Sunday, December 28, 2014

व्‍यंग-विनोद आह-हा। मज़ा ही आ गया ''किस्‍स ऑफ लव'' का

व्‍यंग-विनोद
आह-हा। मज़ा ही आ गया ''किस्‍स ऑफ लव'' का

यह व्यंग तब लिखा गया था जब बजरंग दल आदि के कुछ लोगों ने कुछ  स्थानों पर खुले तौर पर प्यार जताने की हरकत का विरोध किया था. कुछ उदारवादी सेकुलर बंधुओं व संस्थाओं ने इसे मोरल पुलिसिंग की संज्ञा देकर इसकी भर्त्सना की थी. उन्होने इस के विरोध में प्रदर्शन निकले और संघ के कार्यालय के बाहर प्रदर्शन किया जिसमें खुले तौर पर चूमा-चूमी की गयी. संयोग से जिस महानुभाव ने केरल में ऐसे प्रदर्शनों का बीड़ा उठाया था बाद में वही पति-पत्नी वैश्यबाज़ी के धंदे में संलिप्त पाए गए और पुलिस ने उनपर मुकद्दमा चला दिया.




   अम्‍बा चरण वशिष्‍ठ

आज तो बस मज़ा ही आ गया। जीवन में ऐसा सुनैहरी मौका मिला जो बिरले भाग्‍यवानों को ही मिल पाता है। उनमें आज मैं और मेरा एक दोस्‍त भी शामिल हो गये। मैं आज अपने एक दोस्त को उसके घर मिलने गया। उसने कहा — चल, कहीं बाहर चाय पीते हैं। ज्‍यों ही हम बाहर निकले तो कुछ लड़के—लड़कियां, पुरूष—महिलायें ''किस्‍स ऑफ लव' जि़न्‍दाबाद'' और ''मौरल पुलिसिंग मुर्दाबाद'' के नारे लगाते आगे बढ़ रहे थे। जब मैंने उनसे पूछा तो उन्‍होंने बताया कि कुछ गुंडा तत्‍वों द्वारा ''मौरल पुलिसिंग'' किये जाने के विरोध में वह एक संस्‍था के सामने एक-दूसरे को चूम कर विरोध प्रदर्शन करने जा रहे हैं। मैंने पूछा कि क्‍या हम दोनों भी इस में शामिल हो सकता हूं\ उसने बड़े प्‍यार से कहा — क्‍यों नहीं\ आपका हार्दिक स्‍वागत है। फिर मैंने उसे बताया कि हमारे साथ तो कोई लड़की या महिला है नहीं। उसने हमारी समस्‍या दूर कर दी। कहा — कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारे साथ जो हैं।
मैंने उस समूह में कुछ लड़कियों व महिलाओं पर नज़र दौड़ाई जो बड़े ज़ोर-ज़ोर से नारे लगा रही थी़। उन्‍हें देख कर तो हमारे मुंह में भी पानी आ गया। हमने एक दूसरें को कहा — बेटा, ऐसा सुनैहरी मौका पता नहीं तुम्‍हारे जीवन में फिर कभी हाथ आयेगा भी या नहीं। बस फिर क्‍या था, हम भी ज़ोर-ज़ोर से नारे लगाने लगे। जब गन्‍तव्‍य स्‍थान पर पहुंचे और हमें विरोध प्रदर्शन का आदेश मिला, तो हमने भी अपनी मर्जी़ की युवतियों को गले लगाया और चूमना शुरू कर दिया। एक को छोड़ा तो दूसरी को दबोच लिया। कुछ साथी साथ-साथ नारे भी लगाये जा रहे थे। उनके नारों ने हमें एक-दूसरे को चूमने के लिये और भी उत्‍साहित कर दिया। हमने जी भर कर चूमा-चुमाई की। सब आनंदित थे।
नैतिकता की जिस ठेकेदार संस्‍था के समक्ष हम प्रदर्शन कर रहे थे वह तो इतनी भीरू निकली कि उसने अपने किवाड़ ही बन्‍द कर लिये। पुलिस को अपनी ढाल बना लिया। हमें तो देख पाने की वह हिम्‍मत भी न जुटा पाये, हमारा सामना करना तो दूर। कुछ तो अपने कमरों में छिप गये जैसे कि उन्‍होंने अपनी हार मान ली है। इस दृष्‍य से तो हमें ऐसा लगा जैसे कि उन्‍हें अपने कर्मों पर शर्म आ रही हो। अपने उद्देश्‍य की प्राप्ति के लिये हम और भी प्रेरित हुये। हम और भी तत्‍परता व तनमयता से एक दूसरे को चूमते रहे।
