Wednesday, February 15, 2017

हास्‍य-व्‍यंग — मैं गधा ही ठीक हूं, मुझे इन्‍सान नहीं बनना

हास्‍य-व्‍यंग
कानोंकान नारदजी के
 मैं गधा ही ठीक हूं, मुझे इन्‍सान नहीं बनना
जी हां, मैं गधा हूं। मनुष्‍य का साथी। उसका दायां हाथ। मैं उसके बहुत काम आता हूं। यदि मैं न होता, मनुष्‍य का बोझा न ढोता तो आज आदमी इतनी तरक्‍की कर लेने की डींग नहीं मार सकता था। महल मेरी पीठ के सहारे ही तो बन पाये हैं। मैं न होता तो ताजमहल कहां बन सकता था। बड़े-बड़े कारखानों को बनाने वाला ही मैं हूं। मेरे बिना तो मानव का विकास ही सम्‍भव न था। मानव समाज में मैं अपना महत्‍व समझता हूं। मानव भी इसे नकार नहीं सकता। वह सदा ऋणी रहेगा मेरा। मेरी महानता की ही स्‍वीकारोक्ति है कि आदमी भी कई बार अपने भाईयों को गधा कह देने लायक समझता है चाहे वह इस काबिल हो या न हो।
आदमी और गधे का रिश्‍ता बहुत प्राचीन है। इतना प्राचीन जितनी कि हमारी सभ्‍यता। मेरे विचार में तो इन्‍सान और गधा लगभग एक साथ ही धर्ती पर प्रकट हुये थे। गधा और इन्‍सान एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधी या प्रतिद्वन्‍दी नहीं। मैं भी जानवर हूं और आदमी भी। सब मानते हैं कि आदमी एक सामाजिक प्राणी है।
पिछले चुनाव में मैंने भी चुनाव लड़ने की सोची। मेरे विचार में मैं आदमी का सब से बड़ा सेवक हूं। हमारे नेता भी कहते हैं कि वह जनता के सेवक हैं। मैं भी तो आदमी का कम सेवक नहीं हूं। इस लिये मैं ने सोचा कि क्‍यों न उनका एक प्रतिनिधि सेवक ही बन जाऊं? मैंने आदमी की समस्‍याओं को सदैव अपनी पीठ पर ढोया है। मैं उनका प्रतिनिधि बन कर भी यही करूंगा। उनकी समरस्‍याओं को अपनी पीठ पर उठा कर कूड़े-कचरे की तरह इतनी दूर फैंक आऊंगा कि वह कभी दोबारा आ ही न सकें।  
कई पार्टियां मुझे अपना उम्‍मीदवार भी बनाने को तैय्यार हो गई। पर मैंने कहा कि मैं स्‍वतन्‍त्र रह कर ही आप सबकी सेवा करना चाहता हूं। पर मेरे विरोधी मेरी लोकप्रियता से घबरा गये। वह मुझे चुनाव न लड़ने देने केलिये ओछे हथकण्‍डे अपनाने लगे। जब मैं अपना नामांकन भरने गया तो उन्‍होंने चुनाव अधिकारी के सामने अपना विरोधपत्र दाखिल कर दिया। कहा कि एक गधा चुनाव नहीं लड़ सकता। प्रत्‍युत्‍तर में मैंने तर्क दिया कि मैं और आदमी एक समान हैं। हम दोनों ही सामाजिक प्राणी हैं और इस कारण प्राणी-प्राणी में भेदभाव नहीं किया जा सकता। यह तो जानवर अधिकारों का भी हनन होगा। उनके प्रति करूरता होगी। चुनाव अधिकारी घबरा गया। उसे लगा कि यदि उस पर यह आरोप लगा कि वह भेदभाव कर रहा है और उन पर अत्‍याचार कर रहा है तो उसकी नौकरी ही खतरे में नहीं पड़ेगी बल्कि जानवरों पर अत्‍याचार निरोधक कानून के अन्‍दर सज़ा भी भुगतनी पड़ सकती है। उसने आदमियों के विरोध को खारिज कर दिया।
