हास्य-व्यंग
कानोंकान नारदजी के
मैं गधा ही ठीक हूं, मुझे इन्सान नहीं बनना
जी हां, मैं गधा हूं। मनुष्य का साथी। उसका दायां हाथ। मैं उसके बहुत काम आता हूं। यदि मैं न होता, मनुष्य का बोझा न ढोता तो आज आदमी इतनी तरक्की कर लेने की डींग नहीं मार सकता था। महल मेरी पीठ के सहारे ही तो बन पाये हैं। मैं न होता तो ताजमहल कहां बन सकता था। बड़े-बड़े कारखानों को बनाने वाला ही मैं हूं। मेरे बिना तो मानव का विकास ही सम्भव न था। मानव समाज में मैं अपना महत्व समझता हूं। मानव भी इसे नकार नहीं सकता। वह सदा ऋणी रहेगा मेरा। मेरी महानता की ही स्वीकारोक्ति है कि आदमी भी कई बार अपने भाईयों को गधा कह देने लायक समझता है चाहे वह इस काबिल हो या न हो।
आदमी और गधे का रिश्ता बहुत प्राचीन है। इतना प्राचीन जितनी कि हमारी सभ्यता। मेरे विचार में तो इन्सान और गधा लगभग एक साथ ही धर्ती पर प्रकट हुये थे। गधा और इन्सान एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधी या प्रतिद्वन्दी नहीं। मैं भी जानवर हूं और आदमी भी। सब मानते हैं कि आदमी एक सामाजिक प्राणी है।
पिछले चुनाव में मैंने भी चुनाव लड़ने की सोची। मेरे विचार में मैं आदमी का सब से बड़ा सेवक हूं। हमारे नेता भी कहते हैं कि वह जनता के सेवक हैं। मैं भी तो आदमी का कम सेवक नहीं हूं। इस लिये मैं ने सोचा कि क्यों न उनका एक प्रतिनिधि सेवक ही बन जाऊं? मैंने आदमी की समस्याओं को सदैव अपनी पीठ पर ढोया है। मैं उनका प्रतिनिधि बन कर भी यही करूंगा। उनकी समरस्याओं को अपनी पीठ पर उठा कर कूड़े-कचरे की तरह इतनी दूर फैंक आऊंगा कि वह कभी दोबारा आ ही न सकें।
कई पार्टियां मुझे अपना उम्मीदवार भी बनाने को तैय्यार हो गई। पर मैंने कहा कि मैं स्वतन्त्र रह कर ही आप सबकी सेवा करना चाहता हूं। पर मेरे विरोधी मेरी लोकप्रियता से घबरा गये। वह मुझे चुनाव न लड़ने देने केलिये ओछे हथकण्डे अपनाने लगे। जब मैं अपना नामांकन भरने गया तो उन्होंने चुनाव अधिकारी के सामने अपना विरोधपत्र दाखिल कर दिया। कहा कि एक गधा चुनाव नहीं लड़ सकता। प्रत्युत्तर में मैंने तर्क दिया कि मैं और आदमी एक समान हैं। हम दोनों ही सामाजिक प्राणी हैं और इस कारण प्राणी-प्राणी में भेदभाव नहीं किया जा सकता। यह तो जानवर अधिकारों का भी हनन होगा। उनके प्रति करूरता होगी। चुनाव अधिकारी घबरा गया। उसे लगा कि यदि उस पर यह आरोप लगा कि वह भेदभाव कर रहा है और उन पर अत्याचार कर रहा है तो उसकी नौकरी ही खतरे में नहीं पड़ेगी बल्कि जानवरों पर अत्याचार निरोधक कानून के अन्दर सज़ा भी भुगतनी पड़ सकती है। उसने आदमियों के विरोध को खारिज कर दिया।
