हास्य-व्यंग
कानोंकान नारदजी के
शुभकामनाओं के ढेर के नीचे दबी मेरी किस्मत
मैं एक बड़ा नेता हूं।
इसमें कोई शक नहीं। लोग मुझे 'नेताजी' के नाम से जानते हैं। यह तो सब को पता है कि
इस सम्मानित सम्बोधन से केवल नेताजी सुभाष चन्द्रजी को ही जाना जाता है। पर अब
मेरे सहयोगी, समर्थक व शुभचिन्तक मुझे नेताजी ही कहते हैं। यही अब मेरी पहचान बन
गई है। मैं भी इसे जनता के प्यार व सम्मान के रूप में स्वीकार करता हूं।
यह सब बिना कारण भी नहीं है।
मैं राजनीति में नहीं, राजनीति मुझ में पैदा हुई थी। बहुत बड़े-बड़े नेताओं की तरह
मैं भी राजनीति में एक नेता की तरह ही अवतरित हुआ था। पार्टी में कार्यकर्ताओं ने
काम किया। अपनी ऐड़ी-चोटी घिसा दी। पार्टी को बड़ा लाभ हुआ। नाम मुझे मिला। श्रेय
मुझे ही गया क्योंकि नेता तो मैं ही था। इसमें हैरानी की भी कोई बात नहीं। सब
जानते हैं कि लड़ाई लड़ता तो जवान है पर विजय का सेहरा बंधता है जनरल के सिर पर ही।
आखिर राजनीति भी तो एक युद्धही है अपने विरोधियों के विरूद्ध। नेता जनरल होता है
और कार्यकर्ता सिपाही। कार्यकर्ता का कर्तव्य है राजनीति के मैदान में जी-जान से
लड़ना, संघर्ष करना जनता के लिये और राजनीतिक लाभ प्राप्त करना पार्टी के लिये।
पर उसके लिये जनरल तो चाहिये। उनको मार्गदर्शन देते हैं मुझ जैसे नेता।
जब चुनाव का समय आया तो पार्टी
ने टिकट मुझे ही दिया, किसी पुराने कार्यकर्ता को नहीं। किसी और को मिलता भी कैसे? पार्टी को चुनाव में चाहिये एक नेता न कि
कार्यकर्ता क्योंकि चुनाव भी तो एक लड़ाई ही है — राजनीतिक जिसमें चुनाव तो लड़ना
है कार्यकर्ता को और जीतना है नेता (प्रत्याशी) को।
मेरे विरोधियों ने तो यहां
तक कह दिया कि मुझे टिकट मिला नहीं, मैंने खरीदा है। जब मैं जीत गया तो उन्होंने
कहा कि मैं बाहुबल व धन बल से जीता हूं। असल में मेरे विरोधी मेरी जीत पचा नहीं
पाये। उन बेचारों को यह नहीं पता कि जीतता है प्रत्याशी और हारती है पार्टी।
मेरा तो स्टैंड बड़ा स्पष्ट
है। मैं जीत गया केवल इसलिये कि जनता में मेरी छवि स्वच्छ है और मैं सब से अधिक लोकप्रिय
हूं। मेरे विरोधियों ने तो मुझे हराने में कोई कसर न रखी। उन्होंने पूरा ज़ोर
लगाया। मेरे विरूद्ध काम भी किया, प्रचार भी किया, धन भी पानी की तरह बहाया। पर
मेरी लोकप्रियता की तोप के आगे उनके सब पटाखे फुस्स हो गये। मैं फिर भी जीत गया।
मैं चुनाव ही नहीं जीता,
मुझ पर पार्टी व नेता इतने प्रसन्न हुये कि उन्होंने मुझे मन्त्री भी बना
दिया। इस दीपावली पर मुझे इतने वधाई और
शुभकामना सन्देश मिले कि मैं तो उनको निहारने व उन पर नज़र डालने में ही थक जाता
था। मुझे नींद आ जाती था। स्वप्न में भी मुझे बधाई सन्देश और मिठाइयां व उपहार
ही दिखाई देते थे। इस पावन अवसर पर मुझे भेंट देने वालों की तो मेरे घर लम्बी
लाइनें ही लग गईं थी। मुझे तो यह समझ न आये कि लोगों ने यह कैसे समझ लिया कि मैं