अब बात अड़ गई चुनाव निशान को ले कर। पार्टी प्रत्‍याशियों को तो अपने-अपने निशान मिल गये पर मेरे लिये खड़ी हो गई समस्‍या। मुझे कहा गया कि मैं बकरी, घोड़ा, मोर, लालटैन, घड़ी आदि में से कोई भी चुनाव निशान पसन्‍द कर लूं। कोई भी चुनाव निशान मेरे अलग व्‍यक्तित्‍व से मेल नहीं खाता था। जब मैं गधा हूं तो मैं अपना चुनाव निशान घोड़ा क्‍यों लूं भला। मैं ने अधिकारी से विनम्र प्रार्थना की कि मुझे चुनाव निशान गधा ही दिया जाये। अधिकारी ने कहा कि यह चुनाव निशान है ही नहीं। किसी ने कभी मांगा ही नहीं। मैंने उन्‍हें सहज भाव से समझाया कि मेरे व्‍यक्तित्‍व से कोई भी चुनाव निशान मेल नहीं खाता। इस लिये मेरी याचना को स्‍वीकार कर लिया जाये। वह मुझ पर मेहरबान हो गये और मुझे मेरा मुंह मांगा चुनाव निशान मिल गया।
बस फिर क्‍या थामैं अपने चुनाव अभियान पर उतर पड़ा। मैंने एक पटिका बनवाई जिस पर लिखवाया "’देश-प्रदेश के गौरव के लिये अपना कीमती वोट अपने सच्चे-पक्के दोस्त को ही दें’’। उसे मैंने अपने गले मैं टांग लिया। मैं अपने चुना क्ष्रेत्र के हर कोनेहर कूचे और हर किनारे घूमा और वोट मांगे सब जगह मुझे समर्थन का वादा मिला। मैं उस जगह भी अपनी टांगों पर ही पहुँच गया जहाँ मेरे प्रतिद्वंदी अपने हेलीकाप्टर व् मर्सिडीज़ मैं भी नहीं पहुँच सके।
कई मतदाताओं ने प्रश्न खड़ा किया: "हम तुम्हें क्यों वोट दें जब हमारे अनेक इंसान भाई चुनाव मैदान में हैं?"
मैंने उलटे उनसे ही पूछ मारा: "बताओमुझ से ज़्यादा किसी ने आपकी सेवा की है?"
उनके पास कोई उत्तर न था।
फिर मैं ने उनसे आगे कहा: "वह व्यक्ति अपना हाथ खड़ा करें जो ज़िन्दगी में किसी का गधा नहीं बना । वह भी अपना हाथ खड़ा करें जिस ने किसी को गधा न बनाया हो। या जिसने किसी दूसरे को गधा नहीं कहा हो। वह भी बताएं जिन्हों ने किसी भी रूप में अपनी ज़िन्दगी में गधे की सेवाओं का लाभ नहीं उठाये हो।
मैंने आगे तर्क दिया। जब मैंने एक जानवर के रूप में आपकी पूरी सेवा की तो आप मुझे अपने प्रतिनिधि के रूप में भी सेवा का मौका दीजिये। जब मैंने पहले आपको शिकायत का मौका नहीं दिया तो मैं वादा करता हूं कि में आपके प्रतिनिधि के रूप में आपकी आशाओं और आकांक्षओं पर भी अच्‍छा उतरूंगा।   
मेरे तर्क के आगे बड़े बड़ों की बोलती बंद हो गयी। वह निरुत्तर हो गए। सब ने मेरी सूझ-बूझ और अक्ल का सिक्का मान लिया। सब ने कहा की वह वोट देंगे तो केवल आपकोकिसी और को नहीं। सब एक आवाज़ से नारा लगाने लगे: ‘’हमारा नेता कैसा हो, आप जैसा हो। जीतेगा भई जीतेगा, हमारा नेता जीतेगा’’।
मैंने अपनी जनता को साफ कर दिया। जहां आदमी की जाति में हर गधा भी मुख्‍य मन्‍त्री व प्रधान मन्‍त्री बनना चाहता है, मैं आपका नेता कभी मन्‍त्री भी नहीं बनना चाहता। मुझे तो बस आपकी सेवा करनी है सच्‍चे दिल से। मेरे ऊंचे आदर्श मेरे मतदाताओं के् दिल में घर कर गये। सब को मेरे अन्‍दर छिपी महानता के दर्शन होने लगे। वह भावविभोर हो उठे। सब मानने लगे कि गधे गधे ही नहीं होते, महान् भी होते हैं।
ज्‍यों-ज्‍यों चुनाव अभियान की तिथी समीप आती गई मेरे पक्ष में समर्थन की एक आंधी सी बहने लगी। सभी मानने लगे कि उन्‍हें अपने प्रतिनिधि के रूप में शासक नहीं, सेवक चाहिये और वह केवल, और केवल मैं ही हो सकता हूं।
और मैं जीत गया भारी बहुमत से। मेरी एक भव्‍य विजय रैली निकाली गई। मेरे गले को हारों से लाद दिया गया। बैण्‍ड-बाजे के साथ मेरे से आगे मेरे समर्थक खुशी में नाच रहे थे। पर सब से आगे अपनी मस्‍ती का प्रदर्शन कर रहे थे वह जिन्‍होंने मुझे वोट नहीं दिया था। इतनी राजनीति तो मैं भी समझने लगा था।