पुलिस भी मज़ा लेती रही। वह हंसते रहे, मुस्‍कराते रहे। ऐसा लगता था कि वह अपनी किस्‍मत को कोस रहे थे — काश, हमने भी वर्दी न पहन रखी होती तो हम भी इस प्रदर्शन में अपना पूरा सहयोग व योगदान देते।
अन्‍तत: एक पुलिस अफसर आ धमका मनहूस। वह हमारे सौभाग्‍य पर जल रहा लगता था। उसने अपने पुलिस कर्मियों को कहा कि तुम क्‍यों तमाशा देख रहे हो। इन लोगों को भगाओ। उधर हम भी तो थक चुके थे। इस प्रदर्शन को आगे बढ़ाना भी मुश्किल लग रहा था। हमने अपने आप ही अपने जोड़ों को छोड़ दिया और ऐसी ही विरोध प्रदर्शन में और भी ज़ोर-शोर से शामिल होने के वादा देकर विदा हुये।
पर मेरा दोस्‍त भी कम डरपोक न निकला। बोला — बेटा, मज़ा तो लूट लिया, अब जूतों के लिये तैयार हो जा। इन नासपिटे फोटोग्राफरों और चैन्‍नल वालों ने सब के फोटो खेंच लिये हैं। जब इन महिलाओं-लड़कियों के पति-पिता और भाई देखेंगे तो हमें जूते मार-मार कर गंजा कर देंगे।
मुझे उसकी नासमझी पर हंसी आ गई। मैंने कहा — मूर्ख, तुझे पता नहीं कि वह सब सभ्रान्‍त व सुशिक्षित परिवारों से हैं जो हमारी तरह तंग-दिल व दकियानूस नहीं हैं। वह उदार व प्रगतिशील हैं। फिर, तुझ मूर्ख को तो यह भी पता नहीं कि हमारे कानून के अनुसार कोई भी व्‍यस्‍क पुरूष व महिला अपनी मर्जी़ से ऐसा करने के लिये स्‍वतन्‍त्र है और तब कोई अपराध नहीं बनता।
मेरे दोस्‍त ने ज़ोर से अपना माथा पीटा और कहा — यार तू तो बड़ा समझदार हो गया लगता है।
मैंने भी इतराते हुये कहा — बेटा, हमारे साथ रहोगे तो ऐसे ही मुफत में स्‍वर्ग के मज़े इसी जन्‍म में लूटोगे।
मैंने तो एक चीज़ और नोट की। यह विरोध प्रदर्शन पूरी तरह सकारात्‍मक, शान्तिपूर्ण, सभ्‍य व शालीन था। न कोई गाली-गलोच हुआ, न अंडे-टमाटर व पत्‍थर फैंके गये और हुड़दम ही मचा। न लाठी चली, न गोली ही। मैं तो समझता हूं कि यह एक अच्‍छी पहल है। हम नौजवानों ने देश को एक नया रास्‍ता दिखाया है, एक नया सन्‍देश दिया है कि कैसे एक सच्‍चा-सुच्‍चा विरोध प्रदर्शन आयोजित किया जा सकता है और अपनी मांगे भी मनवाई जा सकती हैं।
मैं तो समझता हूं कि अब हमारे राजनीतिक दलों को भी इस उत्‍कृष्‍ठ उदाहरण से सीख लेनी चाहिये। उन्‍हें भी इसी ठीक रास्‍ते पर चलना चाहिये और अपनी मांगों को पूरा करवाने के लिये बंध, धरने व अन्‍य हिंसक प्रदर्शन का रास्‍ता छोड़ जनतन्‍त्र में ''किस्‍स फॉर लव'' विरोध प्रदर्शनों को अपना हथियार बनाना चाहिये। इससे हमारी संस्‍कृति को भी बल मिलेगा। जनता में भाईचारे व प्रेमभाव का संचार होगा। सरकार को भी चाहिये कि वह ''किस्‍स फॉर लव'' विरोध प्रदर्शनों को छोड़ सभी प्रकार के अन्‍य विरोध प्रदर्शनों पर प्रतिबन्‍ध लगा दे। इसी में देश, शासन व जनता का भला है।      ***

