Wednesday, January 18, 2017

सांस्‍कृतिक उत्‍थान तो हुआ है अवश्‍य

हास्‍य-व्‍यंग
        कानोंकान नारदजी के
सांस्‍कृतिक उत्‍थान तो हुआ है अवश्‍य

भारत के स्वतंत्र होने के बाद किस क्षेत्र में विकास हुआ और किस में नहींइस पर तो दो राय हो सकती हैं। पर जहाँ तक सांस्कृतिक विकास का सवाल है उसमें तो हम एक मत हैं कि इस क्षेत्र में विकास अद्भुत हुआ है।
अब पिता व माताजी कहाँ हैंअब तो बस डैडी या डैड और मम्मी या मॉम बनकर रह गए हैं। हांकुछ दकियानूस अभी भी डैडीजी और मम्मीजी कह देते हैं। कुछ लोग तो मॉम या डैड ही कहते हैं। और कहना भी चाहिए। हमें अपनी 18 वीं सदी वाली मानसिकता तो छोड़नी ही होगी यदि हमें 21वीं सदी में रहना है तो।
वैसे भी देखा जाये तो हम जब अपने माता-पिता को मॉम या डैड कहते हैं तो ऐसे लगता है कि हम किसी दूसरे से नहीं अपने किसी आत्मीय से बात कर रहे है बराबरी की धरातल पर। आजकल के समाजशास्त्री तो कहते ही हैं कि परिवार में छोटे-बड़े का भेदभाव न रख समानता का व्यवहार होना चाहिए। माता-पिता और बेटा-बेटी व पति-पत्नी के  बीच दोस्ती और बराबरी का भाव होना चाहिए। फिर हमारा गणतंत्र भी तो समाजवादी है जिस में न ऊंच-नीच के लिए कोई स्थान हैऔर न कोई बड़ा-छोटा होता है। सब बराबर होते हैं 
अब तो लंबे-चौड़े रिश्ते भी खत्म हो रहे हैं — सास-ससुरभाई-भाबीसाला -सालीचाचा-चाची,ताया-ताईमामा-मामीमौसा-मौसीफूफा-फूफी और पता नहीं क्या-क्या। अब तो बस सब सूक्षम हो गया है — फादर-इन-लॉमदर-इन-लॉब्रदर-इन-लॉसिस्टर-इन-लॉऔर अंकल व आंटी। भला हो परिवार-नियोजन का, अब तो ताया-ताईचाचा-चाचीमामा-मामीमौसा-मौसीफूफा-फूफी आदि बहुत सारे रिश्ते तो अपने-आप ही लुप्त होते जा रहे हैं।                     
अब तो एक ही रिश्ता बचा है — अंकल व आंटी का।  आप किसी को भी अपना अंकल या आंटी बना सकते हैं। पर दूसरेविशेषकर जब वह महिला होकी उम्र का अवश्य ध्यान रखें। कहीं ऐसा न हो कि आप अपनी बराबर या थोड़ी बड़ी महिला को आंटी पुकार दें। तब आपको लेने के देने पड़ सकते हैं। वह चिल्ला कर पूछ सकती है कि क्या मैं तुम्हें आंटी लगती हूँ?और यदि कोई ज़्यादा गर्म मिजाज़ निकली तो सैंडल भी उठा सकती है। इसलिये सावधानी वर्तना वैधानिक चेतावनी है। महिला यदि आपकी माताजी की उम्र की भी हो और आप उसे सिस्टर कह दें तो कोई बात नहीं, पर किसी को आंटी कहना आपके लिए कभी खतरे का कारण बन सकता है। 
आपकी चाहे कितनी भी बहिनें होंपर आपको उस महिला को अपनी बहिन बनाने में लाभ ही लाभ है, विशेषकर उसको जिसका पति कोई बड़ा अफसर या मंत्री-मुख्य मंत्री हो और जिस से आपको अक्सर काम पड़ता रहता हो।  तब आपकी चारों उंगलियां घी में होंगी। आपको उस अफसर या मंत्री के चक्कर काटने की आवश्यकता नहीं रहेगी। आप अपनी बहिन के साथ उस के घर पर गप्पें लड़ाएंगे और आपके साला साहिब शाम को घर आती बार आपका काम कर अपनी बीवी की वाह-वाह पाने के लिए आतुर होंगे।  आप तो सब जानते ही हैं कि जोरू का भाई एक तरफसारी खुदाई एक तरफ।