अब बात अड़ गई चुनाव निशान को ले कर। पार्टी प्रत्याशियों को तो अपने-अपने निशान मिल गये पर मेरे लिये खड़ी हो गई समस्या। मुझे कहा गया कि मैं बकरी, घोड़ा, मोर, लालटैन, घड़ी आदि में से कोई भी चुनाव निशान पसन्द कर लूं। कोई भी चुनाव निशान मेरे अलग व्यक्तित्व से मेल नहीं खाता था। जब मैं गधा हूं तो मैं अपना चुनाव निशान घोड़ा क्यों लूं भला। मैं ने अधिकारी से विनम्र प्रार्थना की कि मुझे चुनाव निशान गधा ही दिया जाये। अधिकारी ने कहा कि यह चुनाव निशान है ही नहीं। किसी ने कभी मांगा ही नहीं। मैंने उन्हें सहज भाव से समझाया कि मेरे व्यक्तित्व से कोई भी चुनाव निशान मेल नहीं खाता। इस लिये मेरी याचना को स्वीकार कर लिया जाये। वह मुझ पर मेहरबान हो गये और मुझे मेरा मुंह मांगा चुनाव निशान मिल गया।
बस फिर क्या था? मैं अपने चुनाव अभियान पर उतर पड़ा। मैंने एक पटिका बनवाई जिस पर लिखवाया "’देश-प्रदेश के गौरव के लिये अपना कीमती वोट अपने सच्चे-पक्के दोस्त को ही दें’’। उसे मैंने अपने गले मैं टांग लिया। मैं अपने चुना क्ष्रेत्र के हर कोने, हर कूचे और हर किनारे घूमा और वोट मांगे सब जगह मुझे समर्थन का वादा मिला। मैं उस जगह भी अपनी टांगों पर ही पहुँच गया जहाँ मेरे प्रतिद्वंदी अपने हेलीकाप्टर व् मर्सिडीज़ मैं भी नहीं पहुँच सके।
कई मतदाताओं ने प्रश्न खड़ा किया: "हम तुम्हें क्यों वोट दें जब हमारे अनेक इंसान भाई चुनाव मैदान में हैं?"
मैंने उलटे उनसे ही पूछ मारा: "बताओ, मुझ से ज़्यादा किसी ने आपकी सेवा की है?"
उनके पास कोई उत्तर न था।
फिर मैं ने उनसे आगे कहा: "वह व्यक्ति अपना हाथ खड़ा करें जो ज़िन्दगी में किसी का गधा नहीं बना । वह भी अपना हाथ खड़ा करें जिस ने किसी को गधा न बनाया हो। या जिसने किसी दूसरे को गधा नहीं कहा हो। वह भी बताएं जिन्हों ने किसी भी रूप में अपनी ज़िन्दगी में गधे की सेवाओं का लाभ नहीं उठाये हो।
मैंने आगे तर्क दिया। जब मैंने एक जानवर के रूप में आपकी पूरी सेवा की तो आप मुझे अपने प्रतिनिधि के रूप में भी सेवा का मौका दीजिये। जब मैंने पहले आपको शिकायत का मौका नहीं दिया तो मैं वादा करता हूं कि में आपके प्रतिनिधि के रूप में आपकी आशाओं और आकांक्षओं पर भी अच्छा उतरूंगा।
मेरे तर्क के आगे बड़े बड़ों की बोलती बंद हो गयी। वह निरुत्तर हो गए। सब ने मेरी सूझ-बूझ और अक्ल का सिक्का मान लिया। सब ने कहा की वह वोट देंगे तो केवल आपको, किसी और को नहीं। सब एक आवाज़ से नारा लगाने लगे: ‘’हमारा नेता कैसा हो, आप जैसा हो। जीतेगा भई जीतेगा, हमारा नेता जीतेगा’’।
मैंने अपनी जनता को साफ कर दिया। जहां आदमी की जाति में हर गधा भी मुख्य मन्त्री व प्रधान मन्त्री बनना चाहता है, मैं आपका नेता कभी मन्त्री भी नहीं बनना चाहता। मुझे तो बस आपकी सेवा करनी है सच्चे दिल से। मेरे ऊंचे आदर्श मेरे मतदाताओं के् दिल में घर कर गये। सब को मेरे अन्दर छिपी महानता के दर्शन होने लगे। वह भावविभोर हो उठे। सब मानने लगे कि गधे गधे ही नहीं होते, महान् भी होते हैं।
