Wednesday, April 23, 2014

हास्य-परिहास --- चुटकले चुनाव के

 हास्य-परिहास
चुटकले चुनाव के

चुनाव भी एक बड़ा सुहाना मौसम होता है. एक प्रकार का उत्सव ही. वास्तव में देखा जाये तो असल जनतंत्र भी उसी समय होता है. इस समय व्यक्ति को खुली छूट होती है कुछ भी बोल देने की. इस समय तो सच-झूठ सब चलता है. इतना कुछ एक-दूसरे के पक्ष व विरोध में बोला जाता है कि उसका समर्थन या खंडन करना संभव ही नहीं हो पाता. वास्तव में तब यह बात सच होती दिखती है कि यदि कोई एक झूठ को सौ बार दोहरा दे तो वह सच लगने लगता है. इस में जो कोई कामयाब हो गया समझो चुनाव में भी जीत का हार उसकी प्रतीक्षा कर रहा है.
उस समय अनेक चुटकले भी प्रचलित हो जाते हैं.

बाप का नाम क्या है?

सुनते हैं कि एक अवैध बच्चा इस बात से परेशान था कि उसकी माँ उसे उसके बाप का नाम नहीं बताती थी. उसने अपनी यह पीड़ा अपने एक दोस्त के सामने रखी. उसने कहा यह तो बड़ा आसान है. तू आने वाले चुनाव में खड़े हो जाना. तेरे विरोधी अपने आप ही तेरे बाप का नाम बता देंगे.

मीटर ही उठा ले जायेंगे

बहुत पुरानी बात है. इंदिरा गांधी द्वारा लगाये गए आपातकाल में लोगों की ज़बरदस्ती नसबंदी कर देना आम बात थी. लोग उसकी तुलना बिजली के कुनैक्षण से करते थे. लोग कटाक्ष करते हुए कहते थे कि अभी तो सरकार ने तार ही काटी है, चुनाव के बाद तो मीटर भी उठा ले जायेंगे.

ऐसे को तैसा

वोट मांगने के समय तो हमारे नेता इतने विनम्र हो जाते हैं कि हाथ जोड-जोड़ कर और झुक-झुक कर उनके हाथ और कमर दर्द करने लगते हैं. पर जब जीत जाते हैं या मंत्री बन जाते हैं तो उनकी गर्दन अकड़ जाती है. वह झुकना तो भूल ही जाते हैं. उन्हें जब स्वयं वोट मांगने होते हैं तो कभी भी, किसी समय भी आपके घर आ धमकते हैं. पर जब आपको उनसे काम हो तो कहते हैं समय ले कर आना. बाहर जनता से मिलने का समय निश्चित कर घर और आफिस के बाहर एक बोर्ड टांग देते हैं. इसी बात से क्रुद्ध हो कर एक मतदाता ने अपने घर के बाहर एक बोर्ड टांग दिया जिस पर मुझ से वोट मांगने का समय केवल ११ और १ के बीच.

वोट मांग कर शर्मिंदा न करें

एक वोटर तो और भी आगे निकल गया. उसने अपने घर के दरवाज़े पर एक बोर्ड टांग दिया: मेरा कीमती वोट मांग कर मुझे शर्मिंदा न करें.

छोड़ मेरे साथ चल

चुनाव में हर प्रत्याशी को सच्चे-सुच्चे कार्यकर्ताओं की बहुत ज़रुरत रहती है. एक दूसरे नेता के साथ काम कर रहे दोस्त जब मिलते हैं तो आजकल अपनी मौज-मस्ती के किस्से सुनाते हैं. एक ने कहा, यार बड़ी मौज है. सारा दिन घोडा-गाडी मिलती है. भोजन भी बढ़िया मिलता है. कभी पनीर, कभी राजमाश, कभी मशरूम और कभी कुछ और बढ़िया. चाय और ठंडा तो जितना मर्जी.
दूसरे ने उसका हाथ पकड़ा और कहा तू चल मेरे साथ. मेरे यहाँ तो इस से भी बढ़िया है. वहां तो शाम को मुर्गे की एक टांग और एक पौवा भी मिलता है.   