अंकल एक ऐसा रिश्‍ता है जो सार्वभौमिक भी है और सवर्व्‍यापक भी। जिसके साथ आपका कोई रिश्‍ता नहीं वह आपका अंकल या आंटी है। एक फिल्‍म थी जिसमें नायिका एक व्‍यक्ति के बारे अपने दो-तीन साल के बच्‍चे को बताती है कि वह हमारा दुश्‍मन है। दूसरे दिन जब वह व्‍यक्ति मिलता है तो बच्‍चा उसे दुश्‍मन अंकल कह कर पुकारता है। इसी प्रकार फिल्‍म में एक महिला अपने छोटे बच्‍चे को समझाती है कि वह व्‍यकित एक बदमाश है। बाद में बच्‍चा उसे पुकारता है, ‘’हैलो, बदमाश अंकल’’।
बात भी ठीक है। परिवार व समाज में झगड़ा तभी होता है जब हम एक दूसरे पर रौब जताने लगते हैं।  मियां-बीवी में तकरार ही तब होता है जब हम आपसी प्यार की दोहाई देकर एक-दूसरे के प्रति अधिकार ज़माने लगते हैं।  असल में मियां-बीवी में प्यार की बात करना ही दकियानूसी है। उनके बीच प्यार नहीं दोस्ती होनी चाहिए। वस्तुतः प्यार ही सारे झगडे की जड़ है। यही कारण है कि आजकल लोग शादी-विवाह के चक्कर में न पड़कर लिव-इन-रेलशनशिप में रहना अधिक पसंद करने लगे हैं। प्यार का कोई झंझट ही नहीं। दोस्ती का भाव उनके रेलशनशिप को बांधे रखता है। जब दोस्ती की डोर ढीली हो जाये तो अपना-अपना रास्ता अलग।  न कोर्ट-कुचहरी जाने की ज़रूरत और न तलाक की। यही तो है आधुनिक और उदार भाव की ब्यूटी।
वैसे रिश्तों में रखा भी क्या हैसाहिर लुधियानवी ने अपने एक फिल्मी गाने में ठीक ही तो लिखा है: रिश्ते-नातेप्यार-वफ़ासब बातें हैंबातों का क्याअब तो हमारा समाज तो इतना उदार होता जा रहा है कि कुछ लोग तो अपनी बेटियोंबहनोंभतीजियोंऔर अन्य नज़दीकी रिश्तेदार महिलाओं व बच्चियों से शारीरिक रिश्ते स्थापित करने लग पड़े हैं। यदि इस बात पर आपको शर्म आ जाये तो आप कल्चर्ड नहीं मॉडर्न नहीं।
रिश्तों की बात छोडो। हम और क्षेत्रों में भी पीछे नहीं। बहुत तरक्की हो चुकी है। अब तो कोई जानता ही नहीं कि गाँव या शहर में कभी कोई हलवाईपानवाईनाईपंसारीललारीलुहार,सुनारमोचीकपड़ेवालाभी होता था। अब है तो बस स्वीटशॉपपानशॉपहेयरड्रेसर्स (और पता नहीं क्या-क्या नाम हो गए हैं?), प्रोविजन स्टोर्सडेली नीड शॉप्सजनरल स्टोर्सडायर्स,ड्राईकलीनरज़ज्यूलर्जटेलर्स, शू-मेकर्सक्लॉथ हाउसेज़और  क्या-क्या। यदि आप किसी को पूछ लें कि नाई  की दुकान कहाँ हैतो वह आपकी ओर बड़ी हैरानी से देखेगा और समझ बैठेगा कि आप देश के किसी सब से पिछड़े कोने से आये हैं। हाँसिर्फ बचे हैं तो ढाबे।  उनका नाम नहीं बदला। वह भी इस लिए कि वह उसे होटल या रेस्तोरां बना दें तो उन्हें टैक्स देना पड़ेगा।