मेरी जाति के लोग भी पीछे नहीं थे। वह भी अपनी टांगें मस्‍ती में उछाल कर व ज़ोर-ज़ोर सेरेंक कर अपनी प्रसन्‍नता प्रकट कर रहे थे। वह अपने आप को गौर्वान्वित महसूस कर रहे थे कि मैं ने उनकी जाति का नाम रौशन कर दिखाया है जो अभी तक दुनिया में कोई नहीं कर सका है।
पर यथार्थ से सामना भी मुझे जलदी ही हो गया। हर व्‍यक्ति जिसने मुझे वोट डाला था या न डाला था पूरे अधिकार के साथ एक बड़े पक्षपात के छोटे से अनुरोध के लिये आने लगा। सब अपने स्‍वार्थ, अपने निजि कार्य केलिये आते। कोई स्‍कूल खुलवाने, स्‍कूल भवन बनवाने, कालिज स्‍थापित करने, बढि़या चिकित्‍सा सुविधा उपलब्‍ध करवाने, सड़क बनवाने या परिवहन सुविधा उपलब्‍ध के लिये नहीं आता। सब को अपनी चिन्‍ता थी, समाज की नहीं। हर व्‍यक्ति अपने लिये किसी कोटे, पर्मिट या ठेके दिलवाने के लिये आता। वह रातों-रात अमीर हो जाना चाहता। कई मेरी जब भी भरना चाहते। किसी ठेके व पर्मिट दिला दिये जाने पर वह मेरा हिस्‍सा रख देने का प्रलोभन भी देते। सब मुझे धीमी आवाज़ में सलाह देते: बहती गंगा में हाथ धो लो। आज तुम हमारी मदद कर सकते हो। कल को हो सकता है कि तुम अपने लिये भी कुछ न कर सको।   
जब मैं कानून व न्‍याय की दोहाई देता तो वह कहते –- तब तो आपको अपना वोट देकर हम से ग़लती हो गई। इससे इन्‍सान ही अच्‍छे थे। वह काम तो कर देते थे।
मैं उनके इन्‍सानी व्‍यवहार से तंग आ गया। मैंने उन्‍हें कह दिया कि मुझे नहीं मालूम कि इन्‍सानों के कोई आदर्श या कानून होते हैं कि नहीं, पर मेरे अवश्‍य हैं। मैं अपने स्‍वार्थ के लिये उन्‍हें बलि पर नहीं चढ़ा सकता। मैं न इन्‍सान बन सकता हूं और न उनकी नकल ही मार सकता हूं। मैं गधा ही रहूंगा और रहना चाहता हूं चाहे मेरे सामने कितनी भी चुनौतियां क्‍यों न आयें। मुझे कितने ही प्रलोभन क्‍यों न दिये जायें। मैंने अपनी गद्दी को ज़ोर की लात मार दी पर मैंने अपने आदर्शों से समझौता नहीं किया। मैं खुशी-खुशी रेंकता और मस्‍ती में अपनी टांगें उछालता-मटकाता अपने पुराने निवास की ओर चला गया। गर्व से अपनी आवाज़ ऊंची कर कह दिया: मुझे गधा ही रहने दो, मैं इन्‍सान नहीं बनना चाहता।        
Courtesy: Hindi weekly Uday India

Thursday, February 2, 2017

हास्य-व्‍यंग आतंकी मेरे भाई, पर अब नहीं

 

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          कानोंकान नारदजी के
आतंकी मेरे भाई, पर अब नहीं
 
अभी हाल ही तक मैं अपने भाई आतंकवादियों का बहुत बड़ा फैन था। मैं समझता था कि ईश्वर ने उन्हें मुझ जैसे दीन-दुखियों,दलित, पिछड़े, व समाज द्वारा सताए व तिरस्कृत तुच्छ बंधुओं की भलाई व सेवा के लिए मृत्युलोक में अवतरित किया है। उन्हें जन-जन की सेवा के लिए मजबूर होकर ही हथियार उठाने पड़े।वह तो निस्वार्थ भाव से काम कर रहे ऐसे सेवक थे जो दूसरों के हितों के संवर्धन के लिए अपनी जान तक पर खेल जाते थे। इसमें उनका कोई अपना स्वार्थ नहीं था। उन्हों ने जनता के लिए अपने कीमती जीवन का भी बलिदान दे दिया। एक नही अनेक उदहारण हैं.
