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Friday, December 18, 2015

नाम में कुच्‍छ नहीं

नाम में कुच्‍छ नहीं

  अम्‍बा चरण वशिष्‍ठ

किसी भवन, किसी सड़क, किसी संस्‍था का नाम किसी राजनेता या अन्‍य के नाम से रखने या न रखने या वर्तमान नाम बदल कर कोई और नाम रख देने का कोई महत्‍व ही नहीं बचा है। आजकल हर नाम को संक्षिप्‍त (abreviate) करने की होड़ लगी रहती है।

अब व्‍यक्ति के नाम की ही बात लीजिये। किसी का नाम बुद्धू राम है। तो वह बिना नाम बदले बी0 आर0 शर्मा बन कर गर्व करने लगता है।

सड़कों का नाम लीजिये। अनेक बड़े शहरों में महात्‍मा गांधी रोड हैं पर सब जगह यह एम0 जी0 रोड बनकर रह गई हैं। दिल्‍ली में एक सड़क का नाम बदल कर अन्तिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर मार्ग कर दिया गया। पर हुआ क्‍या? अब वह बीऐसज़ैड मार्ग बन कर रह गया।

दिल्‍ली का इन्दिरा गांधी इन्‍टरनैशल एयरपोर्ट अब केवल आईजीआईए ही हो गया है। शिमला में मैडिकल कालिज का नाम बदल कर इन्दिरा गांधी मैडिकल कालिज कर उनकी याद को सम्‍मानित किया गया था। पर आज वह आईजीएमसी ही रह गया है। इन्दिरा गांधी नैशनल ओपन यूनिवर्सिटी इगनू बन कर मशहूर हो गई है। कहां हैं इन्दिरा गांधी?

दिल्‍ली की जवाहरलाल नैहरू यूनिवर्सिटी अपने असली नाम से नहीं जेएनयू के नाम से विश्‍वविख्‍यात हो गई है। पंजाब सरकार ने चण्‍डीगढ़ से सटे शहर मोहाली का नाम बदल 'साहिबज़ादा अजीत सिंह नगर' रख दिया कोई 20 साल पहले। पर लोग इस शहर को अभी भी मोहाली के नाम से पहचानते हैं और वैसे भी यह ऐसएऐस नगर ही बन कर रह गया है।

मनरेगा में महात्‍मा गांधी का नाम किस को दिखता है?

तो फिर हमारे नाम रखने या बदलने पर झगड़े का क्‍या तुक रह गया है?                                                                  ***                      


Friday, December 4, 2015

हास्‍य-व्‍यंग — कानों-कान नारदजी के : विफलताओं की बाढ़ में उम्‍मीद के तिनके पर राजपरिवार

हास्‍य-व्‍यंग
कानों-कान नारदजी के
विफलताओं की बाढ़ में उम्‍मीद के तिनके पर राजपरिवार