हास्‍य-व्‍यंग किस्‍से मर्दों के

हास्‍य-व्‍यंग         किस्‍से मर्दों के


मुसीबत छोटी ही अच्‍छी

एक ने देखा कि उसका एक दोस्‍त अपनी नई नवेली पत्नि के साथ जा रहा है। वह हैरान हो गया कि उसका दोस्‍त तो एक लम्‍बा-चौड़ा जवान है पर उसकी बीवी एक दुबली-पतली छोटी सी गुडि़या। दोस्‍त ने पूछा, ''तुमने यह क्‍या किया\''
दोस्‍त बोला, ''यह मैंने सोच समझ कर ही किया है।''
उसने पूछा, ''क्‍या मतलब\''
दोस्‍त ने समझाया, ''मेरे दोस्‍त, मुसीबत जितनी छोटी हो उतनी ही अच्‍छी होती है।''

मेरे दोस्‍त को बचा लो, जज सॉब

एक व्‍यक्ति जज के पास दौड़ा-दौड़ा पहुंचा। हाथ जोड़ कर वह बार-बार यही बोले जा रहा था, ''मेरे दोस्‍त को बचा लो, जज सॉब। वह बर्बाद हो जोयेगा। उसकी जि़न्‍दगी खराब हो जायेगी।'' वह बस चिल्‍लाये जा रहा था।
''बता तो सही हुआ क्‍या\'' जज ने कहा।
''सॉब'', वह रोता ही जा रहा था। ''वह मेरी बीवी से शादी करने जा रहा है।''

पत्निब्रता पति

एक व्‍यक्ति अपने घर के बाहर सर्दी में सिकुड़ रहा था। ऊपर से उसके सिर, बाज़ू, टांग पर पट्टियां बंधी थी। चेहरा सूजा हुआ था और उसपर भी कई स्‍थानों पर रूई के साथ दवाई चिपकी हुई थी। उधर से उसका एक दोस्‍त गुज़रा। उसकी यह हालत देख कर वह आग-बबूला हो गया। उसने कहा, 'जिसने तुम्‍हारा यह हाल किया है उसका बड़ा ग़र्क हो जाये। उसका कुछ न बचे।''
वह व्‍यक्ति इतना सुन न सका। उसको भी ग़ुस्‍सा आ गया। उसने अपना हाथ उठाकर उसे रोकना चाहा पर दर्द से उससे चीख निकल उठी। फिर भी उसे चेतावनी देते हुये बोला, ''देख, चुप हो जा। मैं अपनी पत्नि के विरूद्ध एक भी शब्‍द नहीं सुन सकता।''


मेरी बीवी बहुत अच्‍छी है

एक व्‍यक्ति अपनी बीवी की तारीफों  के पुल बांधे जा रहा था। उसने कहा कि वह इतनी अच्‍छी है कि मैं रात को चाहे जितना मर्जी़ देर से आऊं – रात को ग्‍यारह बजे, बारह बजे या उससे भी देरी से, वह मुझे पानी गर्म कर के देती है।''
दोस्‍त ने कहा, ''बहुत खूब। क्‍या वह तुम्‍हारे पांव धोती है गर्म पानी से\''
''नहीं'', उस व्‍यक्ति ने स्‍पष्‍ट किया। ''मैं ठण्‍डे पानी से बर्तन साफ नहीं कर सकता।''


मैं भी तो उसका इकलौता पति हूं

एक कवि ने अपने एक कवि मित्र से अपना दुखड़ा रोया। बोले, ''मैं अपनी पत्नि से बहुत परेशान हूं।''
मित्र ने पूछा, ''क्‍या हुआ\''
''मैं जब भी अपने बेटे को डांटता हूं तो वह सदा उसका पक्ष लेती है।''
''तुम भी तो उसे ऐसे ही डांटते रहते होगे'', मित्र ने समझाया।
''नहीं''। कवि ने कहा, ''वह तब भी उसका ही साथ देती है जब उसने कोई ग़लती भी की हो''।
मित्र ने उसे समझाया। ''देखो, मां का लाड-प्‍यार है। आखिर वह उसका इकलौता बेटा है न''।
कवि खीझ उठा। बोला, ''मैं भी तो उसका इकलौता ही पति हूं न''।

तब तो एक नोट और दीजिये

एक पति ने अपने नौकर को पांच सौ का नोट थमाया और कहा, ''बीबीजी को मत बताना कि पीछे से कोई महिला आर्इ थी''।
''तब तो पांच सौ का एक नोट और दीजिये, मालिक'', नौकर ने सहज भाव से कहा।
''क्‍यों\'' मालिक ने कड़क होकर पूछा।
''मालिक, मालकिन तो ऐसे मौके पर एक हज़ार देती हैं''।