अपने इस पावन उद्देश्य की पूर्ती व प्राप्ति के लिए कई खून चूसने वाले बड़े-बड़े ज़मींदारों, ज़ालिम अफसरों, जनता के दुश्मन राजनेताओं की उन्‍हें बलि लेनी पड़ी। मैं इस में कोई बुराई नहीं देखता। आपको पता ही है कि नरबलि कर प्रचलन तो हमारे समाज में सभ्यता के उदय से ही प्रचलित है। फिर इस में बुरा भी क्या है? यदि लक्ष्य नेक हो तो साधन कैसा भी हो सकता है।
पर अब मेरी धारणा बदल गयी है। मैं देख रहा हूँ कि वह अब तो वह केवल बड़े लोगों की ही भलाई कर रहे हैं। ग़रीब तो वहीँ का वहीँ खड़ा है।
कश्मीर में आम आदमी मारा जा रहा है। इस धंधे में आतंकवादियों के कई बड़े नेता करोड़ों-अरबों में खेल रहे है जबकि उनका आमदनी का कोई साधन नहीं है। कोई काम-धंधा नहीं है। उधर बेचारे ग़रीब, अनपढ़ बच्चे हैं जिनसे पुलिस व सेना पर सारा दिन पत्थर फिंकवाए जाते हैं और उन्हें मिलता है केवल पांच सौ रुपया। ऊपर से उन्हें पुलिस के डंडे भी खाने पड़ते हैं। कई बार तो ज़ख़्मी भी हो जाते हैं।
मेरे इन तथाकथित मित्रों ने तो अब तक बड़े-बड़ों के बारे-न्यारे कर दिए हैं। ऊंचे  अफसरों को, मोटे-मोटे व्यापारियों व उद्योगपतियों को, छोटे-बड़े नेताओं और मंत्रियों को जान से मारने की धमकी देकर उन्हें सरकारी खर्च पर दर्जनों सुरक्षाकर्मी और सरकारी गाड़ियां उपलब्ध करवा दी हैं। जब वह सड़क पर निकलते हैं तो पुलिस की गाड़ियां धूं-धूं कर निकलती हैं। जान की सुरक्षा प्राप्त इन महानुभावों का खून तो अपने आप ही बढ़ जाता है। किसी टॉनिक के खाने की तो आवश्यकता ही नहीं पड़ती। वह अपने आप ही महत्‍वपूर्ण हो जाते हैं।
कई महानुभाव तो ऐसे हैं कि उनके पास अपना कोई मकान ही नहीं। यदि है तो इतना छोटा और किसी ऐसी संकरी गली में कि पुलिस ही कह देती है कि यहाँ रह कर उनकी सुरक्षा सुनिश्चित कर पाना संभव नहीं है। इस कारण तो सरकार उन्हें बड़ा सरकारी बंगला उपलब्‍ध करवा देती है।
अभी हाल ही में सरकार ने समाजवादी पार्टी के संसद व नेता अमर सिंह को जेड-प्लस की सुरक्षा उपलब्ध करवा दी। उत्तर प्रदेश में झगड़ा बाप-बेटे का और मौज लग गयी अमर सिंह जी की। इसे कहते हैं किस्मत। जब ईश्वर देता है तो छप्पड़ फाड़ कर देता है।
इसी तरह आतंकियों के सौजन्‍य से सरकार सोनियाजी की पुत्री प्रियंका गाँधी जी पर भी मेहरबान है। उन्हें भी नयी दिल्ली के एक अत्यंत  वीआईपी इलाके में सरकार ने उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने में सुविधा की दृष्टि से एक आलिशान कोठी दे रखी, ऐसे स्थान पर जहाँ सिर छुपाने के लिए जगह प्राप्त करने के सपने देखते-देखते तो कई परमात्मा को भी प्यारे हो जाते हैं। अगले जन्म में क्या होगा, यह तो ईश्वर ही जाने।
सरकार ने प्रियंका जी से इस कोठी का जब किराया माँगा तो उन्हों ने कह दिया कि वह इसका इतना बड़ा किराया वाहन करने के लिए आर्थिक रूप से सक्षम नहीं है। बात भी जायज़ है। कोठी सरकार ने आतंकियों के डर से उन्‍हें दी है। उन्‍होंने तो मांगी नहीं। यह तो सरकार ने स्वयं अपनी सुविधा के लिए दी है। तो सरकार की सहूलियत का बोझ वह क्यों उठायें? यह अलग बात है कि करोड़ो में खेलने वाले उनके पति उनके साथ इसी कोठी में रहते है। वह हिमाचल प्रदेश में शिमला में अपनी मर्ज़ी का एक बंगला भी बना रही हैं. मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार वह अब तक नए बंगले को छह-सात बार तुड़वा कर बना रही हैं क्‍योंकि अब तक जो बना वह उन्हें पसंद नहीं आया।
उधर किसी नेता, उद्यमी या अन्य की सुरक्षा का ताम-झाम तो अब स्टेटस सिम्बल भी बन गया है। एक व्‍यक्ति को सुरक्षा मिली और उसी के साथी या बराबर के व्यक्ति को नहीं मिली तो दूसरे में हीन भावना आ जाती है। उसके बच्चे ही पूछने लगते हैं कि डैडी आपको सुरक्षा क्यों नहीं मिली? क्या आपकी ज़िन्दगी सरकार के लिए कीमती नहीं है? बेचारा पिता हूँ-हाँ कर ही बात टाल देता है। और वह कर भी क्या सकता है?