इतना पेटू हूं कि मैं और मेरा परिवार अकेले ही उनके द्वारा दी गई मिठाई गटक जायेगा।
कुछ डिब्बे तो मैंने अपने स्टाफ में भी बांटे। जिसने मुझे मिठाई व उपहार दिये
मुझे तो उन सब का नाम याद रख पाना भी मुश्किल हो गया। जो मिठाई मुझे अच्छी लगी
वह मैंने सम्भाल कर रख ली और बाकी के डिब्बे खोलकर मैंने अपने प्रशंसकों में
बांटने शुरू कर दिये। पर वह इतने थे कि सड़ने लगे। तब मुझे ग़रीबों की याद आई जिन्होंने
मुझे जिताया था। मैंने वह डब्बे उनको बांट दिये। सभी को धन्यवाद देना भी मुझे
दूभर काम लग रहा था।
अभी मैं उनके उत्तर भी न दे
पाया था कि भगवान् यीशु मसीह का पावन जन्म दिवस आ गया। शुभाकानाओं और उपहारों का
दौर चलता रहा। शुभकामनाओं का सिलसिला नव वर्ष के हफता-दस दिन तक चलता रहा। जो लोग
दीपावलि पर आये थे वह क्रिसमस व नव वर्ष के शुभ अवसर पर नये उपहारों के साथ फिर
हाजि़र हो गये। उपहारों को तो मैं एक खाली कमरे में रखवाता रहा ताकि अपने व्यस्त
बहुमूल्य समय से कुछ क्षण निकालकर देख व याद कर पाऊं कि किसने क्या दिया है।
भला हो हमारे शासक
अ्ंग्रेज़ों का जो सात समुन्दर पार कर आकर हम में यह नई व अच्छी परम्परायें डाल
गये। वरन् हमारे पास क्या था? हमारे
पास त्यौहार व पर्व तो अनेकों थे पर कोई उपहार ले कर नहीं आता था। उल्टा कहते थे
कि मैं ने भी ब्रत रखा है और तू भी रख ले। अगर उन्हें पता चल जाये कि हमने ब्रत
नहीं रखा तो वह हमें हीन समझने लगते थे। अंग्रेज़ व पाष्चात्य सभ्यता की ही यह
महान् देन है कि आज हम भी खाने-पीने लगे हैं। मौज-मस्ती करना सीख गये हैं। हमारी
सभ्यता ने तो हमें भूखे ही मार रखा था।
उनके नव वर्ष
और हमारे नव वर्ष का क्या मुकाबला। चैत्र नवरात्रों से हमारा नव वर्ष शुरू होता
है। नव वर्ष नहीं भूखे रहने का पर्व शुरू हो जाता है। कोई कहता है कि पूरे 8-9 दिन
ब्रत रखो तो कोई कहता है कि कम से कम 2-3 तो अवश्य रखो। पर अंग्रेज़ी नव वर्ष
धूम-धड़ाके से आता है। खूब खाओ। इतना पियो कि तुम अपने सारे ग़म भूल जाओ। नाचना
नहीं भी आता तो भी आप के पांव अपने आप ही थिरकने लगते हैं। किसी क्लब-होटल में
चले जाओ। जिसके साथ चाहो जाम टकरा लो। जिसके साथ चाहो डांस कर लो — किसी
जवान-बूढ़े के साथ, किसी की बीवी, बहू और बेटी के साथ। सब खुश होते हैं, गर्व
वहसूस करते हैं। हमारे तो आलम ही उलटा है। अपनी बीवी भी डांस करने को तैय्यार नहीं
होती। प्रेमिका को कहो तो वह भी मना कर देती है यह कह कर कि सब देख लेंगे।
इस नव वर्ष की
पूर्वसंध्या पर मेरा एक प्रशंसक मुझे एक पांच सितारा होटल ले गया। कहने लगा कि
नये वर्ष का स्वागत हम खूब धूमधाम से करेंगे। जैसा अच्छा नव वर्ष का प्रथम पल
होगा, सारा वर्ष भी वैसा ही सुखी व शुभ गुज़रेगा। मैं कहता रहा कि मैं पांच सितारा
कल्चर से दूर रहना चाहता हूं। पर उसने बड़ा ज़ोर दिया। उसके प्यार के आगे, उसके
