'ललितगेट', याक़ूब व संजय
राजनीति तेरा नाम ही पाखण्ड है
विदेश मन्त्री
सुषमा स्वराज ने भारतीय मूल के एक ब्रिटिश सांसद से आईपीएल के पूर्व प्रमुख ललित
मोदी की लन्दन से पुर्तगाल जाने में सहायता मांगी थी जहां उनकी पत्नि का कैंसर का
आप्रेशन होना था। मोदी उस संवेदनशील क्षण पर अपनी पत्नि के साथ होना चाहते थे। किसी
अपराधी की भी यह इच्छा कोई अपराध नहीं होता। यह उनका मानवीय दायित्व भी था व
अधिकार भी।
पर विपक्षी दलों ने
इस पर बड़ा हो-हल्ला खड़ा कर दिया मानों सुषमा ने कोई घोर अपराध कर दिया हो। उसे
'ललितगेट' का नाम देकर खूब उछाला गया। उनके त्यागपत्र की मांग को लेकर संसद का
पूरा मानसून सत्र ही चलने नहीं दिया गया। नुक्सान में कौन रहा — बताने की आवश्यकता
ही नहीं है।
संवेदना व मानवीय
दृष्टिकोण से इस अधिकार का भारत में सम्मान किया गया है और दुर्दान्त से
दुर्दान्त अपराधियों व आतंकियों के भी इस अधिकार की रक्षा की गई है। हमारी तो एक
विधान सभा ने आतंक के अपराधी को बीमारी के कारण जेल से रिहा किये जाने की मांग के
लिये सदन में प्रस्ताव तक पारित कर दिया था।
याक़ूब को 1993 के
सीरियल बम विस्फोटों का दोषी पाया गया था जिसमें 257 से अधिक निर्दोष लोगों के
जीने का अधिकार छीन लिया गया था। उसे फांसी की सज़ा दी गई थी। पर हमारे 'उदारवादी
सैकुलर बुद्धीजीवी' उस दुर्दान्त आतंकी के ''जीवन के अधिकार'' की रक्षा की वकालत
कर रहे थे। मानों, उनकी नज़र में, याकूब को उन 257 से अधिक निर्दोष व्यक्तियों के
''जीवन का अधिकार'' छीनने का भी हक था और अपने ''जीवन के अधिकार'' पर भी। संयोग से
याचनाकर्ताओं में कुच्छ न्यायविद भी थे।
दो दशकों तक याकूब
के विरूद्ध मुकद्दमा चला। अपने आपको निर्दोष साबित करने का पूरा अवसर दिया गया।
अदालत ने उसे फांसी की सज़ा सुनाई। उसे उपरी अदालतों में अपील का अवसर दिया गया।
देश के सर्वौच्च उच्चतम् न्यायालय ने भी उसकी सज़ा बहाल रखी। उसने महामहिम राष्ट्रपति
के सामने अपनी दया याचना भी रखी। इसका स्पष्ट मतलब होता है कि उससे ग़लती हुई है
और उसे क्षमा कर दिया जाये। राष्ट्रपति ने याचना खारिज कर दी। उसके बाद भी उसके
'उदारवादी' समर्थकों ने कई याचनायें अदालत में पेश कीं ताकि उसकी फांसी टल सके।
उच्च्तम् न्यायालय ने आधी रात को बैठ कर इतिहास रचा और अपना फैसला सुनाया और
उसी दिन प्रात: उसे फांसी भी हो गई। इस प्रकार याकूब को अपने किये पर और उसके द्वारा
मारे गये निर्दोष व्यक्तियों और उनके परिवारों को न्याय मिला। यदि याकू़ब को
सज़ा न मिलती तो चाहे हमारे 'उदारवादी' उसे याक़ूब के लिये न्याय की संज्ञा देते
पर वास्तव में वह पीडि़तों के लिये घोर अन्याय ही होता। फिर भी हमारे 'उदारवादी'
प्रश्न उठाते हैं कि क्या याक़़ूब को न्याय मिला?मिला?
उधर उन्ही दिनों की घटनाओं
के सम्बन्ध में पा़ंच वर्ष की सज़ा काट रहे अपराधी व फिल्म अभिनेता संजय दत्त
को हाल ही में एक बार फिर, इस बार एक मास के लिये, पैरोल पर भेज दिया गया है
मानवीय संवेदनशील आधार पर क्योंकि उसकी बेटी का आप्रेशन होना है।
याद रखने वाली बात यह है कि
ललित मोदी देश से तब भाग निकले थे जब उनकी सरकार थी जो आज शोर मचा रहे हैं। अपने
समय में वह मोदी के विरूद्ध कोई भी आपराधिक मामला नहीं बना सके और न उसे सज़ा दिला
सके यदि उसने कोई अपराध किया था तो। मोदी के वकील के दावे के अनुसार मोदी पर कोई
आपराधिक मामला नहीं है। किसी अदालत ने उसे भगौड़ा घोषित नहीं किया है। यदि कुच्छ
बनता है तो केवल वैसे आर्थिक अपराध जैसे इस समय हमारे हज़ारों महानुभावों के
विरूद्ध चल रहे हैं। हाल ही में एनफोर्समैंट डायरैक्टर ने उन्हें कुछ आर्थिक
अपराधों की पूछताछ के लिये उसके समक्ष पेश होने का आदेश अवश्य दिया है।
ललित मोदी, याक़ूब और संजय
दत्त के मामलों ने साबित कर दिया है कि राजनीति कहां तक जा या गिर सकती है। संसद
का मानसून सत्र 'ललितगेट' की सूली पर चढ़ गया। अब तो राजनीतिक दलों की ज़ुबान से, मीडिया के पन्नों से
और समाचार चैनलों की चर्चाओं से 'ललितगेट' ऐसे ग़ायब हो गया है मानों यह कभी कोई
मुद्दा था ही नहीं।
राजनीति के पाखण्ड को
सलाम। ***