एक मुसीबत और भी खड़ी हो जाती है। कई बार सरकार ही सुरक्षा प्रबंधों की समीक्षा करने लग पड़ती है। ऐसे हालात में कईयों की सुरक्षा या कम कर दी जाती है या हटा ली जाती है। इसका उनके नज़दीकी, संबंधी व परिचित यह अर्थ लगाने लगते हैं कि उसका राजनितिक व सामाजिक वज़न ही कम हो गया है। राजनीति में माना उसका महत्व ही नहीं रहा है। समाज की नज़रों में अपनी प्रतिष्ठा बरकरार रखने के लिए तब वह हाथ-पांव मारने लगता है ताकि उसकी सुरक्षा का दिखावा बना रहे। अनेकों बार वह कामयाब भी हो जाता है।
 वैसे ग़रीब आदमी की चिंता करता ही कौन है? कभी यह काम आतंकवादी अवश्‍य किया करते थे। अब उन्हों ने भी छोड़ दिया है।
सरकार से तो मुझे पहले ही आशा कम थी। पर जि़ंदगी में सब से ज्‍़यादा यदि किसी ने मायूस किया हे तो वह है मेरे जिगरी दोस्‍त आतंकियों ने। लोग चाहे उन्‍हें बुरा-भला कहते फिरते हों पर मेरे मन में उनके प्रति सदैव प्रेम, श्रद्धा व विश्‍वास का भाव रहा। पर अब यह बात पुरानी हो गई है। अब मैं भी उन्‍हें ग़रीबो का दुश्‍मन मानने लगा हूं। सच भी है। उन्‍होंने सब की मदद की बड़े-बड़े राजनीतिक नेताओं की, बड़े-बड़े नौकरशाहों की, और कुछ अपने चहेते लोगों की। इन लोगों को धमकी दे कर उनका कल्‍याण कर दिया। उन्‍हें सरकारी कोठियां व बंगले दिला दिये सरकारी खर्च पर। उनकी सुरक्षा के लिये कई सुरक्षाकर्मी तैनात करवा दिये। उनका तो नाम रौशन करवा दिया। जनता की लज़रों में उनका मान बढ़वा दिया।
पर मेरे साथ उन्‍होंने पता कौनसे जन्‍म का बदला लिया कि मुझे कोई धमकी नहीं दी। कहते हैं कि तेरे पास न कोई नाम है, न काम और न ही जेब में पैसे। तो इसका मतलब तो यह निकला कि चाहे सरकार हो या आतंकवादी सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।
ऐसा लगता है कि ग़रीब आदमी के लिए न तो सरकार है और न मेरे भाई आतंकवादी क्या ग़रीब की जान की कोई कीमत नहीं होती? अगर आतंकवादी भाई मुझे जान से मार देने की धमकी दे दें तो उनका कुछ नहीं जायेगा। हां, मुझे अवश्‍य पांच-दस आदमी और एक गाडी मेरी सुरक्षा के लिए मिल जाएगी। क्योंकि मेरे पास रहने के लिए कोई झुग्गी तक नहीं है, इस लिए सरकार को मुझे मकान भी देना ही पड़ेगा। जब सरकार मालदार सामियों को अपने घर होते हुए भी आलिशान कोठियां बढ़िया इलाक़ों में दे सकती है तो मुझे कोई छोटा सा मकान देने में उसका क्‍या चला जायेगा? मैं और मेरे सुरक्षाकर्मी भाई वहीँ इकट्ठा सो जाया करेंगे। भोजन का क्या है? जब वह पांच-दस आदमियों का खाना बनाएंगे तो मुझ एक ग़रीब के लिए खाना तो बिना और खर्च के आसानी से निकल आएगा। दोनों का काम आसानी से हो जायेगा। जब मुझे कहीं जाना होगा तो मैं उस सरकारी गाड़ी में अपने सुरक्षा कर्मियों के बीच बैठ कर कहीं भी चला जाऊंगा। न मुझे कोई अतिरिक्त व्यय करना पड़ेगा और न सरकार को। मेरे कपड़ों की समस्या भी हल हो जाएगी। पुलिस कर्मियों को समय-समय पर सरकारी वर्दी तो मिलती ही है।