Sunday, April 20, 2014

SUNDAY SENTIMENT: Modi marriage controversy CONGRESS NEEDS TO PEEP INTO ITS OWN HOUSEHOLD

SUNDAY SENTIMENT
Modi marriage controversy
CONGRESS NEEDS TO PEEP INTO ITS OWN HOUSEHOLD


"Tu kaun (Who are you)?" so goes a Punjab saying, ”Main Khaamkhah"  (I am an unnecessary, unwanted intruder). Same is true about the unnecessary controversy that has been raked up by Congress leaders about Gujarat Chief Minister and BJP's Prime Ministerial candidate Shri Narendra Modi declaring  Mrs. Jashodaben as his spouse. The Congress whose supremo Mrs. Sonia Gandhi refuses to disclose her religion to an RTI query claiming it to be a "personal" matter, appears to think otherwise of an individual's marriage about 50 years back when he was nobody in public. To Congress it is not a matter "personal" between Shri Modi and his spouse but a matter of the great party's grave concern. They are shedding crocodile electoral tears at Mrs. Jashodaben's plight’’ and are fighting for her rights as a spouse — the rights she has never sought.

The Congress also forgets the old saying that jab miaan beewi raazi, to kya karega kaazi?(When both the husband and wife are in agreement, what can kaazi – an official who interprets what is wrong or right according to religious addicts — do?) But the Congress as an organization drowning in the violent anti-current in the ocean of current Lok Sabha elections is desperately trying to catch every straw to save itself. It is usurping the role of akaazi whose help has not been sought by anyone.
The woman is undergoing fasts to pray to God to make her husband the prime minister of the country. She has never spoken a word in remorse. But Congress has assumed the role of a pleader for whom the plaintiff or defendant has not signed its vakalatnama in the party's favour. They are ignorant of the elementary requirement of our law that nobody can plead anybody's case unless he/she has an authorization signed and presented in a court of law.

The National Commission for Women (NCW) seems too eager to prove itself to be an arm of the Congress. It too has suo moto jumped in to take the stand which Congress has, forgetting that there is no petition before it for consideration from any of the parties. In the past NCW has taken a very strict legal and procedural stand in many cases saying that the aggrieved party has not approached it. But it is too kind and condescending in Mrs. Jashodaben's case.

Dr. Deepika Sharma while participating in a discussion on a media channel raised a very pertinent point. She said that Congress and certain sections of media were ignorng the great sacrifice both Shri Modi and Mrs. Jashodaben had made during the last fifty years of their life for the cause of the society and the nation.

This chest beating by a section of political parties and the media raises one more point. If one of the two brothers acquires all the property of their father giving nothing to the other and the latter makes no issue or grievance of it, does anybody have a right to make a brouhaha?

Another point. A number of cases can be quoted of Congress leaders having left their spouses in lurch for other friends or having extra-marital affairs. Can Congress party publicly affirm that it supports the conduct of Congress leaders and that the latter have been very kind and judicious towards their aggrieved spouses? Why have they not created a hullabaloo for their cases? Only because doing so would not fetch them any political dividend? Why does NCW keep its eyes blind to all such happenings of denial of justice to women within the Congress four walls?

How does the Congress Party forget the treatment their leader, the late Prime Minister Mrs. Indira Gandhi meted out to her daughter-in-law Mrs. Maneka Gandhu, widow of late Sanjay Gandhi and threw her out of her house with an infant child in her lap? Mrs. Sonia Gandhi was then a great backroom player in the whole drama. Do Mrs. Maneka and her son Varun not have an equal share and legal rights to the property and legacy of the Nehru-Gandhi family as do Mrs. Sonia and Mr. Rahul Gandhi have? Was the treatment given to Mrs. Maneka Gandhi family right? They owe an explanation to the general public.