इसे कोई भी ले जाये

एक व्‍यक्ति की बीवी किसी के साथ भाग गई। उसने उस पर मुकद्दमा कर दिया। सुनावाई के दौरान दु:खी पति ने अदालत में कहा, ''जज सॉब, मेरी बीवी को आरोपी के वकील सॉब ले जायें, मेरे वकील सॉब ले जायें, आप ले जायें पर मैं उसके साथ नहीं जाने दूंगा''।
जज ने डांटते हुये कहा, ''क्‍या बक रहे हो। चुप रहो''।
व्‍यक्ति ने हाथ जोड़ते हुये कहा, ''सॉब, मैं अपने मन की बात कर रहा हूं''।


नज़रिया बदल लिया है मैंने

एक व्‍यक्ति बड़ा दु:खी रहता था। उसकी पत्नि के उसके बॉस से अवैध सम्‍बंध हो गये थे। पर एक दिन जब वह आफिस आया तो बड़ा तरोताज़ा, खुश। उसके सहयोगियों को हैरानी हुई। उन्‍होंने पूछा कि क्‍या सारा मामला सुलझ गया है\
''नहीं'', उसने हंसते हुये बताया। ''मैंने अपना नज़रिया बदल लिया है। अब मैं समझता हूं कि वह मेरे बॉस की पत्नि है जो मेरे पास कभी-कभी आ जाती है''।

(कुच्‍छ सुने-सुनाये व पढ़े)

Wednesday, December 3, 2014

Not 'Hramzade', it's 'Ramzade' that pinches 'secularists'

Not 'Hramzade', it's 'Ramzade' that pinches 'secularists'

By Amba Charan Vashishth

One should be discreet in the use of one's words. Think before you speak, is another good sermon. This is more apt for persons in politics. One's opponents are always prying for the slip of tongue to put one on the mat. They wish to milch the opponent's cow hard enough to squeeze out the blood of political mileage.

This is more true in the recent controversy that has erupted because of the utterings of Union Minister Sadhvi Niranjan Jyoti who while addressing a public meeting in Delhi is reported to have said that the Delhi voter has to make a choice between Ramzadon and Hramzadon. Later, clarifying on her remarks she is reported to have said that in India everyone is the child of Lord Ram and all others are those who changed their mode of worship. This created a great furore and functioning in both houses of Parliament was disrupted by the opposition. For obvious political reasons, her detractors remained unsatisfied even when the Sadhvi clarified in Parliament: "My intention was not to hurt anyone. If my speech outside the House has hurt anyone, I express my deep regrets".

But this didn't close the matter. The Opposition wants the head of the minister; she should resign or be dismissed. They — and the media — have gone to the extent of dubbing it as "hate speech" and against the Constitution of which she had taken oath. They further demanded that a criminal case be registered against her.

The hypocrisy of the opposition is not new. When Congress President Mrs. Sonia Gandhi in an election meeting in 2007 had described the then Gjujarat chief Minister Narendra Modi as maut ka saudagar, for our 'secularists' and 'liberal' media it did not amount to "hate speech" nor did it hurt the 'secular' psyche.
The opposition and the media stand on the same pedestal on the issue. The former wishes to fish political capital in the trouble waters and the latter, to thrive in grabbing a higher TRP by whipping up flames of controversy. In their heart they know they are only flagging a dead horse.

Zade is an Urdu word which has come to be used in Hindi too when one speaks of Shahzade (prince), Sahibzade (offsprings of a great ancestry), and conjoined with other words to give a particularly special meaning, like hramzade and the like. Ramzade means the off-springs of Lord Ram. He is a god to an overwhelming majority of Indians. Every religion, Hindus included, says that all human beings are the children of god, be it the Christians, Muslims and so on. Nobody challenges this claim. India is a land of Hindus where people have the unchallenged liberty to adopt whatever form of worship they like. Within Hindus there are numerous forms of worship, yet all remain one: Hindu. After the invasion by Muslim and Christian raiders, a section of the people adopted Christian and Muslim ways of worship. The Hindus respect it. Why, therefore, should the use of word Ramzade hurt any section of society? All Indians are the children of god whomever they worship or have faith in.

The dictionary meaning of the word hramzade is bastard, rascal, scoundrel, and ill-begotten. This is the word people use in their everyday life to describe certain individuals. Namakhraam is a word in common usage. By using the words Ramzade and hramzade the Sadhvi just tried to draw a distinction between men of god, gentlemen and civilized persons on the one hand and bastards, rascals and scoundrels, on the other. Do the media and opposition wish to make us believe that among we Indians there are no bastards, rascals and scoundrels at all? Is it, then, a crime to call upon people to choose between men of god and scoundrels?
Needless to call the famous quote of Pandit Jawaharlal Nehru: Aaraam hraam hai. Nobody has felt — and should — offended by these words.