मैं अपने सुरक्षाकर्मी भाइयों से उनकी पुरानी वर्दी मांग लूँगा वह आसानी से खुश होकर दे भी देंगे। पुरानी वर्दी तो उन्हीं भी फेंकनी ही है या फिर कबाड़ी को बेच देनी है। फिर इकट्ठे रह कर इतना भाईचारा तो पर पैदा हो जाना स्वाभाविक भी है उनके ही कपडे पहन लेने से तो उनका काम और भी आसान हो जायेगा। मुझे मार देने पर उतारू शत्रु जान ही न पाएंगे कि मैं कहाँ हूँ। वह समझ बैठेंगे कि उनके बीच बैठा मैं भी पुलिसकर्मी हूँ, न कि उनका निशाना मैं। सुरक्षा का काम भी आसान हो जायेगा।
पर यह काम ग़रीबों के तथाकथित मसीहा कहाँ करेंगे? और एक दिन मैं सड़क के किनारे मर जाऊँगा असुरक्षित, भूखा और प्यासा। तब आतंकवादियों की भी पोल खुल जाएगी1 सब उन्हें भी सरमायदारों का पिट्ठू मान लेंगे। वह सब नंगे हो जायेंगे। वक्‍त अभी भी नहीं गुज़रा। वह मुझे धमकी अभी भी दे सकते हैं और अपनी इज्‍़जत बचा सकते हैं। मेरा काम हो जायेगा। मैं उन्‍हें पुन: अपना और ग़रीबों का मसीहा समझने लगूंगा।***
जाते थे। इसमें उनका कोई अपना स्वार्थ नहीं था। उन्हों ने जनता के लिए अपने कीमती जीवन का भी बलिदान दे दिया। एक नही अनेक उदहारण हैं.
अपने इस पावन उद्देश्य की पूर्ती व प्राप्ति के लिए कई खून चूसने वाले बड़े-बड़े ज़मींदारों, ज़ालिम अफसरों, जनता के दुश्मन राजनेताओं की उन्‍हें बलि लेनी पड़ी। मैं इस में कोई बुराई नहीं देखता। आपको पता ही है कि नरबलि कर प्रचलन तो हमारे समाज में सभ्यता के उदय से ही प्रचलित है। फिर इस में बुरा भी क्या है? यदि लक्ष्य नेक हो तो साधन कैसा भी हो सकता है।
पर अब मेरी धारणा बदल गयी है। मैं देख रहा हूँ कि वह अब तो वह केवल बड़े लोगों की ही भलाई कर रहे हैं। ग़रीब तो वहीँ का वहीँ खड़ा है।
कश्मीर में आम आदमी मारा जा रहा है। इस धंधे में आतंकवादियों के कई बड़े नेता करोड़ों-अरबों में खेल रहे है जबकि उनका आमदनी का कोई साधन नहीं है। कोई काम-धंधा नहीं है। उधर बेचारे ग़रीब, अनपढ़ बच्चे हैं जिनसे पुलिस व सेना पर सारा दिन पत्थर फिंकवाए जाते हैं और उन्हें मिलता है केवल पांच सौ रुपया। ऊपर से उन्हें पुलिस के डंडे भी खाने पड़ते हैं। कई बार तो ज़ख़्मी भी हो जाते हैं।