Sunday, April 13, 2014

हास्‍य-व्‍यंग --- मैं केजरीवाल हूं

हास्‍य-व्‍यंग
मैं केजरीवाल हूं
   अम्‍बा चरण वशिष्‍ठ
अब तो मैं समझता हूं कि अन्‍ना की बात न मानकर एक पार्टी बना ली, वह अच्‍छा ही किया। वैसे तो मैं चाहता था कि कुछ समय और प्रतीक्षा कर लूं तो अन्‍ना की सारी विरासत का मैं ही अकेला हकदार बन सकता हूं। अन्‍ना को मुझ पर बड़ा भरोसा था और मुझे उनसे बहुत आस। पर सबर की भी तो कोई हद होती है। आखिर मैं कितना इन्‍तज़ार करता\
फिर बुरा भी क्‍या हुआ\ अन्‍ना के हर पुन्‍य का फल तो मेरे ही हाथ लगा। अब तो उनके पास न अपना कमाया पुन्‍य है और न मैं ही। मुझे कई बार उनकी हालत पर दु:ख भी होता है। तर्स भी आता है। वह कितने अकेले पड़ गये हैं। उन्‍हें देखने — मेरा मतलब उन्‍हें रास्‍ता दिखाने वाला — अब कोई उनके पास नहीं रह गया है। वह दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं मेरे बिना — कभी ममता दीदी के पास तो कभी किसी और के पास। उनका साथ तो मेरे जैसे सभी छोड़ चुके हैं। पर मैं क्‍या करूं\ मैं सारी उम्र उनकी तरह सन्‍त-फकीर बन कर तो नहीं जी सकता था\ मेरे तो बीवी-बच्‍चे भी हैं। उनका भी ध्‍यान रखना है। अन्‍ना का क्‍या है\ उनको तो बस देश और भ्रष्‍टाचार के बारे ही सोचना है।
खैर, ईश्‍वर जो कुछ करता है अच्‍छा ही करता है। पहले मैं नास्तिक था। ईश्‍वर पर विश्‍वास नहीं करता था। पर दिल्‍ली के चुनाव परिणाम के बाद तो मुझे पूरा विश्‍वास हो गया कि जब ईश्‍वर देता है तो छप्‍पर फाड़ कर देता है। उसने मुझे सत्‍ता के द्वार पर खड़ा कर रख दिया। तब मुझे पता चल गया कि ईश्‍वर भी कोई चीज़ है जो मुझ जैसे आम आदमी को भी राजा बना सकती है। मैं कभी मुख्‍य मन्‍त्री बन जाऊंगा, यह तो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। पर ईश्‍वर ने तो यह सच कर दिखाया। अब तो मुझे ईश्‍वर पर भी पूरा विश्‍वास हो गया है।
असल में चुनाव के दंगल में तो मैं शुगल के तौर पर ही चला गया था। मैं तो तमाशा देखना चाहता था। पर लोगों ने मुझे ही  अखाड़े में ही धकेल दिया। मैं भी चला गया। मुझे अपने पर भरोसा था — अपनी कलाबाजि़यों पर। मैंने भी सोचा कि अगर दाल न गली तो मैं पिछले दरवाज़े से चुप से भाग निकलूंगा। हमें कहां उम्‍मीद थी कि किसी दिन सरकार भी बनानी पड़ सकती है। वैसे ठीक ही हुआ कि जब हमने अपना चुनाव घोषणापत्र बनाया उस समय अन्‍ना हमारे साथ नहीं थे। वरन् तो बह हर बिन्‍दू पर हमारा हाथ पकड़ कर बैठ जाते कि जनता को दिन में सपने मत दिखाओ, तुम वादा पूरा नहीं कर पाओगे। हमने भी मतदाता को उनकी सेवा व मनोरंजन के लिये चांद-सितारे तक ला देने का वादा कर दिया। हमें तो पूरा भरोसा था कि ऐसी नौबत आयेगी ही नहीं कि जनता हमें वादों को पूरा करने को कहेगी। मैं तो पूरा प्‍लान बना बैठा था कि तब हम इसी आम आदमी को चिढ़ायेंगे कि यदि तुमने हमें सेवा का मौका दिया होता तो हम सब कुछ कर दिखाते जो हमने वादा किया था। तब जनता अपना माथा पीट लेती कि उसने इतनी बड़ी गलती क्‍यों कर दी।