बेटा:   पिताजी1
पिता:  हां बेटा।
बेटा:   पिताजी, राहुल गांधी किसी राज परिवार से हैं
पिता:  बेटा, वह किसी राज परिवार से नहीं हैं। वह तो एक ऐसे महान् परिवार से हैं जिसने देश की आज़ादी की लड़ाई में बहुत कुर्बानियां दी हैं।
बेटा:   तो क्‍या वह महात्‍मा गांधी के वंशज हैं?
पिता:  नहीं बेटा, वह तो स्‍वर्गीय फिरोज़ गांधी के सुपौत्र हैं।
बेटा:   तो क्‍या फिरोज़ गांधी महात्‍मा गांधी के परिवार से थे?
पिता:  नहीं बेटा, वह तो एक सम्‍भ्रान्‍त पार्सी परिवार से थे।
बेटा:   फिर वह गांधी कैसे हो गये?
पिता:  उनका पारिवारिक कुलनाम (सरनेम) Ghandhy था। जब श्रीमति इन्दिरा ने उनसे शादी
की मनशा बना ली तो बापू बीच में पड़े और पंडित नेहरू को उन्‍होंने मना लिया। साथ ही फिरोज़ जी को अपने कुलनाम के स्‍पैलिंग बदलने को कहा। इस प्रकार वह गांधी
(Gandhi)बन गये।
बेटा:   तो फिर राहुल को युवराज क्‍यों कहते हैं?
पिता: बेटा, राहुल का परिवार देश को आज़ादी मिलने के बाद से बहुत लम्‍बे समय से सरकार व
कांग्रेस संगठन में लगातार सत्‍ता में रहा है। श्रीमति सोनिया गांधी के बाद कांग्रेस भी उन्‍हें ही अपना सर्वेसर्वा बनाने पर तुला है । इस लिये गीडिया ने राहुल को कांग्रेस का युवराज बना दिया है।
बेटा:   पिताजी, पर भारत में तो प्रजातन्‍त्र है, राजशाही नहीं। तो यहां शाही परिवार तन्‍त्र कैसे
      चल सकता है?
पिता: तेरी बात तो ठीक है पर यह अब कांग्रेस पार्टी में एक अटूट परम्‍परा बन चुकी है। इसे अब कोई नहीं तोड़ सकता। कांग्रेसी स्‍वयं भी इस राजवंशी परम्‍परा को चालू रखना चाहते   हैं। यदि इक्‍का-दूक्‍का कोई व्‍यक्ति उसका विरोध करता है तो उसे पार्टी गद्दार करार   देकर राजवंशी प्रथा के आधार पर पार्टी उसे गद्दार मानकर देशा-निकाले की तर्ज़ पर पार्टी-निकाला देती है।