मेरे इन तथाकथित मित्रों ने तो अब तक बड़े-बड़ों के बारे-न्यारे कर दिए हैं। ऊंचे  अफसरों को, मोटे-मोटे व्यापारियों व उद्योगपतियों को, छोटे-बड़े नेताओं और मंत्रियों को जान से मारने की धमकी देकर उन्हें सरकारी खर्च पर दर्जनों सुरक्षाकर्मी और सरकारी गाड़ियां उपलब्ध करवा दी हैं। जब वह सड़क पर निकलते हैं तो पुलिस की गाड़ियां धूं-धूं कर निकलती हैं। जान की सुरक्षा प्राप्त इन महानुभावों का खून तो अपने आप ही बढ़ जाता है। किसी टॉनिक के खाने की तो आवश्यकता ही नहीं पड़ती। वह अपने आप ही महत्‍वपूर्ण हो जाते हैं।
कई महानुभाव तो ऐसे हैं कि उनके पास अपना कोई मकान ही नहीं। यदि है तो इतना छोटा और किसी ऐसी संकरी गली में कि पुलिस ही कह देती है कि यहाँ रह कर उनकी सुरक्षा सुनिश्चित कर पाना संभव नहीं है। इस कारण तो सरकार उन्हें बड़ा सरकारी बंगला उपलब्‍ध करवा देती है।
अभी हाल ही में सरकार ने समाजवादी पार्टी के संसद व नेता अमर सिंह को जेड-प्लस की सुरक्षा उपलब्ध करवा दी। उत्तर प्रदेश में झगड़ा बाप-बेटे का और मौज लग गयी अमर सिंह जी की। इसे कहते हैं किस्मत। जब ईश्वर देता है तो छप्पड़ फाड़ कर देता है।
इसी तरह आतंकियों के सौजन्‍य से सरकार सोनियाजी की पुत्री प्रियंका गाँधी जी पर भी मेहरबान है। उन्हें भी नयी दिल्ली के एक अत्यंत  वीआईपी इलाके में सरकार ने उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने में सुविधा की दृष्टि से एक आलिशान कोठी दे रखी, ऐसे स्थान पर जहाँ सिर छुपाने के लिए जगह प्राप्त करने के सपने देखते-देखते तो कई परमात्मा को भी प्यारे हो जाते हैं। अगले जन्म में क्या होगा, यह तो ईश्वर ही जाने।
सरकार ने प्रियंका जी से इस कोठी का जब किराया माँगा तो उन्हों ने कह दिया कि वह इसका इतना बड़ा किराया वाहन करने के लिए आर्थिक रूप से सक्षम नहीं है। बात भी जायज़ है। कोठी सरकार ने आतंकियों के डर से उन्‍हें दी है। उन्‍होंने तो मांगी नहीं। यह तो सरकार ने स्वयं अपनी सुविधा के लिए दी है। तो सरकार की सहूलियत का बोझ वह क्यों उठायें? यह अलग बात है कि करोड़ो में खेलने वाले उनके पति उनके साथ इसी कोठी में रहते है। वह हिमाचल प्रदेश में शिमला में अपनी मर्ज़ी का एक बंगला भी बना रही हैं. मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार वह अब तक नए बंगले को छह-सात बार तुड़वा कर बना रही हैं क्‍योंकि अब तक जो बना वह उन्हें पसंद नहीं आया।
उधर किसी नेता, उद्यमी या अन्य की सुरक्षा का ताम-झाम तो अब स्टेटस सिम्बल भी बन गया है। एक व्‍यक्ति को सुरक्षा मिली और उसी के साथी या बराबर के व्यक्ति को नहीं मिली तो दूसरे में हीन भावना आ जाती है। उसके बच्चे ही पूछने लगते हैं कि डैडी आपको सुरक्षा क्यों नहीं मिली? क्या आपकी ज़िन्दगी सरकार के लिए कीमती नहीं है? बेचारा पिता हूँ-हाँ कर ही बात टाल देता है। और वह कर भी क्या सकता है?