अब मैं मानने लगा हूं कि जनता ईश्‍वर का ही रूप होती है। यही हमारे साथ हुआ। 28 सीटें देकर ईश्‍वर ने हमें ऐसी स्थिति में खड़ा कर दिया कि किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला और हमारे सिवाय कोई अन्‍य दल सरकार बना नहीं सकता था। कोई भी भाजपा का पल्‍लू नहीं पकड़ सकता था क्‍योंकि वह तो जाना माना साम्‍प्रदायिक दल है। हमें समर्थन देना कांग्रेस की नैतिक मजबूरी थी क्‍योंकि हम ही ने तो भाजपा को सत्‍ता में आने से रोका था। यदि हम न होते तो भाजपा तो दो तिहाई मत से सरकार बनाती और कांग्रेस की तो और भी नाक कट जाती। कांग्रेस तो हमारे एहसान के नीचे दबी पड़ी थी। पर इन हालात ने तो हमें ही फंसा कर रख दिया। सरकार बनायें या न बनायें के प्रश्‍न पर तो आगे खाई चीछे कुआं वाली बात थी। बाहर कहने की बात और होती है। सच्‍च तो यह भी है कि सत्‍ताभोग किस को बुरा लगता है\ रसगुल्‍ला चाहे ज़बरदस्‍ती ही मुंह में डाल दिया जाये, कड़वा तो कभी नहीं लगता। अन्‍ना को भी बुरा नहीं लगा था। उनको भी हमें अपनी शुभकानायें भेजनी ही पड़ीं थी़।
लोग मुझ पर तोहमत लगाते हैं कि तुमने बहुत घटिया काम किया। तुमने अपने बच्‍चों की कसम खाई थी कि तुम न तो भ्रष्‍ट कांग्रेस और न सांप्रदायिक भाजपा को समर्थन दोगे और न लोगे। मैंने तो इस ग़लतफहमी में कसम खा ली थी कि ऐसी नौबत आयेगी ही नहीं। यहां ईश्वर ने मुझ से बड़ा अन्‍याय कर दिया। मुझे न जनता को मुंह दिखाने लायक रखा और न बच्‍चों को।
पर मैंने भी कच्‍ची गोलियां नहीं खेल रखीं। व्‍यक्ति मैं चाहे आम आदमी का ही हूं पर हूं तो राजनीति का आदमी। मैं आम आदमी हूं और जनता भी आम आदमी। सो मैंने अपने बच्‍चों को समझा-फुसला दिया कि मैंने कसम तुम्‍हारी नहीं, आम आदमी के बच्‍चों की खाई थी। पर मेरे बच्‍चे मुझसे भी आगे निकले। कहने लगे कि पापा वीडियो में तो स्‍पष्‍ट हमारी ही कसम खाई थी। हमने तो स्‍वयं देखा और सुना था। तब मैंने उन्‍हें समझाया कि मैंने आम आदमी का नाम इतनी होशियारी से आहिस्‍ता से लिया था कि यह न कोई देख सका, न सुन सका। बच्‍चे सन्‍तुष्‍ट हो गये। समझ गये। समझदार हैं। आखिर बच्‍चे भी तो मेरे हैं न। ईश्‍वर उनको लम्‍बी आयु दे, उनकी रक्षा करे।
आज तक सब से चाहे वह सोनियाजी के दामाद हों या शीला दीक्षित, नरेन्‍द्र मोदी हों या मुकेश अम्‍बानी, अन्‍य कोई और नेता हो या उद्योगपति, मैंने सब से प्रश्‍न ही पूछे हैं। बहुतों के पास तो उनका जवाब भी नहीं। पर अब मुझे हैरानी होती है कि जब से मैंने मुख्‍य मन्‍त्री का पद छोड़ा है, लोग मुझ से ही सवाल करने लगे हैं। मैं क्‍यों जवाब दूं\ मेरा तो धर्म केवल प्रश्‍न पूछना है। उत्‍तर तो