बेटा:   पिताजी, राजवंश में तो उत्‍तराधिकार अनुक्रमण बना होता है जैसे बरतानिया आदि में। पर क्‍या यह कांग्रेस परिवार में भी है?
पिता:  बिलकुल है। जब कभी लोग राहुल के विकल्‍प की बात सोचले हैं तो उनकी नज़र      किसी और पर न पड़ कर केवल उनकी बहन प्रियंका पर ही जाती है।
बेटा:   पर पिताजी, वंशीय परम्‍परा में तो अनुक्रमण में राहुल के बाद नम्‍बर तो उनके बच्‍चों का होना चाहिये।
पिता:  वह इसलिये कि राहुल अभी अविविहित हैं और उनके कोई सन्‍तान नहीं है।
बेटा:   पर पिताजी राहुल शादी क्‍यों नहीं करते?
पिता:  बेटा, यह तो व्‍यक्ति व परिवार का अपना मामला है, इसमें हम क्‍या कह सकते हैं?
बेटा:   फिर भी पिताजी, राहुल देश के नेता हैं, भविष्‍य। उनके हितैषियों को तो अपनों की चिन्‍ता सताती ही रहती ही है। याद है जब मेरी शादी नहीं हो रही थी तो आप कितनी चिन्‍ता करते थे?आपको रात को नीन्‍द नहीं आती थी? मेरी बहनें तो इस मामले में मेरे पीछे ही पड़ी रहती थीं।
पिता:  बेटा, वह बड़े आदमी हैं। अपना मुकाबला उनसे मत कर।
बेटा:   पर पिताजी, सोनियाजी भी तो एक भारतीय मां हैं। उन्‍हें और राहुल की बहन को उनकी शादी की चिन्‍ता क्‍यों नहीं होती?
पिता:  बेटा, सोनियाजी तो एक महान् नारी हैं। उन्‍हें चिन्‍ता केवल राहुल की नहीं, वह तो पूरे देश की चिन्‍ता करती हैं। देश की चिन्‍ता के आगे उनके मन में राहुल की चिन्‍ता नगन्‍य हो जाती है।
बेटा:   पिताजी कुच्‍छ भी हो। सोनियाजी को राहुल की चिन्‍ता करनी चाहिये। प्रियंका उनसे छोटी है। उसकी शादी हुये कई साल हो गये और उसके दो बच्‍चे भी हो चुके हैं। पिताजी, राहुल की उम्र कितनी है?
पिता:  यही कोई 45-46।
बेटा:   पिताजी, आप तो सहज भाव से ऐसे बोल रहे हैं मानों राहुल अभी बच्‍चे हैं और उनकी अभी शादी की उम्र नहीं हुई है।
पिता:  ऐसी बात नहीं, पर जब वह ही चिन्‍ता नहीं करते तो हमें भी अपना मग़ज़ खपाने की क्‍या आवश्‍यकता है?
बेटा:   पिताजी, ऐसा नहीं। जब राहुल और सोनियाजी हमारी और देश की इतनी चिन्‍ता करते हैं तो हमारा भी कर्तव्‍य है कि हम भी उनकी चिन्‍ता करें।
पिता:  तू तो ऐसे बात कर रहा है जैसे कि तू बिचौला बनना चाहता है और तेरी नज़र में उनके योग्‍य कोई लड़की है।
बेटा:   पिताजी, मेरे पास तो उनके लायक लड़की कहां हो सकती है, पर चिन्‍ता मुझे ज़रूर है क्‍योंकि उनकी पार्टी के लोग ही कहते हैं कि वह पार्टी और देश का भविष्‍य हैं। मैं उनके आगे के भविष्‍य की सोच रहा हूं और चिन्‍ता कर रहा हूं।
पिता:  बेटा, काम चिन्‍ता से नहीं बनता, कुछ करने से बनता है।
बेटा:   पिताजी, राहुल बाबा कई बार अचानक गुम हो जाते हैं। किसी को पता नहीं होता कि वह देश में हैं, विदेश में। उनके साथ उनकी माताजी व बहन भी नहीं होते। वह कहां जाते हैं?
