय की स्वीकृति के लिये भेजने
से पूर्व अध्यादेश के मसौदे का अक्षरश: अनुमोदन कांग्रेस की कोर कमेटी ने भी किया
था जिसकी अध्यक्षता स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने की थी। भाजपा
समेत अनेक विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति महोदय से मिल कर उनसे इस अध्यादेश का
पुरज़ोर विरोध कर अनुरोध किया था कि वह उसे स्वीकृति प्रदान न करें। राष्ट्रपति
महोदय ने भी आंखें मूंद कर अध्यादेश पर हस्ताक्षर न कर कानून विशेषज्ञों से
सलाह-मशविरा करने के बाद 26 सितम्बर को गृह मन्त्री शिन्दे व
कानून मन्त्री सिब्बल को तलब किया। स्पष्ट था कि राष्ट्रपति महोदय को कुछ
शंकायें थीं।
तो फिर 27 तारीख को यकायक श्री राहुल गांधी को कैसे आभास हो गया कि यह अध्यादेश
तो ''बिलकुल बकवास'' व बेहूदा है और उसे फाड़ कर फैंक देना चाहिये?
यह मान लेना भी एक
बड़ी भूल होगी कि श्री राहुल गांधी को संसद में प्रस्तुत बिल और अध्यादेश के
मसौदे को पढ़ने व समझने में इतना लम्बा
समय लग गया।
संयोगवश एक चुटकुला
याद आता है। चार दोस्त बैठे गप्प-शप्प हांक रहे थे। एक ने चुटकुला सुनाया कि सब
हंसते-हंसते लोट-पोट हो गये। पर उनमें से एक था जो बिलकुल संजीदा रहा और उसके चेहरे
पर मुस्कान तक न आई। अगले दिन शाम को जब वह फिर इकट्ठे हुये तो अचानक वह दोस्त
हंसते-हंसते पेट के बल लोटने लगा और बोला, यार कल तूने बड़ा ज़बरदस्त चुटकुला
सुनाया था।
खैर। चुटकुला छोड़ अब अध्यादेश के गम्भीर मुद्दे पर लौटें। समझ नहीं आता
कि 27 सितम्बर को जो सारा ड्रामा हुआ वह कैसे हुआ और किसने रचा? उस दिन प्रैस कल्ब में कांग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता श्री अजय माकन जब
अध्यादेश की तारीफों के पुल बान्धे जा रहे थे तभी यकायक उनकी प्रैस कान्फ्रैंस
में श्री राहुल आ धमके और अपने ''निजि विचार'' से उन्होंने सब को भौंचक्का कर
दिया। फिर क्या था? श्री अजय माकन ने
भी कांग्रेस संस्कृति का एक और चौका देने वाला पहलू उजागर कर दिया। एक सांस में अध्यादेश
की स्तुति करने के बाद दूसरी ही सांस में उन्होंने पैंतरा बदल डाला और श्री
राहुल की हां में हां मिलाते हुये घोषणा कर दी कि श्री राहुल की ''निजि'' राय ही
कांग्रेस की अधिकारिक पार्टी राय है।
एक तबके ने श्री
राहुल की तारीफ करते हुये कहा कि उन्होंने जनता के मध्यम वर्ग की भावनाओं का
प्रतिनिधित्व व आदर किया है। पर यहां भी यही कहना पड़़ेगा कि ''बहुत देर कर दी
सनम आते आते''। राष्ट्रपति महोदय द्वारा मन्त्रियों से अप्रत्याशित व कुछ कड़वे
प्रश्न पूछने के बाद ही श्री राहुल को इस सच्चाई का आभास मिल गया कि राष्ट्रपति
भवन में कांग्रेस सरकार की दाल आसानी से गलने वाली नहीं
है। स्पष्ट है कि सरकार की खीज बचाने के लिये श्री राहुल ने यह सारा ड्रामा रचा।
यह भी पहली बार हुआ कि प्रैस वार्ता तो किसी और की हो और कोई दूसरा बिना पूर्व सूचना
के आ धमके और वह वो कह दे जो पहले वक्ता की बात को ही नकार दे। इस सारे ड्रामें में
जगहंसाई प्रधान मन्त्री की भी हुई और श्रीमती सोनिया गांधी की भी । अन्त
में निष्कर्ष तो यही निकला कि कांग्रेस ने ''चित भी मेरी और पट भी मेरी'' कहावत
को चरितार्थ करने की कोशिश की जिसे अंग्रेज़ी में कहते है Heads you
lose, tails I win.
इस ड्रामें को ''गेम चेंजर'' की संज्ञा देना उचित नहीं होगा क्योंकि जब भी
श्री राहुल ने ऐसा पैंतरा खेला है, मुद्दा कभी सुलझा नहीं, उलझा ही है मामला चाहे
लोकपाल बिल का हो या कोई और।