ज्यों-ज्यों चुनाव अभियान की तिथी समीप आती गई मेरे पक्ष में समर्थन की एक आंधी सी बहने लगी। सभी मानने लगे कि उन्हें अपने प्रतिनिधि के रूप में शासक नहीं, सेवक चाहिये और वह केवल, और केवल मैं ही हो सकता हूं।
और मैं जीत गया भारी बहुमत से। मेरी एक भव्य विजय रैली निकाली गई। मेरे गले को हारों से लाद दिया गया। बैण्ड-बाजे के साथ मेरे से आगे मेरे समर्थक खुशी में नाच रहे थे। पर सब से आगे अपनी मस्ती का प्रदर्शन कर रहे थे वह जिन्होंने मुझे वोट नहीं दिया था। इतनी राजनीति तो मैं भी समझने लगा था।
मेरी जाति के लोग भी पीछे नहीं थे। वह भी अपनी टांगें मस्ती में उछाल कर व ज़ोर-ज़ोर सेरेंक कर अपनी प्रसन्नता प्रकट कर रहे थे। वह अपने आप को गौर्वान्वित महसूस कर रहे थे कि मैं ने उनकी जाति का नाम रौशन कर दिखाया है जो अभी तक दुनिया में कोई नहीं कर सका है।
पर यथार्थ से सामना भी मुझे जलदी ही हो गया। हर व्यक्ति जिसने मुझे वोट डाला था या न डाला था पूरे अधिकार के साथ एक बड़े पक्षपात के छोटे से अनुरोध के लिये आने लगा। सब अपने स्वार्थ, अपने निजि कार्य केलिये आते। कोई स्कूल खुलवाने, स्कूल भवन बनवाने, कालिज स्थापित करने, बढि़या चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाने, सड़क बनवाने या परिवहन सुविधा उपलब्ध के लिये नहीं आता। सब को अपनी चिन्ता थी, समाज की नहीं। हर व्यक्ति अपने लिये किसी कोटे, पर्मिट या ठेके दिलवाने के लिये आता। वह रातों-रात अमीर हो जाना चाहता। कई मेरी जब भी भरना चाहते। किसी ठेके व पर्मिट दिला दिये जाने पर वह मेरा हिस्सा रख देने का प्रलोभन भी देते। सब मुझे धीमी आवाज़ में सलाह देते: बहती गंगा में हाथ धो लो। आज तुम हमारी मदद कर सकते हो। कल को हो सकता है कि तुम अपने लिये भी कुछ न कर सको।
जब मैं कानून व न्याय की दोहाई देता तो वह कहते –- तब तो आपको अपना वोट देकर हम से ग़लती हो गई। इससे इन्सान ही अच्छे थे। वह काम तो कर देते थे।
मैं उनके इन्सानी व्यवहार से तंग आ गया। मैंने उन्हें कह दिया कि मुझे नहीं मालूम कि इन्सानों के कोई आदर्श या कानून होते हैं कि नहीं, पर मेरे अवश्य हैं। मैं अपने स्वार्थ के लिये उन्हें बलि पर नहीं चढ़ा सकता। मैं न इन्सान बन सकता हूं और न उनकी नकल ही मार सकता हूं। मैं गधा ही रहूंगा और रहना चाहता हूं चाहे मेरे सामने कितनी भी चुनौतियां क्यों न आयें। मुझे कितने ही प्रलोभन क्यों न दिये जायें। मैंने अपनी गद्दी को ज़ोर की लात मार दी पर मैंने अपने आदर्शों से समझौता नहीं किया। मैं खुशी-खुशी रेंकता और मस्ती में अपनी टांगें उछालता-मटकाता अपने पुराने निवास की ओर चला गया। गर्व से अपनी आवाज़ ऊंची कर कह दिया: मुझे गधा ही रहने दो, मैं इन्सान नहीं बनना चाहता।
Courtesy: Hindi weekly Uday India