इसरार के आगे मैं भी झुक गया।
होटल में
मैंने बढि़या खाया और पिया — वह भी जो पहले कभी मैंने छुआ तक न था। मुझे सरूर सा आ
गया। बड़े प्यार से वह मुझे डांस फलोर तक खींच कर ले गया। मुझे पता नहीं कि मैं
कैसे डांस करने लगा। मैं तो जि़न्दगी में कभी नाचा नहीं था — अपनी शादी में भी
नहीं, अपनी बीवी के इशारे पर भी नहीं। मैं किसके साथ अपनी टांगें व हाथ भिड़ा रहा
था, यह याद रखने की हालत में मैं न था। पर मुझे इतना तो याद रह गया कि वह हाथ व बाज़ू नर्म ही थे।
मेरी बीवी ने
बढि़या-बढि़या वधाई कार्ड अपने सारे कमरों में सजा दिये। कमरे में कार्डों का ढेर
लग गया। मेरे छोटे पोते-पोतियां, नाती-नातियां तो उन पर चढ़ कर ऐसे खेलने लगे जैसे
कि कोई रेत का ढेर हो।
मैं भी इन
शुभकामनाओं के ढेर को, दीवारों पर सजे सुन्दर से सुन्दर कार्डों को, अनगिनत
उपहारों को निहारूं। इस अथाह सद्भावना, समर्थन व स्नेह की थाह न ले पा रहा था।
मैं गर्व से दबा जा रहा था। मैंने अपने स्टाफ को कहा कि सब के उत्तर जाने
चाहियें। सब को धन्यवाद करना है। उन्होंने सुझाया कि एक धन्याद पत्र मैं अपने
हाथ से लिखूं और वह इसे ऐसे छपवा देंगे कि यह लगेगा कि मैंने सबको अपने हाथ से धन्यवाद
पत्र भेजा है। वह गद्कद् हो उठेंगे। मैंने भी उनके प्रस्ताव का समर्थन किया। मेरा
स्टाफ भी मेरे प्रति कितना निष्ठावान् है, यह मैंने तब जाना। उन्होंने कहा कि
नव वर्ष के वधाई सन्देश इतने अधिक हैं कि उत्तर देने में ही एक मास से अधिक
लगेगा। अभी तो दीपाववलि के कुठ धन्यवाद पत्र भी भेजने को रह गये हैं।
मैं गद्गद्
था। इतनी शुभकामनाओं के साथ, इतने समर्थन और प्यार के आगे मेरा कोई कुछ नहीं
विगाड़ सकता। मुझे लगा कि चुनाव में मुझे हराने वाला कोई पैदा नहीं हुआ।
कुछ दिन बाद
मुझे मन्त्री पद से त्यागपत्र देने के लिये कह दिया गया। मैंने हाथ जोड़ कर पूछा
कि क्या मेरी कार्यपरायणता में कमी है, मेरी कार्यकुशलता में कोई दोष है। पर कोई
उत्तर नहीं मिला। बड़े इसरार पर कहा कि सरकार से अधिक पार्टी संगठन में तुम्हारी
सेवाओं की ज्य़ादा आवश्यकता है। मैंने कहा, सर संगठन से अधिक तो देश को मेरी
सेवाओं की आवश्यता है। इस पर उसने बड़े रूखेपन से कहा — उससे अधिक पार्टी को तुम्हारी
आवश्यकता है। पार्टी की सेवा भी देश सेवा ही है। मैं उसकी आंखों में कुछ पढ़ रहा
था।
अपने
बंगले पर आकर मैं शुभकामनाओं के अंबार के आगे कुर्सी पर निढाल हो गया। कभी मैं
अपनी कुर्सी को देखूं तो कभी उस शुभकामनाओं के ढेर को। यह ढेर मेरी कुर्सी न बचा
पाया। किस काम की यह शुभकामनायें। यह नव वर्ष की शुभकामनायें मेरे अशुभ् को न रोक
सकीं। कभी तो सोचूं कि इस ढेर को भी माचिस लगा कर ऐसी ही स्वाह कर दूं जैसे कि
मेरा भाग्य जलकर राख हो गया है। ***
Courtesy: UdayIndia (Hindi)
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