Monday, August 31, 2015

'ललितगेट', याक़ूब व संजय — राजनीति तेरा नाम ही पाखण्‍ड है

'ललितगेट', याक़ूब व संजय
राजनीति तेरा नाम ही पाखण्‍ड है
विदेश मन्‍त्री सुषमा स्‍वराज ने भारतीय मूल के एक ब्रिटिश सांसद से आईपीएल के पूर्व प्रमुख ललित मोदी की लन्‍दन से पुर्तगाल जाने में सहायता मांगी थी जहां उनकी पत्नि का कैंसर का आप्रेशन होना था। मोदी उस संवेदनशील क्षण पर अपनी पत्नि के साथ होना चाहते थे। किसी अपराधी की भी यह इच्‍छा कोई अपराध नहीं होता। यह उनका मानवीय दायित्‍व भी था व अधिकार भी।
पर विपक्षी दलों ने इस पर बड़ा हो-हल्‍ला खड़ा कर दिया मानों सुषमा ने कोई घोर अपराध कर दिया हो। उसे 'ललितगेट' का नाम देकर खूब उछाला गया। उनके त्‍यागपत्र की मांग को लेकर संसद का पूरा मानसून सत्र ही चलने नहीं दिया गया। नुक्‍सान में कौन रहा — बताने की आवश्‍यकता ही नहीं है।
संवेदना व मानवीय दृष्टिकोण से इस अधिकार का भारत में सम्‍मान किया गया है और दुर्दान्‍त से दुर्दान्‍त अपराधियों व आतंकियों के भी इस अधिकार की रक्षा की गई है। हमारी तो एक विधान सभा ने आतंक के अपराधी को बीमारी के कारण जेल से रिहा किये जाने की मांग के लिये सदन में प्रस्‍ताव तक पारित कर दिया था।
याक़ूब को 1993 के सीरियल बम विस्‍फोटों का दोषी पाया गया था जिसमें 257 से अधिक निर्दोष लोगों के जीने का अधिकार छीन लिया गया था। उसे फांसी की सज़ा दी गई थी। पर हमारे 'उदारवादी सैकुलर बुद्धीजीवी' उस दुर्दान्‍त आतंकी के ''जीवन के अधिकार'' की रक्षा की वकालत कर रहे थे। मानों, उनकी नज़र में, याकूब को उन 257 से अधिक निर्दोष व्‍यक्तियों के ''जीवन का अधिकार'' छीनने का भी हक था और अपने ''जीवन के अधिकार'' पर भी। संयोग से याचनाकर्ताओं में कुच्‍छ न्‍यायविद भी थे।
दो दशकों तक याकूब के विरूद्ध मुकद्दमा चला। अपने आपको निर्दोष साबित करने का पूरा अवसर दिया गया। अदालत ने उसे फांसी की सज़ा सुनाई। उसे उपरी अदालतों में अपील का अवसर दिया गया। देश के सर्वौच्‍च उच्‍चतम् न्‍यायालय ने भी उसकी सज़ा बहाल रखी। उसने महामहिम राष्‍ट्रपति के सामने अपनी दया याचना भी रखी। इसका स्‍पष्‍ट मतलब होता है कि उससे ग़लती हुई है और उसे क्षमा कर दिया जाये। राष्‍ट्रपति ने याचना खारिज कर दी। उसके बाद भी उसके 'उदारवादी' समर्थकों ने कई याचनायें अदालत में पेश कीं ताकि उसकी फांसी टल सके। उच्‍च्‍तम् न्‍यायालय ने आधी रात को बैठ कर इतिहास रचा और अपना फैसला सुनाया और उसी दिन प्रात: उसे फांसी भी हो गई। इस प्रकार याकूब को अपने किये पर और उसके द्वारा मारे गये निर्दोष व्‍यक्तियों और उनके परिवारों को न्‍याय मिला। यदि याकू़ब को सज़ा न मिलती तो चाहे हमारे 'उदारवादी' उसे याक़ूब के लिये न्‍याय की संज्ञा देते पर वास्‍तव में वह पीडि़तों के लिये घोर अन्‍याय ही होता। फिर भी हमारे 'उदारवादी' प्रश्‍न उठाते हैं कि क्‍या याक़़ूब को न्‍याय मिला?मिला?
उधर उन्‍ही दिनों की घटनाओं के सम्‍बन्‍ध में पा़ंच वर्ष की सज़ा काट रहे अपराधी व फिल्‍म अभिनेता संजय दत्‍त को हाल ही में एक बार फिर, इस बार एक मास के लिये, पैरोल पर भेज दिया गया है मानवीय संवेदनशील आधार पर क्‍योंकि उसकी बेटी का आप्रेशन होना है।
याद रखने वाली बात यह है कि ललित मोदी देश से तब भाग निकले थे जब उनकी सरकार थी जो आज शोर मचा रहे हैं। अपने समय में वह मोदी के विरूद्ध कोई भी आपराधिक मामला नहीं बना सके और न उसे सज़ा दिला सके यदि उसने कोई अपराध किया था तो। मोदी के वकील के दावे के अनुसार मोदी पर कोई आपराधिक मामला नहीं है। किसी अदालत ने उसे भगौड़ा घोषित नहीं किया है। यदि कुच्‍छ बनता है तो केवल वैसे आर्थिक अपराध जैसे इस समय हमारे हज़ारों महानुभावों के विरूद्ध चल रहे हैं। हाल ही में एनफोर्समैंट डायरैक्‍टर ने उन्‍हें कुछ आर्थिक अपराधों की पूछताछ के लिये उसके समक्ष पेश होने का आदेश अवश्‍य दिया है।
ललित मोदी, याक़ूब और संजय दत्‍त के मामलों ने साबित कर दिया है कि राजनीति कहां तक जा या गिर सकती है। संसद का मानसून सत्र 'ललितगेट' की सूली पर चढ़ गया। अब तो  राजनीतिक दलों की ज़ुबान से, मीडिया के पन्‍नों से और समाचार चैनलों की चर्चाओं से 'ललितगेट' ऐसे ग़ायब हो गया है मानों यह कभी कोई मुद्दा था ही नहीं।
राजनीति के पाखण्‍ड को सलाम।                    ***