पिता:  बेटा, यह हम जैसे आम आदमियों की समझ के बाहर की बाते हैं। हर बड़ा आदमी काम कर कर थक जाता है और उसे एकान्‍त और आराम की आवश्‍यकता होती है। उस फुर्सत के समय ही तो उन्‍हें ठण्‍डे दिमाग से देश के बारे सोचने का समय मिलता हैं। राहुल भी कहीं जाकर सकून पाते होंगे।
बेटा:   पिताजी, कहीं ऐसा तो नहीं कि राहुल प्रधान मन्‍त्री बनने के बाद ही विवाह करना चाहते हों।
पिता:  यह तो मैं नहीं कह सकता पर इतना सच्‍च अवश्‍य है कि अभी चार साल तो उनके प्रधान मन्‍त्री बन पाने की कोई सम्‍भावना नहीं है। ऐसे तो वह बूढ़े हो जायेंगे।
बेटा:   पर यह तो अवश्‍य लगता है कि वह पहले कांग्रेस अध्‍यक्ष बनना चाहते हैं और शादी बाद में करना चाहते हैं।
पिता:  उनके कांग्रेस अध्‍यक्ष बनने की सम्‍भावना के समाचार तो तब से आ रहे हैं जब वह पिछले संसद सत्र के दौरान दो मास केलिये अज्ञातवास पर चले गये थे। तब तो समाचार आ रहे थे कि वह इस बात से नाराज़ हैं कि उन्‍हें अध्‍यक्ष नहीं बनाया जा रहा। फिर मीडिया में तो यह भी अटकलें लगाई जाने लगी थीं कि कांग्रेस अध्‍यक्ष के रूप में उनकी ताजपोशी अप्रैल में हो जायेगी। उसके बाद तो अफवाहें कई प्रकार की छपती रहीं।
बेटा:   पर पिताजी, यह समझ नहीं आता कि उन्‍हें अध्‍यक्ष क्‍यों नहीं बनाया जा रहा है। यह तो घर का ही मामला है। पद और कुर्सी तो घर में ही रहेगी चाहे उस पर मां बैठे या बेटा।
पिता:  यह तो बेटा सोनियाजी ही जानें कि वह क्‍यों राहुल के लिये गद्दी खाली नहीं कर रहीं। उसके पीछे भी कोई कारण होगा, कोई राज़ होगा, उनकी कोई सोच होगी। इसके विपरीत तत्‍कालीन प्रधान मन्‍त्री डा0 मनमोहन सिंह तो राहुल में एक अच्‍छा व सफल प्रधान मन्‍त्री होने के सभी गुण व लक्षण देखते थे और कहते थे कि पार्टी जब भी कहे मैं उनके लिये कुर्सी खाली करने के लिये तैय्यार हूं। इस ताजपोशी में तों मुझे ब्रिटेन की महारानी और यहां भारत में सोनिया जी में एक समानता दीखती है। ब्रिटेन की महारानी की आयु अब 90 वर्ष के लगभग हो चुकी है। गद्दी के प्रथम हकदार युवराज चार्ल्‍स स्‍वयं बूढ़े हो गये हैं पर उन्‍हें गद्दी तो तभी मिलेगी जब महारानी स्‍वयं ही राजपाट छोड़ दें। पर वह ऐसा नहीं कर रहीं। उसके पीछे भी कोई कारण होगा, कोई सोच होगी। वह सब कुछ अपने राष्‍ट्र के हित में ही कर रही हैं। यही समानता मुझे यहां भारत में कांग्रेस पार्टी में दिख रही है। ब्रिटेन में राजकुमार चार्ल्‍स बड़े धैर्य से प्रतीक्षा का रहे हैं। उन के चेहरे पर इस बात पर कोई रोष या चिन्‍ता नज़र नहीं आती। न ही वह किसी प्रकार का कोई ऐसा आभास देते हैं जैसा राहुल कर रहे हैं।
बेटा:   पर पिताजी, कौन माता-पिता अपनी आंखों के सामने ही अपने बेटे की ताजपोशी नहीं देखना चाहते?