मेरे विरोधियों को देना है। पर लोग यह परम्‍परा समझते ही नहीं। अब तो मैंने एक रास्‍ता निकाला है। मैं सवाल करने का पेटैन्‍ट ही अपने नाम करवा लूंगा। फोर्ड फाऊंडेशन वाले तो अपने ही आदमी हैं। वह अमरीका में सवाल करने का पेटैन्‍ट मेरे नाम करवा देंगे। तब न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी। फिर मैं देखता हूं कि मेरे विरोधी कैसे मुझ से प्रश्‍न करते हैं। मेरे पेटैन्‍ट का उल्‍लंघन करने के आरोप में मैं उन पर अमरीका में मुकद्दमा ठोक दूंगा। अपने विरोधियों की तो मैं इस तरह बोलती ही बन्‍द कर दूंगा।
लोग मुझ पर उंगली उठा रहे हैं कि मैं अब लोकपाल की बात क्‍यों नहीं करता\ भ्रष्‍टाचार समाप्‍त करने की कसमें क्‍यों नहीं खाता\ उल्‍टे लोग मुझ पर ही उंगली उठाने लग पड़े हैं। मैं कहता हूं कि मैं इसीलिये ईमानदार हूं कि मैं दूसरो पर भ्रष्‍टाचार के आरोप लगाता हूं। आरोप लगाने के हक का भी मैं पेटैंट स्‍वयं  अपने की नाम करवा लेना चाहता हूं ताकि यह झगड़ा भी सदा-सदा के लिये समाप्‍त हो जाये।
लोग मुझ से पूछते हैं कि तूने राहुल के खिलाफ चुनाव में कुमार विश्‍वास उतार दिया। मोदी के खिलाफ तो तुम खुद ही खड़े हो गये हो। तुम सोनियाजी के मुकाबले स्‍वयं क्‍यों नहीं खड़े हो गये\ लोग समझते नहीं कि मैं अकेली जान किस-किस के विरूद्ध चुनाव लड़ूंगा\ मैं यह कैसे भूल जाऊं कि दिल्‍ली का मुख्‍य मन्‍त्री मैं उनकी ही कृपा से ही बना था। मैं इतना एहसान फरामोश नहीं हूं। फिर मैं यह भी तो जानता हूं कि एक घर तो डायन भी छोड़ देती है। मैं तो डायन भी नहीं हूं।
अब देखो कोई न कोई मुझ पर स्‍याही फैंक दे रहा है। कईयों ने तो हद कर दी। मुझे हार पहनान के बहाने मेरी गाल पर थप्‍पड़ ही थमा दे रहे हैं। पर मैं भी गांधीजी का अनन्‍य अनुयायी हूं। मैंने अपनी सारी राजनीति उनकी समाधि पर प्रणाम करने के बाद ही शुरू की थी। मैं तो बड़े दिल वाला हूं। इसीलिये मुझ पर स्‍याही फैंकने वाले को मैंने अपनी पार्टी का सदस्‍य बना कर उसका सम्‍मान किया। यह भी तो जानता हूं कि मुझ पर हाथ उठाने वाल भी आम आदमी है और मैं भी आम आदमी। सो मैं सब कुछ सह लूंगा। उफ नहीं करूंगा। मैं तो देश के लिये कुर्बान होने के लिये आया हूं। आम आदमी जानता है कि किस प्रकार मैं ने मुख्‍य मन्‍त्री पद को लात मार कर कुर्बानी दी थी। इतनी बड़ी कुर्बानी आज तक कोई नहीं दे सका। यह केवल मैं केजरीवाल ही कर सकता हूं। मेरे जैसा कोई और माई का लाल पैदा नहीं हुआ।
ऐ-ऐ क्‍या कर रहे हो\ मुझे धक्‍का क्‍यों दे रहे हो\
मैं धक्‍का नहीं, हिला कर तुम्‍हें उठा रही हूं। लो चाय पी लो।
पर मैं केजरीवाल।
क्‍या केजरीवाल-केजरीवाल रटे जा रहे हो\ तुम केजरीवाल नहीं। मैं तुम्‍हारी पत्नि हूं। चाय पकड़ो हाथ में। सपने में पता नहीं क्‍या बड़-बड़ाते रहते हो\ जल्‍दी उठो। आफिस नहीं जाना है\

