क्या आरक्षण की कोई सीमा व
समयसीमा आ पायेगी कभी?
गुजरात में पटेल जाति के लिये सरकारी नौकरियों में आरक्षण ने तो कई सवाल खड़े
कर दिये हैं। सोशल मीडिया में तो एक ने ठीक ही कहा कि एक ओर तो भारत विकास के नये
से नये शिखर पार कर रहा है तो दूसरी ओर देश की हर जाति अपने आपको सब से पिछड़ा
बताकर आरक्षण प्राप्त करना चाहती है। ऐसा लगता है देश ने तो तरक़की की है पर
हमारी जातियां पीछे की ओर जा रही हैं। अब तो स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि जिन
जातियों को विकसित माना जाता था आज वह भी अपनी जनसंख्या के आधार पर अपने लिये
आरक्षण की मांग कर रही हैं।
विडम्बना यह भी है कि एक ओर तो सरकारी नौकरियों की संख्या कम होती जा रही है
और दूसरी ओर उनमें आरक्षण की मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
आरक्षण के लिये नई से नई जातियों की मांग से तो ऐसा लगता है कि इस समस्या का
कभी अन्त होगा ही नहीं। अन्तत: सभी जातियों को जनसंख्या में उनकी भागीदारी के
अनुसार सब को आरक्षण ही देना पड़ेगा।
राजनीतिक व चुनावी लाभ के लिये हमारे राजनीतिक दल इन आरक्षण मांगों का समर्थन
तो अवश्य कर रहे हैं पर साथ ही भूल रहे हैं कि हम इस प्रकार संविधान के
प्रावधानों के अनुसार जातिविहीन राष्ट्र के अपने लक्ष्य से दूर होते जा रहे हैं।
संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन कर हम जाति के आधार पर भेदभाव को बढ़ावा दे रहे
हैं। हम विभिन्न जातियों के बीच बैर और विषमताओं को भी हवा दे रहे हैं।
आरक्षण पर किसी न किसी समय पूर्ण विराम तो लगाना ही होगा। पर यह तभी सम्भव हो
पायेगा जब इस में राजनीति का कोई दखल नहीं होगा। पर वर्तमान स्थिति में ऐसा सपना देखना
तो बस एक दिवास्वप्न बन कर ही रह जायेगा। ***