पिता:  बेटा, बहुत ही कम राज परिवार ऐसे हुये हैं जिन्‍होंने अपने जीवनकाल में ही अपने युवराज की स्‍वयं ताजपोशी कर दी हो। पर कांग्रेस में शायद यह भी हो जाये।
बेटा:   पर पिताजी, कांग्रेस संगठन को सत्‍ता-परिवर्तन की आवश्‍यकता क्‍या है?
पिता:  यह तो हमारे कांग्रेसी भाई ही जाने पर इतना अवश्‍य माना जाता है कि बदलाव सदा स्‍वागत योग्‍य होता है।
बेटा:   पिताजी, अज्ञातवास के बाद तो अब राहुल गांधी बहुत ही आक्रमणकारी हो गये हैं। वह तो रोज़ प्रधान मन्‍त्री नरेन्‍द्र मोदी पर ताबड़तोड़ हमने बोलते जा रहे हैं।
पिता:  इसका बेटा कांगेस को कोई फायदा तो अभी तक हुआ नज़र नहीं आता। बिहार के विधान परिषद व मघ्‍य प्रदेश व राजस्‍थान के नगर निकाय चुनाव में तो कांगेस को इन आक्रमणों से हार का मुंह ही देचाना पड़ा।
बेटा:   अब तो सोनियाजी के भी तेवर सख्‍त हो गये हैं। उन्‍होंने भी कमान सीधे अपने हाथ में ले जी है। वह भी अब अपनी बात दूसरों से न बुलवाकर वाणी के तीर स्‍वयं साध रही हैं। अब तो ऐसा लग रहा है कि उनकी बढ़ती उम्र उनकी राजनीति को कमज़ार नहीं कर रही है।
पिता:  यह तो है।
बेटा:   आखिर पिताजी, राहुल के पास युवा का उबलता हुआ खून है। कुच्‍छ कर बैठने का जनून है।
पिता:  और सोनियाजी के पास तो इतना लम्‍बा अनुभव है। 125 वर्ष से अधिक कांग्रेस के इतने लम्‍बे इतिहास में इतने लम्‍बे समय तक लगातार कोई एक व्‍यक्ति, विशेषकर कोई महिला कांग्रेस अध्‍यक्ष नहीं रहीं। यह सौभाग्‍य व गौरव तो न पंडित नेहरू, न उनकी सास इन्दिराजी और न उनके पति राजीव प्राप्‍त कर सके।
बेटा:   साथ ही यह भी ठीक है  कि अब तक के चुनावों में कांग्रेस की इतनी बड़ी हार भी कभी नहीं हुई जितनी कि राहुल के युवा व सोनियाजी के इतने लम्‍बे अनुभव के अन्‍तर्गत हुई।  
पिता:  मुझे तो लगता है कि कांग्रेस की यह बुरी हार इस दोहरे नेतृत्‍व के कारण हुई। चुनाव तो एक संग्राम होता है जब इसकी बागडोर एक हाथ में होनी चाहिये।
बेटा:   मुझे तो लगता है कि सोनियाजी भी सचिन की तरह राजनीति में इतनी लम्‍बी पारी खेलना चाहती हैं कि लिट्टल मास्‍टर की तरह उनके रिकार्ड भी कोई तोड़ न सके।
पिता:  तेरी इस बात में दम लगता है। वह प्रधान मन्‍त्री न बन पाईं तो इतिहास में यही मील पत्‍थर ही सही।
बेटा:   फिर यह भी तो एक मील पत्‍थर ही है कि नेहरू-गांधी परिवार ने इतना लम्‍बे समय आज़ादी की लड़ाई नहीं लड़ी जितना लम्‍बा समय वह प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष रूप में सत्‍ता का सुख प्राप्‍त कर सके हैं।
पिता:  जो भी हो बेटा, सोनियाजी राहुल को प्रधान मन्‍त्री अवश्‍य देखना चाहती हैं।
पिता:  उम्‍मीद पर ही तो दुनिया खड़ी है। एक यह उम्‍मीद भी सही। विफलताओं की बाढ़ में उम्‍मीद के तिनके के सहारे परिवार।                                       ***  
Courtesy: UdayIndia (Hindi)