पत्नि की कड़क आवाज़ ने समझा दिया कि वह तो सपना था। यथार्थ तो बीवी की कड़कती आवाज़ ही है।

Thursday, April 10, 2014

POINT TO PONDER Present election re-defining secularism?

POINT TO PONDER
Present election re-defining secularism?

It is difficult to determine who is secular and who not. Actually, 'secularism' is a notion and conception which is self-assessed and self-proclaimed. What a political party or individual claims is something opposite that looks to their opponent.

It is no secret or surprise that even the Indian Union Muslim League and other political organizations whose membership is restricted only to Muslims proclaim themselves to 'secular'. They exhort other political parties not to do anything that divides the 'secular' vote, a synonym for Muslim vote.

When the 'secular' Congress President Mrs. Sonia Gandhi called on Abdullah Bukhari, Shahi Imam of Jama Masjid a few days back, Bukhari too spoke of the need for unity of the 'secular' vote and to ensure that it is not divided.  Bukhari claims to be the leader of Muslims and, at the same time, 'secular. He later obliged Mrs. Gandhi by calling Muslims to vote for Congress.

Mulayam Singh Yadav's Samajwadi Party is another political organization that professes itself to be the 'secular' icon and, at the same time, the only protagonist of Muslims. That is why Mulayam Singh also attracts the epithet of 'Mian" Mulayam. One of the leading lights of this 'secular' hoard is its prominent leader Azam Khan and presently a Minister in UP's Akhilesh government.  On April 8, 2014 he declared that it was not Hindu but Muslim soldiers who should be credited for the Kargil victory against Pakistan in 1999 war.

In the last Bihar Vidhan Sabha elections another 'secular' conglomerate in the State declared that it would ally with the party which promises to make Muslim  the State's chief minister. To corner 'secular' votes the leader took an Osama bin Laden look-alike during campaigning in the hope that Indian Muslims would be humoured with this gesture of his to vote for his party.

Another self-acclaimed die-hard 'secular' is the Rashtriya Janata Dal supremo Lalu Prasad Yadav of Bihar who has been sentenced to five years of jail in the fodder scam, presently on bail. He too pretends openly that Muslims are with him.

Bihar chief minister Nitish Kumar does not wish to lag behind in this 'secular' marathon. He derides other parties' professions on this score. There are many other 'secular' groups who openly appeal for Muslim community vote during  the ongoing elections and previous ones too.

In the present election to the 16th Lok Sabha and some State assemblies there is free for all, everybody scouting for Muslim votes in the open. This appeal is being vociferously made despite the fact that under the Representation of the People Act 1951 imploring for votes in the name of religion is a crime. Anybody doing so can not only be tried for violation of law but if such a person gets elected, his election can as well be set aside on this count.

Further, all this is going on under the prying eye of the too vigilant and alert Election Commission of India.


What does all this boil down to — appealing to the Muslim community for votes in the name of religion is an act of secularism and doing so in the name of non-Muslims an unpardonable crime of 'communalism'?                                   *** 

Also published in the May 2014 issue of SOUTH ASIA POLITICS monthly.

Tuesday, April 8, 2014

'Secular' Congress subservient to Muslim fundamentalism

'Secular' Congress subservient to Muslim fundamentalism

By Amba Charan Vashishth

As the election to Parliament draws near, the tone and tenor of election speeches is getting dirtier. The speakers may find it delectable but it certainly is detestable to the common man, the voter. The contestants may lose their cool but the voter remains cool in his head.

One of the reasons for the contestants getting lousy and abusive is because of the electoral atmosphere in the country and in their own constituencies. It is also said that when a person turns bankrupt of arguments and logic, he comes to blows. That exactly looks true in the present electoral situation.
During the last UP assembly elections, the environment looked almost the same as it is present. It was the Congress leaders who were in vociferous defiance of the Election Commission (EC). And who gained? At least not those who were the most vocal.