एक मुसीबत और भी खड़ी हो जाती है। कई बार सरकार ही सुरक्षा प्रबंधों की समीक्षा करने लग पड़ती है। ऐसे हालात में कईयों की सुरक्षा या कम कर दी जाती है या हटा ली जाती है। इसका उनके नज़दीकी, संबंधी व परिचित यह अर्थ लगाने लगते हैं कि उसका राजनितिक व सामाजिक वज़न ही कम हो गया है। राजनीति में माना उसका महत्व ही नहीं रहा है। समाज की नज़रों में अपनी प्रतिष्ठा बरकरार रखने के लिए तब वह हाथ-पांव मारने लगता है ताकि उसकी सुरक्षा का दिखावा बना रहे। अनेकों बार वह कामयाब भी हो जाता है।
 वैसे ग़रीब आदमी की चिंता करता ही कौन है? कभी यह काम आतंकवादी अवश्‍य किया करते थे। अब उन्हों ने भी छोड़ दिया है।
सरकार से तो मुझे पहले ही आशा कम थी। पर जि़ंदगी में सब से ज्‍़यादा यदि किसी ने मायूस किया हे तो वह है मेरे जिगरी दोस्‍त आतंकियों ने। लोग चाहे उन्‍हें बुरा-भला कहते फिरते हों पर मेरे मन में उनके प्रति सदैव प्रेम, श्रद्धा व विश्‍वास का भाव रहा। पर अब यह बात पुरानी हो गई है। अब मैं भी उन्‍हें ग़रीबो का दुश्‍मन मानने लगा हूं। सच भी है। उन्‍होंने सब की मदद की बड़े-बड़े राजनीतिक नेताओं की, बड़े-बड़े नौकरशाहों की, और कुछ अपने चहेते लोगों की। इन लोगों को धमकी दे कर उनका कल्‍याण कर दिया। उन्‍हें सरकारी कोठियां व बंगले दिला दिये सरकारी खर्च पर। उनकी सुरक्षा के लिये कई सुरक्षाकर्मी तैनात करवा दिये। उनका तो नाम रौशन करवा दिया। जनता की लज़रों में उनका मान बढ़वा दिया।
पर मेरे साथ उन्‍होंने पता कौनसे जन्‍म का बदला लिया कि मुझे कोई धमकी नहीं दी। कहते हैं कि तेरे पास न कोई नाम है, न काम और न ही जेब में पैसे। तो इसका मतलब तो यह निकला कि चाहे सरकार हो या आतंकवादी सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।
ऐसा लगता है कि ग़रीब आदमी के लिए न तो सरकार है और न मेरे भाई आतंकवादी क्या ग़रीब की जान की कोई कीमत नहीं होती? अगर आतंकवादी भाई मुझे जान से मार देने की धमकी दे दें तो उनका कुछ नहीं जायेगा। हां, मुझे अवश्‍य पांच-दस आदमी और एक गाडी मेरी सुरक्षा के लिए मिल जाएगी। क्योंकि मेरे पास रहने के लिए कोई झुग्गी तक नहीं है, इस लिए सरकार को मुझे मकान भी देना ही पड़ेगा। जब सरकार मालदार सामियों को अपने घर होते हुए भी आलिशान कोठियां बढ़िया इलाक़ों में दे सकती है तो मुझे कोई छोटा सा मकान देने में उसका क्‍या चला जायेगा? मैं और मेरे सुरक्षाकर्मी भाई वहीँ इकट्ठा सो जाया करेंगे। भोजन का क्या है? जब वह पांच-दस आदमियों का खाना बनाएंगे तो मुझ एक ग़रीब के लिए खाना तो बिना और खर्च के आसानी से निकल आएगा। दोनों का काम आसानी से हो जायेगा। जब मुझे कहीं जाना होगा तो मैं उस सरकारी गाड़ी में अपने सुरक्षा कर्मियों के बीच बैठ कर कहीं भी चला जाऊंगा। न मुझे कोई अतिरिक्त व्यय करना पड़ेगा और न सरकार को। मेरे कपड़ों की समस्या भी हल हो जाएगी। पुलिस कर्मियों को समय-समय पर सरकारी वर्दी तो मिलती ही है।
मैं अपने सुरक्षाकर्मी भाइयों से उनकी पुरानी वर्दी मांग लूँगा वह आसानी से खुश होकर दे भी देंगे। पुरानी वर्दी तो उन्हीं भी फेंकनी ही है या फिर कबाड़ी को बेच देनी है। फिर इकट्ठे रह कर इतना भाईचारा तो पर पैदा हो जाना स्वाभाविक भी है उनके ही कपडे पहन लेने से तो उनका काम और भी आसान हो जायेगा। मुझे मार देने पर उतारू शत्रु जान ही न पाएंगे कि मैं कहाँ हूँ। वह समझ बैठेंगे कि उनके बीच बैठा मैं भी पुलिसकर्मी हूँ, न कि उनका निशाना मैं। सुरक्षा का काम भी आसान हो जायेगा।
पर यह काम ग़रीबों के तथाकथित मसीहा कहाँ करेंगे? और एक दिन मैं सड़क के किनारे मर जाऊँगा असुरक्षित, भूखा और प्यासा। तब आतंकवादियों की भी पोल खुल जाएगी1 सब उन्हें भी सरमायदारों का पिट्ठू मान लेंगे। वह सब नंगे हो जायेंगे। वक्‍त अभी भी नहीं गुज़रा। वह मुझे धमकी अभी भी दे सकते हैं और अपनी इज्‍़जत बचा सकते हैं। मेरा काम हो जायेगा। मैं उन्‍हें पुन: अपना और ग़रीबों का मसीहा समझने लगूंगा।***


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