Wednesday, September 25, 2013

Gandhi of Jana Sangh and BJP

His 98th birth anniversary falls on September 
Gandhi of Jana Sangh and BJP
By Amba Charan Vashishth

For Bharatiya Jana Sangh (BJS) – and its later avatar Bharatiya Janata Party  (BJP) – Pandit Deendayal Upadhyay holds the same position of love and reverence as does Mahatma Gandhi for the Congress. While the name, fame and electoral utility of Gandhiji for Congress seems to be waning and his portraits adorn only on ceremonial occasions, no BJP function is today complete without Upadhyay’s pictures overseeing every party programme and function.
Gandhiji came off a well-off family, Upadhyayji was born in an ordinary one. The latter lost his parents too early and was brought up by his maternal uncle. Simplicity in life dawned to Gandhi after he jumped into India’s freedom movement; it was very much in Upadhyayji’s bringing up and genes.
Gandhiji always loved to travel in a third class railway compartment; so did Deendayalji. In train he would utilize his time reply to karyakartas's letters in his own hand. Once when RSS sarsanghchalak Golwalkar,  popularly known as Guruji, made him to sit in a first class compartment to discuss something, the first thing he did on alighting  was to contact the Station Master (SM) to pay the difference in fare between third and first class ticket. The SM told him, “Panditji, you’re the first person to be so honest to volunteer to make such a request in my long career”.
Simple living, high thinking
Gandhiji adopted a life of simplicity by choice; Deendayalji inherited simplicity and maintained it till the last. He always wore a dhoti-kurta. Even when he became the national general secretary and, later, national president of BJS it brought in no change in his demeanour. He would carry an ordinary cloth bag with a few holes in it. When a follower offered to bring a new one, he remarked, "The holes in this bag are too small to let my clothes trickle out".
From his simple looks and habits it was difficult to fathom that the bespectacled ordinary looking person was that great an intellectual. He impressed everyone who came in contact with him for his qualities of head and heart.
Any means of conveyance – a tonga, a cycle rickshaw – was convenient and comfortable for him. He was happy even as a pillion rider on a motorcycle.
He would not mind helping spread durries and dust the floor at the function venue even when he was a national general secretary.
Deendayalji was never after office or election. Office was always thrust on him by the love of the party leaders and karyakartas. The party rank and file wanted that Deendayalji contest the by-election for the Jaunpur Lok Sabha seat in Uttar Pradesh in 1963. Though reluctant yet he ultimately bowed to the collective wish of the party and contested. The Congress candidate against him was a Rajput who made appeal for votes on caste lines. BJS karyakartas suggested to Deendayalji that like Congress candidate, he too should retaliate by making a similar appeal to his own community of Brahmins. He got furious. He said he would prefer to lose the election rather than making a casteist appeal. He also threatened his supporters that if they indulged in that, he would retire from the election.
As a saintly man like Gandhiji, he took the ups and downs in his life in a stride. He was never unusually happy or sad at anything. He attended the next morning's RSS shakha after losing the Jaunpur election as if nothing had happened. He said, "My opponent proved more successful in conveying his message to the people than me".
In another election when a BJS candidate got defeated, he remarked, "Our man has been defeated but the party has moved forward. It has spread its message to more and more people".
Simple like a child
A karyakarta Kailash Sarang sent invitations to many leaders, including Deendayalji, for his younger brother's marriage. He was surprised when Deendayalji rang up from railway station to tell that he had come for the baaraat. He got his hair cut and his clothes ironed. "When I have come to join a baaraat", he told smilingly, "I should look like a baaraati". Knowing that Deendayalji had come to Bhopal, senior BJS leader Kushabhau Thakre wanted to avail himself of his presence and convened a meeting of MP MLAs in the evening. When Thakreji told him, he jocularly said, "Thakreji, neither did you went in for a marriage nor did I.  So we can't appreciate the importance of the occasion. You fix the meeting tomorrow.  I cannot miss joining the baaraat. "
Kind hearted
Once Deendayalji was travelling in a railway compartment. A poor boy asked an officer sitting nearby whether he could polish his shoes. The officer asked whether he had a cloth to clean his shoes. On his saying "no", the officer refused. While reading a newspaper Deendayalji kept his ears open to the talk. As the boy was going out, Deendayalji asked him to stop. He pulled out a towel from his bag, tore it and gave one piece to the boy saying, "Polish the sahib's shoes". After polishing when the boy came to return the cloth, he asked him to keep it so that he doesn't lose work next time.
Once he got his hair-cut from a roadside barber. He told a curious karyakarta smilingly, "The barber had no customer and I had no time."
Strict disciplinarian, yet human