Similarly, halaal is a common Urdu word. Everybody knows its meaning and connotation. When in rage, people are usually seen threatening others: Main tujhe halaal kar rakh doonga (Will slaughter you like a goat "in accordance with conventional prescription").

It is a political travesty of the democracy and 'secularism' that in India with a population of more than 80 percent Hindus the very word Ram pinches very hard the delicate heart of our so-called self-styled liberal-secularists. It is a 'crime' to take His name. Whoever does is branded a fundamentalist 'communal'. A Hindu doesn't have the right to proclaim that he is proud of being one while all other non-Hindus have this privilege.


The writer is a Delhi-based political analyst.

Sunday, November 30, 2014

SANT RAMPAL EPISODE Media upbraids Haryana, Court praises it

Sant Rampal episode
Media upbraids Haryana, Court praises it

The non-bailable warrants issued against the self-proclaimed Sant Rampal of Hissar and his defiance of the court and the Haryana police made great headlines. Ultimately, the Punjab & Haryana High Court directed the police to arrest him and present him in court on November 21.
The continued defiance of the police and the court in refusal to surrender before the law of the land was generated into a great media hype. Rampal collected about 20-25 thousand of his supporters -- men, women and chikdreb -- to use them as a human shield to frustrate the attempt of the police to lay their hands on him. His touted blind followers seemed more defiant than the sant himself. They declared him innocent and vowed that they would not allow police to arrest him. Even a story was floated that Rampal wss ill, was not in the ashram and was getting medical treatment elsewhere. He will surrender, they said, when he is medically fit. But Haryana Director-General of Police was insistent throughout declaring that Rampal was very much present in the premises directing the defiance and resistance to police attempts by his followers.
The Haryana police adopted a very sympathetic attitude. It did make a show of force but did not use it. They implored both Rampal and his followers to surrender and not hinder the process of law. They repeatedly announced the followers to leave the ashram and promisds all help and no harassment. To counter the police action the ashram authorities floated the news that six persons had died in the police action. They claimed that four bodies of women were lying in the Ashram gates and two persons died when taken to hospital. The cause of death is yet to be ascertained.
The ashram security felt emboldened to the humanitarian attitude of the police which looked very docile and weak to them abd the media. There was firing from inside the ashram injuring numerous police men and officers. Petrol bombs two were thrown at the police. Pelting of stones was also indulged in. The media, particularly the electronic one, created a great story; every other national and international news was relegated to insignificance. They devoted all their coverage to Hissar operation. In comments after comments, in live media coverage and in channel discussions the only point highlighted was the ‘complete failure of Madi’s handpicked RSS man and his favourite, Manoharlal Khattar, as the new Haryana CM who had no experience as administration as he is a first-time MLA’. They were quick in declaring that Khattar had failed in his first test as CM.  The plea of Haryana police that they could not stake the lives of thousands of innocent men, women and children in their anxiety to lay hands on Rampal, fell on media deaf ears.
The only weak link in Haryana police’s armoury of defence was the violence it leashed at some media men covering the Rampal operation. The Haryana government and the Union Home Minister Rajnath Singh regretted the incident and ordered inquiry.
Had the Haryana police thoughtlessly and mercilessly mounted its operation in the ashram, it could have put the innocent lives in the ashram, according to allegations, were held as hostages to be used as human chain of defence against police. In that eventuality the media would have changed the tack to blame the police being atrocious and brutal against unarmed innocent human beings who were there just devoted followers of Rampal.
Finally, when Rampal was nabbed and produced before the High Court, some of these very media channels reported that the court had a word of praise for the way the whole operations was conducted and was successful.
The moral of the story remains that no one, least of all, the media should be hasty in coming out with their momentary comments and opinions at the  cost of their credibility.   
The writer is a Delhi based political analyst e-mail: [email protected]

Thursday, November 13, 2014

ANIMAL SACRIFICE a crime ANIMAL SLAUGHTER a piety!


ANIMAL SACRIFICE a crime
ANIMAL SLAUGHTER a piety!

By Amba Charan Vashishth

Note: In the first place, the writer wishes to stress that he himself is totally vegetarian but has written this piece only because animal sacrifice ban amounts to discrimination on grounds of religion

 On September 1st 2014 the Himachal Pradesh High Court directed: "No person throughout the State of Himachal Pradesh shall sacrifice any animal in any place of public religious worship, including all lands and building near such places of religious worship, which are ordinarily connected for religious purposes or in any ceremony/Yagya/ congregation or procession connected with any religious worship in a public street." The Hon'ble Judge also ordered all district collectors, SPs, and other officers to ensure the ban is effectively enforced.(http://indiatoday.intoday.in/story/animal-sacrifice-himachal-pradesh-high-court-puts-a-ban/1/380340.html)

The HC direction is consequent to a PIL and not a fall-out of any outcry — written, verbal or violent — displayed by any section of the people of any area or by devotees of any place of worship.