Union Minister Salman Khurshid who was in his defiance best while campaigning for his wife could not escape the ignominy of her being pushed to the fifth position by the electorate. His equally recalcitrant colleague in Manmohan cabinet Beni Persad Verma had no better luck.

More than a decade back, the elections were marred by an orgy of violence. The EC succeeded, to a great measure, in curbing the violence during electioneering and on the polling day. But now it looks the physical violence has been overtaken by the violence of the tongue.

In the past such instances were only few and far between. But now it looks it is the order of the day and elections.  Sometimes it was slip of the tongue. But now it has now assumed the proportion of being a desperately deliberate act.
This time the situation has been uglier and more indecent than ever before, even coming within the ambit of violation of criminal and election law.
 
It first started with the old hand in this dubious game, the External Affairs Minister Salman Khurshid calling Modi as Napunsak (impotent).  Congress Vice-President Rahul Gandhi deprecated it saying: “I do not appreciate this kind of comment... the kind of language.” Then came the news of Khurshid venting the ire against the EC and the Supreme Court on the foreign soil of London — a case of a minister who has taken oath to "bear true faith and allegiance to the Constitution". He violates his oath and yet remains a minister under the Constitution.

In this war of attrition and abuse jumps the Congress candidate from Saharanpur (UP) parliamentary constituency, Mr. Imran Masood who was caught on camera saying: "If Modi tries to make Uttar Pradesh into Gujarat, then we will chop him into tiny pieces... I am not scared of getting killed or attacking someone. I will fight against Modi. He thinks UP is Gujarat. Only 4% Muslims are there in Gujarat while there are 42% Muslims in UP."  

Later, he refused to tender an apology. A case was registered against him and he was remanded to 14 days' judicial custody. After two days he was granted bail.
Although the Congress said it did not approve such language yet the next day it jumped into his defence saying that the CD was one year old when Masood was in Samajwadi Party (SP). But the media which recorded the speech says it was very much recent while campaigning in his constituency. Let us take for a moment that the speech was made a year back when Masood was in SP. Does that absolve him of the crime he committed? And does his crime in SP turn into an act of piety because he has now joined Congress?

It is interesting to contrast the stand of the Congress and other parties as also the EC on the so-called "hate speech" Mr. Varun Gandhi is alleged to have given. (He has since been acquitted of the charge.) Note that on the day he spoke, the EC had not announced the election schedule for 2009 Lok Sabha elections and the Model Code of Conduct (MCoC) had not yet come into force. Mr. Gandhi had to remain in jail for two-three months. Further, EC immediately took cognizance of the speech and two days before the announcement of the schedule, advised — an unusual and unprecedented action — the BJP not to put up Mr. Varun as its candidate from Pilibhit. BJP did not accede because EC was overstepping its steps. But, surprisingly, this time EC remains unmoved by the Mr. Masood's crime.
Further, the political parties, including Congress, which wanted Mr. Varun Gandhi to be deprived of his right to contest the election for that "hate speech" are silent. Congress, so far, has not been able to dare to withdraw Mr. Masood's candidature obviously for fear of losing Muslim community votes. That lays utterly bare the precept and practice of 'secularism' by Congress. Congress need to explain whether Mr. Masood's speech smacked of secularism?

Again, Mr. Nahid Hasan SP candidate from Kairana was on March 30 quoted as telling SP workers: “Mayawati sat in the lap of Modi thrice, both are unmarried.”  The police registered a case against him.


The condemnation of such ugly voices by political parties is just a ploy. Had they honestly been against and condemned their act, they would have acted swiftly and cut their umbilical chord with such ignoble sons of which they felt ashamed to be their mother. But it is like haathi ke daant khaane ke aur, dikhaane ke aur.  They wish to have the cake and eat it too. They continue to wish to thrive on the illicit earnings of electoral bounty by such acts of brave braying. But people are not fools. They are much wiser than politicians. The latter must not ignore this fact.                                                                 ***   
Published in the Weekly ORGANISER in its April 13, 2014 issue.
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