Deendayalji was a hard task master and a strict disciplinarian.  Once in 1959-60 it was decided to nominate members of the Standing Committee for Delhi Municipal Corporation. A senior BJS leader Lala Harichand was adamant that he should be nominated. In the alternative he threatened that he would defy the party by contesting the election. When Deendayalji came to know of it he wrote to Vijay Kumar Malhotra, "How long we would be able to keep people into our fold by paying such a price?". When Malhotra conveyed this feeling of Deendayalji, he immediately regretted his stand and decided to go by the party's decision.
Ugly scenes in Parliament and State assemblies are the order of the day today but were rare those days. In March 1966 tempers in the Madhya Pradesh assembly ran so high that a provoked Pandharirao Kridutt MLA threw a chappal in the house. This condemnable incident put BJS in the dock. The matter was reported to the central party. Deendayalji, then general secretary, took a very serious note of it and said it should never be repeated. At the same time there was need to avoid a sense of guilt. He said Kridutt was a very sensible man and it was equally necessary to go into the circumstances which provoked him to resort to this extreme step. This changed the mood of dismay in the party.
Pioneer of coalition governments
Deendayalji was the pioneer of the concept of coalition governments in the country. When in the 1967 general elections to State assemblies, Congress lost majority in a number of States, after an open-minded discussion with leaders and karyakartas he gave a go-ahead to BJS to join the Samyukta Vidhayak Dal governments. He said in this way his party would get an experience in running governments.
Defined corruption
Deendayalji defined corruption as "equal to shortage of commodity multiplied by government regulation".
Friend with Lohia
Even though Dr. Ram Manohar Lohia and Deendayalji subscribed to different political ideologies, yet a great sense of bonhomie prevailed in their relations. It was Dr. Lohia and Deendayalji who jointly demanded that India and Pakistan should form a confederation to end the persistent hostility between the two countries.
Integral humanism
He felt that neither communism nor capitalism could be the panacea for the Indian society's ills. suited the Indian conditions of life nor could they solve India's problems. He therefore enunciated his own theory of Integral Humanism in which the central figure of the country's development plans was the human being.  He gave an impetus to the Antodya concept of development without distinction of caste, creed and sex. When BJS leaders Bhairon Singh Shekhawat in Rajasthan and Shanta Kumar in HP headed the Janta Party governments in 1977, they gave this concept a practical shape with excellent results.
 Foreign tour
During his visit to USA, he impressed one and all, left an indelible impact.  He addressed students of Negro College at Austin University in Texas.  He also addressed India-US friendship Society for one hour and for one hour he participated in a question-answer session. The Texas city council granted him an honorary citizenship of the city.
An American lady enquired of Deendayalji's host: “Who are the persons in Upadhyayaji’s family?  He told her that Upadhyayaji is not married and has no family. At this Deendayalji smilingly intervened, “No , no. It’s not like that. I too have a family and that is very large”.
When the lady came to bid farewell to Deendayalji she told him, “From now onwards I am also a member of your large family”.     
Couldn't speak about himself
Mr. L. K. Advani once narrated that when working for the weekly Organiser  he requested Deendayalji to write a weekly column 'Political Diary' narrating his experiences of his tours all over the country. For some time he did but then all of a sudden he stopped expressing his inability to do so. Mr. Advani explained that the obvious reason was that while writing this piece he had to use the word "I" numerous times and it was this what he detested.
Vocracious reader
Deendayalji was a voracious reader. At a time he kept two-three books open for reading. When he got tired of one, he would shift to the other.
He was also a good writer, equally at east with Hindi and English.  He wrote two books – “Samrat Chandragupta” and “Jagat Guru Shankaracharya” which not only have commitment to the goal but also a vision and philosophy of life. This has been explained very beautifully in these two books.
Same end
Both Gandhiji and Deendayalji met the same kind of death, almost – crucified  for their convictions for the sake of the nation: Gandhiji fell to the bullets of a self-righteous individual who did not see eye to eye with Gandhiji's thought and action. Deendayalji met a brutal death at the hands of a desperado whose motive, political or criminal, could not be ascertained even 36 years after his death.
Deendayalji had never been an MP or MLA. Nor did he ever hold any public office. Yet, like an ajaatshatru who had no enemy, he enjoyed so much love, affection and respect in the heart of everyone that Parliament made an exception to pay him a homage, unanimously.
Guruji paid a very impassioned tribute, "Deendayal chala gaya, sab kuchh chala gaya"(I have lost Deendayal, I have lost everything).                      ***