Sunday, August 30, 2015

क्‍या आरक्षण की कोई सीमा व समयसीमा आ पायेगी कभी?

क्‍या आरक्षण की कोई सीमा व समयसीमा आ पायेगी कभी?

गुजरात में पटेल जाति के लिये सरकारी नौकरियों में आरक्षण ने तो कई सवाल खड़े कर दिये हैं। सोशल मीडिया में तो एक ने ठीक ही कहा कि एक ओर तो भारत विकास के नये से नये शिखर पार कर रहा है तो दूसरी ओर देश की हर जाति अपने आपको सब से पिछड़ा बताकर आरक्षण प्राप्‍त करना चाहती है। ऐसा लगता है देश ने तो तरक़की की है पर हमारी जातियां पीछे की ओर जा रही हैं। अब तो स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि जिन जातियों को विकसित माना जाता था आज वह भी अपनी जनसंख्‍या के आधार पर अपने लिये आरक्षण की मांग कर रही हैं।
विडम्‍बना यह भी है कि एक ओर तो सरकारी नौकरियों की संख्‍या कम होती जा रही है और दूसरी ओर उनमें आरक्षण की मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
आरक्षण के लिये नई से नई जातियों की मांग से तो ऐसा लगता है कि इस समस्‍या का कभी अन्‍त होगा ही नहीं। अन्‍तत: सभी जातियों को जनसंख्‍या में उनकी भागीदारी के अनुसार सब को आरक्षण ही देना पड़ेगा।
राजनीतिक व चुनावी लाभ के लिये हमारे राजनीतिक दल इन आरक्षण मांगों का समर्थन तो अवश्‍य कर रहे हैं पर साथ ही भूल रहे हैं कि हम इस प्रकार संविधान के प्रावधानों के अनुसार जातिविहीन राष्‍ट्र के अपने लक्ष्‍य से दूर होते जा रहे हैं। संविधान के प्रावधानों का उल्‍लंघन कर हम जाति के आधार पर भेदभाव को बढ़ावा दे रहे हैं। हम विभिन्‍न जातियों के बीच बैर और विषमताओं को भी हवा दे रहे हैं।

आरक्षण पर किसी न किसी समय पूर्ण विराम तो लगाना ही होगा। पर यह तभी सम्‍भव हो पायेगा जब इस में राजनीति का कोई दखल नहीं होगा। पर वर्तमान स्थिति में ऐसा सपना देखना तो बस एक दिवास्‍वप्‍न बन कर ही रह जायेगा।          ***