The Hon'ble High Court must have come to this considered judgement in all its wisdom. Yet, the conclusion seems to have been arrived at in an ex parte manner and other aspects of the matter concerning one's freedom of faith, belief and religion seem to have got overlooked.

Since times immemorial, in one form or the other, animal — and even human — sacrifice to propitiate a deity or in the course of some social or religious ritual had been in vogue all over the world, India included.   As human race advanced into the present phase of our civilisation, human sacrifice was socially and legally banned almost all over the world. Yet, some reports do continue to be reported in the media from different parts of the world.
  
Animal sacrifice for religious and social celebrations has, however, continued unabated, though their number and frequency is sharply going down each day. Although feudalism and the age of rajas-maharajas is over, yet animal sacrifice in honour of the exalted visit of an erstwhile ruler to a village continues even today. People offer goats etc. to their family or clan deity on any happy occasion — a marriage, fulfilment of a wish or even for a social celebration, victory in election or success in a competitive examination for a high post.

"Subject to public order, morality and health", Article 25 of the Constitution of India, granting freedom of conscience and free profession, practice and propagation of religion says that "all persons are equally entitled to freedom of conscience and the right freely to profess, practice and propagate religion".  Animal sacrifice in pursuance of any religious faith or belief cannot in any way offend the "public order, morality and health".

It must be noted that animal sacrifice as a part of religious belief or as an offering is never a public celebration but restricted to personal or family gathering. It is not done for a public applause. Moreover, the sacrificed animal is served to the invitees as a prashad. It is a case of feasting at social or religious occasions which can never be construed as a crime by any reckoning. 

Interestingly  — and surprisingly — axing the neck of animals while slaughtering them for public consumption is not a crime; it does not attract even the provisions of the Cruelty to Animals Act. 

It is in this background that the panchayat of the presiding deities of different areas in Kullu and other districts of Himachal have taken cognizance of the verdict and decided to file a review petition in the High Court. The matter has come before the Supreme Court of India.

At the same time, it needs to be understood that personal/individual faith or belief is never rational; it is just emotional, blind and unexplainable. A stone lying on the roadside for one individual may just be a pebble but for the other it can be a god incarnate. To pronounce who is right and who wrong is well nigh impossible because it is difficult to pass judgement on a matter of one's or a group's faith and belief. It has to be respected and not injured or laughed at. No person has a right to hurt anybody's sentiments, reasonable or otherwise.

There is only a hairline difference between animal "sacrifice" and "slaughter" as its meat in both the cases is consumed by human beings. In the former case, it is a prashad shared collectively by the society with religious sentiment while, in the latter, it is a business and commercial exploitation involving the pleasure of the tick of the tongue. The place for sacrifice is specified and earmarked away from direct public gaze unless, of course, if some people volunteer to witness it on their own. Slaughter houses too are public places for all intents and purposes. Therefore, banning animal sacrifice only "in any place of public worship" connected with one's religion, belief and faith and, at the same time, allowing it for community or social celebrations and exploitation, like visit of an erstwhile ruler, present elected ruler or for family or social celebrations directly amount to an act of discrimination on grounds of religion in violation of Articicle 25.

Maybe, there is a need for reform to ensure that the place earmarked for animal sacrifice is hygienic, secluded, away from general public gaze so that it does not offend others. But banning animal sacrifice motivated by religious sentiments and allowing animal slaughter for commercial and social purposes surely amounts to an act of discrimination on grounds of religion and belief. 
The writer is a Delhi based political analyst


Sunday, November 9, 2014

व्‍यंग — जनतन्‍त्र में विरोध प्रदर्शन बस ''किस्‍स ऑफ लव'', बाकी पर प्रतिबन्‍ध

व्‍यंग
जनतन्‍त्र में विरोध प्रदर्शन बस ''किस्‍स ऑफ लव'', बाकी पर प्रतिबन्‍ध
   अम्‍बा चरण वशिष्‍ठ