खाने के मामले में तो हम बहुत ही सभ्य हो गए हैं। अब तो घर की मुर्गी दाल बराबर’ वाली कहावत सच होती जा रही है । घर में बनी स्वाद से स्वाद चीज़ भी हमें अच्छी नहीं लगती।  हम अक्सर तारीफ़ करते हैं तो ढाबे या किसी ऊंचे होटल में बनी और खाई किसी दाल-सब्ज़ी की। यही कारण है कि माँ द्वारा घर में बनाई कोई चीज़ बच्चों को कम पसंद आती है और बाहर की फ़ास्ट फ़ूड ही सब से प्यारी व स्वाद लगती है। जंक फ़ूड के तो कहने ही क्या।           
आपके घर में आपकी पत्नी ने कोई पनीर की सब्ज़ी या चिकन कितना ही बढ़िया व स्वाद बनाया हो और आप उसकी तारीफ़ करते न थकें पर आप दूसरे दिन उसी को नहीं खाना चाहेंगे। न ही आप अपनी पत्नि को कहेंगे कि कल फिर ऐसी ही स्‍वाद वही सब्‍ज़ी बनाना। पर पीज़ा, मैगी, और दूसरे पकवानों में पता नहीं क्‍या नशा है कि आजकी जनरेशन को सुबह भी खिलाओ, दोपहर को भी और रात को भी, वह कभी ना न करेंगे।
पहले हम प्रात: नाश्‍ता करते थे, दोपहर व रात को भोजन करते थे। अब हम इ्रेकफास्‍ट, लंच और डिनर करते हैं। एक बार एक व्‍यक्ति ने प्रात: अपने दोस्‍त को फोन कर पूछा, ‘’क्‍या कर रहे हो?’’ उसने कहा, ‘’डिनर कर रहा हूं’’। हैरान होकर उस व्‍यक्ति ने पूछा, ‘’यार प्रात: डिनर?’’ उसने समझाया, ‘’हां भई, रात डिनर का बचा खाना’’।
इसी प्रकार एक और सिविलाइज्‍़ड दोपहर के समय एक रैस्‍तरां में गया तो वेटर ने पूछा, ‘’क्‍या खायेंगे?’’ उसने उत्‍तर दिया, ‘’डिनर’’। वेटर हैरान हो गया, ‘’सॉब, दोपहर के समय डिनर?’’ ग्राहक ने समझाया, ‘’तुमने बाहर लिख कर रखा है कि यहां ब्रेकफास्‍ट, लंच, डिनर सब मिलता है तो मैं डिनर लेना चाहता हूं।‘’ वैसे हमारे लंच और डिनर में अन्‍तर क्‍या है, यह भी समझ से बाहर है। पकवान तो एक ही होते हैं। 
बच्‍चे आजकल ‘हाय’ कहकर ही सबको दुआ-सलाम कर लेते हैं। पांव छूना तो अब अनकल्‍चर्ड बन गया है। फिर भी कई बड़ों पर इतनी मेहरबानी अवश्‍य कर बैठते हैं कि झुक कर घुटने तक हाथ लगा देते हैं।
नृत्‍य तो हमारी संस्‍कृति का एक अभिन्‍न अंग तो था ही पर वह किसी विशेष पर्व या समय तक ही सीमित होता था। अब तो बिन बात पर भी नाच हो जाता है। व्‍याह-शादी पर तो होता ही है, अब तो बच्‍चे के जन्‍म पर, धार्मिक आयोजनों और यहां तक कि विरोध प्रदशर्नों में भी नाच एक अभिन्‍न अंग बनता जा रहा है। हां, हमारी संस्‍कृति अभी इतनी विकसित नहीं हुई कि शवयात्रा के समय भी ढोल बजें और नृत्‍य हो।
पुरानी रूढ़ीवादी संस्‍कृति में लोग जल्‍दी सो जाते थे और प्रात: जल्‍दी उठ जाते थे। केवल चोर-उचक्‍के, डकैत व व्‍यभिचारी ही थे जो रात को जाग कर अपना काम करते थे। पर अब समय बदल गया है। अब तो वह अपना ध्‍येय दिन के उजाले में भी पूरा कर लेते हैं। हां, बड़े शहरों के समाज का एक हिस्‍सा अवश्‍य कल्‍चर्ड होता जा रहा है। वहां नाइट अब  रंगीन हो गयी है। अब तो दिन को काम और रात को नाइट लाईफ में मौज-मस्‍ती का आलम रहता है।   
जनाब, भारतीय संस्‍कृति के उत्‍थान के किस्‍से कहां तक ब्‍यान करें? किताबे लिखनी पड़ेंगी। फिलहाल इतना ही काफी है।               ***
Courtesy: Weekly Uday India Hindi