Wednesday, August 8, 2012

After 65 years a re-visit to Nehru’s Tryst with Destiny



After 65 years a re-visit to
Nehru’s Tryst with Destiny

By Amba Charan Vashishth
                                        
 As zero hour struck at midnight on August 15, 1947 India’s first Prime Minister Pandit Jawaharlal Nehru in that hour of pride and pleasure made a memorable and momentous speech “Tryst with Destiny” in the Constituent Assembly. His address made history. It was a great speech, a great prose and an example of excellent oratory.

Reading it once again after a lapse of 65 years is both exhilarating and exciting. In the present perspective, many interpretations and omissions strike the mind.

The first to surface remains Pandit Nehru's failure to mention, even obliquely and indirectly, the partition of the country and the birth of Pakistan that had become an actuality twenty-four hours before. A holocaust in different parts of the country and in areas which had become Pakistan that day had already set in. It will be too much to say that the feelings of joy over hard won freedom overwhelmed the pain and misery of the crores of his countrymen. It could only be otherwise. Our joy of having won freedom had actually been pierced with the pain of holocaust, murder and transfer of population – people marching towards unknown destinations, penniless and robbed of their belongings and brethren. He seemed, deliberately of course, trying to overlook a harsh reality and to suppress his own emotions of pain from brewing to the brim -- the feelings that must have inundated his heart then. One of the reasons for omission could have been his sense of remorse for having failed to prevent the balkanisation of India and, in particular, to honour Mahatma Gandhi's solemn pledge: "I won’t allow the partition of the country. The country would be partitioned only over my dead body."

Nehru’s agony did find expression when he said: “Before the birth of freedom we have endured all the pains of labour and our hearts are heavy with the memory of this sorrow. Some of those pains continue even now.”  He seemed never to live in the reality of the present; he was extravagantly optimistic about his dreams for the future   “Nevertheless”, he adds, “the past is over and it is the future that beckons to us now”. The later events brought out the fact that he always looked up to future overlooking the truth of the present. He appeared never to have done his homework to anticipate and predict the future; he just dreamed of it.  He ignored the present of stark reality whether it was the invasion by Pakistan in Kashmir or the threat from China. He never made the present strong enough to secure the future with own strength and confidence.  Kashmir problem continues to haunt and torment us even today. India has lost more innocent men, women, children and security forces to the dragon of terrorism in Kashmir and elsewhere than she did during the three wars with Pakistan and one with China.
 
He was speaking as a great visionary, but his apparition went awry. He failed to anticipate the tragedy that lay ahead for crores of his countrymen – crores who lost their life and crores who had to leave their homes and hearths for an uncertain future in the aftermath of freedom and partition of the country they loved. The then lakhpatis stood reduced to penury, some even having been forced to beg.

His speech was surely a good prose, articulately drafted and crafted; yet it was not a fact that “At the stroke of midnight hour, when the world sleeps, India will awake to life and freedom”.  In fact, in many parts of the world at that moment, it was day light and not the dark of night “when the world sleeps”.

India was slave, never dead

India may have been slave and helpless for centuries, but she never was dead or in slumber to "awake to life".  While India did wake up to freedom at that moment, she certainly did not “awake to life” because India was never dead or extinct even under foreign domination. Nations can be enslaven even for long, for centuries but they never die

The most striking at that hour of great triumph and victory was the omission by Pandit Nehru to mention the name of the Father of the Nation, Mahatma Gandhi whom he and we credit with having won us freedom through non-violent means without a drop of blood being shed. The omission certainly looked a deliberate act. Was it an apprehension in his heart that taking his name may hurt the sentiments of a section of the people inflicted with the wounds of partition? With this conscious or unconscious act of not mentioning his name, he deprived the messiah of freedom and non-violence the credit which rightly belonged to him and him alone and to no one else in this hour of achievement and glory to the nation.

Why Mahatma omitted?

He was certainly referring to Mahatma Gandhi without mentioning him by name, when he referred to the “ambition of the greatest man of our generation …. to wipe every tear from every eye”. But why did he refrain from mentioning him by name, particularly when it was the right moment to do so? Strange, we regard him as the Father of the Nation, but feel shy of taking his name when the nation is unchained out of the bonds of slavery because of his leadership and guidance.

Guilty conscious?

Pandit Nehru seemed to be alive to the fact that people will blame him for the partition.  And that is, perhaps, why he says that this is “no time for petty and destructive criticism, no time for ill-will or blaming others”.

He seems incoherent when he turns philosophical and says: “Peace has been said to be indivisible, so is freedom, so is prosperity now, and so also is disaster in this One World that can no longer be split into isolated fragments”. It was freedom that divided an undivided India into present India and Pakistan. Peace and freedom, even during his era, remained divisible. "Prosperity" and "disaster" during his time and even now, continue to remain not "indivisible". If he was speaking of the whole world as “One World” even that “One World” was “split into isolated fragments” during his own time.                                                                              ***
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