बेटा:   पिताजी, आज बहुत मज़ा लूटा मैंने।
पिता:  अच्‍छा\ ऐसा क्‍या कर आया आज\
बेटा:   पिताजी, आज तो मैं बहुत ही खुश हूं, जैसे मनचाही मुराद बिन मांगे मिल गई हो।
पिता:  पर बता तो सही हुआ क्‍या\
बेटा:   मैं आपको बता कर गया था न कि मैं अपने एक दोस्‍त के पास जा रहा हूं।
पिता:  हां। तो फिर वहां क्‍या ऐसा करिश्‍मा हो गया कि आज तेरी बांछें ही खिल्‍ल गई हैं\
बेटा:   पिताजी, जब मैं अपने दोस्‍त के घर पहुंचा तो उसने कहा — चल, कहीं बाहर चाय पीते
हैं। ज्‍यों ही हम बाहर निकले तो कुछ लड़के—लड़कियां, पुरूष—महिलायें ''किस ऑफ लव' जि़न्‍दाबाद'' और ''मौरल पुलिसिंग मुर्दाबाद'' के नारे लगाते आगे बढ़ रहे थे। जब मैंने उनसे पूछा तो उन्‍होंने बताया कि कुछ गुंडा तत्‍वों द्वारा ''मौरल पुलिसिंग'' किये जाने के विरूद्ध वह एक संस्‍था के सामने एक-दूसरे को चूम कर विरोध प्रदर्शन करने जा रहे हैं।
पिता:  यह भी कोई विरोध प्रदर्शन का तरीका हुआ\
बेटा:   यह एक नई खोज है, पिताजी। उन्‍होंने कर दिखाया।
पिता:  तो उसमें तुमने क्‍या किया\
बेटा:   मैंने उसमें कुछ लड़कियों व महिलाओं पर नज़र दौड़ाई जो बड़े ज़ोर-ज़ोर से नारे लगा रही थी़। उन्‍हें देख कर तो हमारे मुंह में भी पानी आ गया। हमने एक दूसरें को कहा — बेटा, ऐसा सुनैहरी मौका पता नहीं तुम्‍हारे जीवन में फिर हाथ आये या न आये। हम भी ज़ोर-ज़ोर से नारे लगाने लगे। जब गन्‍तव्‍य स्‍थान पर पहुंचे और हमें विरोध प्रदर्शन का आदेश मिला, हमने भी अपनी मर्जी़ की युवतियों को गले लगाया और जी भर कर चूमा। सब आनंदित थे।
पिता:  बेटा, तो तुम यह भी जान लो कि कल को जब यह फोटों अखबारों व समाचार चैनलों में आयेंगी तो उन लड़कियों-महिलाओं के भाई-पिता-पति जूता मार-मार कर तुम्‍हें गंजा कर देंगे।
बेटा:   पिताजी, आप जैसे लोग जब ऐसी दकियानूसी बातें करते हैं तभी तो हम आजकल के नौजवानों को विरोध प्रदर्शन करने पड़ते हैं। आपको पता नहीं कि जब कोई वयस्‍क महिला या पुरूष अपनी सहमति से यह काम करते हैं तो यह न अनैतिक होता है और न ही आपराधिक।
पिता:  हां, यह तो तू ठीक कह रहा है।
बेटा:   पिताजी, मेरे को एक ख्‍याल आया। मेरा सुझाव भी है। हमारी सामाजिक व राजनीतिक संस्‍थायें भी अपने जनतन्‍त्र में अपनी मांगें मनवाने के लिये ऐसे हिंसक विरोध प्रदर्शन छोड़ दें जिसमें कि अंडे-टमाटर-ईंट-पत्‍थर बरसाये जाते हैं। उन्‍हें भी ''किस्‍स ऑफ लव'' के अहिंसक विरोध प्रदर्शन का आदर्श अपना लेना चाहिये जो भाग लेने वाली जनता और दर्शकों दोनों का ही मनोरंजन करे और सरकार भी मान जाये। बाकी सब विरोध प्रदर्शनों पर सरकार को प्रतिबन्‍ध लगा देना चाहिये।

पिता:  बेशर्म, मुझे क्‍या कहता है\ यह सुझाव उनको ही दे।                        ***

Friday, November 7, 2014

मौसम न आम का, चुनाव का

मौसम न आम का, चुनाव का 


विज्ञापन: आम का कोई season (मौसम) नहीं होता।

सच्‍चाईचुनाव का कोई season (मौसम) नहीं होता। यह हर

        महीने, हर मौसम में होता है। 

Monday, November 3, 2014

व्‍यंग — 'किस ऑफ लव' के आगे क्‍या है

व्‍यंग
'किस ऑफ लव' के आगे क्‍या है

— अम्‍बा चरण वशिष्‍ठ

बेटा:     पिताजी।
पिता:    हां, बेटा।
बेटा:     आपने समाचार पढ़ा कि कुछ लोगों ने कोची के एक
रैस्‍तरां में हंगामा मचाया कि यहां कुछ अनैतिक व्‍यवहार हो रहा है\ 
पिता:    यदि वहां कुछ ग़लत नहीं हो रहा था तो उस संगठन
को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिये था।
बेटा:     आप ने पढ़ा कि इन नैतिकता के ठेकेदारों द्वारा 'मौरल पुलिसिंग' का डंडा बरसाने के विरोध में मैरीन ड्राइव तथा अन्‍य कई स्‍थानों पर पर विरोध प्रदर्शन के तौर पर ''किस ऑफ लव'' का आयोजन किया जा रहा है\
पिता:    बेटा, मुझे तो यह कुछ समझ नहीं आ रहा है।
बेटा:     पिताजी, विरोध के तौर पर कुछ संस्‍थायें व लोग वहां इकट्ठे होंगे और सामूहिक तौर पर पुरूष व महिलायें एक दूसरे का सब के सामने सार्वजनिक रूप से चुम्‍बन लेकर विरोध प्रदर्शन करेंगे।
पिता:    तो क्‍या वह सब पति-पत्नि ही होंगे\
बेटा:     पिताजी, आप फिर वही बात कर रहे हैं जिसका वह विरोध कर रहे हैं। यदि एक दूसरे का चुम्‍बन ले रहे जोड़ों से कोई यह पूछने की हिमाकत करेगा कि तुम पति-पत्नि हो कि नहीं, तो फिर उस पर भी ''मौरल पुलिसिंग'' का आरोप नहीं लग जायेगा
पिता:    बात तो तुम्‍हारी ठीक है। पर इसका मतलब तो यह हुआ कि वहां पहुंचा हर पुरूष व महिला किसी का भी बेरोक-टोक चुम्‍बन ले पायेगा।
बेटा:     यही तो हमारी नई उदारवादी सभ्‍यता का कमाल है, पिताजी। इसीलिये तो इस सभ्‍यता से लोग जुड़ते जा रहे हैं।
पिता:    पर बेटा, इस विरोध आयोजन के लोग तो यह भी कहते हैं कि वह इस आयोजन द्वारा एड्स के विरूद्ध माहौल खड़ा करेंगे।
बेटा:     ऐसा विरोध प्रदर्शन एड्स के विरूद्ध लड़ाई में कारगर सिद्ध होता है तब तो सरकार को भी ऐसे ''किस्‍स ऑफ लव''  आयोजन हर गांव व मुहल्‍ले में करवाने पड़ेंगे।
पिता:    सरकार को तो तब सचमुच ही सोचना पड़ेगा।
बेटा:     पर पिताजी, मैंने यह भी पढ़ा कि पुलिस ने ''किस्‍स ऑफ लव'' के आयोजन की अनुमति देने से इनकार कर दिया है।
पिता:    तब तो बेटा पुलिस पर भी ''मौरल पुलिसिंग'' का आरोप लग जायेगा जबकि पुलिस का सरोकार अपराध से है नैतिकता से नहीं।
बेटा:     पर आयोजकों ने तो अपनी भीषम प्रतिज्ञा का ऐलान कर दिया है कि वह कुछ भी हो इस विरोध प्रदर्शन का आयोजन कर के ही रहेंगे चाहे कुछ भी हो जाये।
पिता:    ऐसा लगता है कि आयोजक अपने लक्ष्‍य के प्रति कटिबद्ध हैं और लगन के सच्‍चे।
बेटा:     मुझे भी ऐसा ही लगता है। पर पिताजी, यदि पुलिस ने भी उनकी सारी तैय्यारियों और मन्‍शा पर पानी फेर दिया तो लगता है कि वह अपने लक्ष्‍य के प्रति इतने सच्‍चे हैं कि वह चुप नहीं बैठेंगे और और भी सख्‍़त कार्रवाई कर सकते हैं।
पिता:    मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है।
बेटा:     इससे भी आगे बढ़ कर तो यही सख्‍़त विरोध प्रदर्शन हो सकता है कि वह मैरीन ड्राइव तथा अन्‍य सार्व‍जनिक स्‍थानों पर बिस्‍तर बिछा देंगे और जोड़े आकर वह सब कुछ करेंगे सब के सामने जो अन्‍यथा वह अपने कमरे की चार दीवारी में सब की नज़र से दूर अन्‍धेरे में करते हैं\

पिता:    यह तू उनसे ही पूछ।                      ***
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