Wednesday, December 30, 2015

हास्‍य–वयंग — संसद में शौर्य

हास्‍य–वयंग

कानोंकान नारदजी के

संसद में शौर्य

पिता:  बेटा।
बेटा:   हां, पिताजी।
पिता  यह तूने टीवी पर क्‍या शोर लगा रखा है? मैं झपकी लेना चाहता हूं, वह भी नहीं ले पा
      रहा हूंं। फिज़ूल के कार्यक्रम मत देखा कर।
बेटा:   पिताजी, मैं कभी कोई फिज़ूल कार्यक्रम नहीं देखता। मैं तो संसद की कार्रवाई देख कर
देश को चलाने और राष्‍ट्रोद्धार के गुर सीख रहा हूं।
पिता:  खाक सीख रहा है। यह तो बस हंगामा हो रहा है, तू-तू, मैं-मैं हो रही है। कोई किसी की
सुन ही नहीं रहा।
बेटा:   पिताजी, मैं आपको कैसे समझाऊं कि यह संसद है। आपने तो संसद की कार्रवाई न कभी
वहां जाकर देखी और न कभी टीवी पर ही देखते हैं। सारे देश को, सरकार को, जनता को व न्‍यायपालिका को दिशा यहीं से मिलती है और देश की दशा भी यहीं से निर्धारित होती है।
पिता:  बेटा, यह ठीक है कि तुम आधुनिक हो गये हो पर इतना तो मैं भी जानता हूं कि
पंचायत में काम कैसे चलता है। ठीक है वहां भी बहस होती है, गर्मागर्मी भी होती है। कई बार एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्‍यारोप भी लगते हैं, पर ऐसा नहीं होता। सब एक-दूसरे को सुनते हैं और अन्‍त में आम राय या बहुमत से निणर्य हो जाता है। और संसद भी तो राष्‍ट्रीय स्‍तर की एक पंचायत ही है न।
बेटा: पिताजी मैं आपको कैसे समझाऊं? यह हमारी राष्‍ट्रीय संसद है  जिसमें भी बहस ही चल       रही है गर्मागर्म।
पिता:  इसे तू बहस कह रहा है? इसमें तो सब एक साथ बोलते जा रहे हैं। कोई किसी की नहीं
सुन रहा। सब एक-दूसरे पर चिल्‍ला रहे हैं। अध्‍यक्ष भी कुछ समय के लिये चुपचाप सुन रहे हैं और जब कभी बोलते हैं तो न कोई उनकी बात सुनता है न मानता है।
बेटा:   पिताजी, यही तो जनतन्‍त्र है। इसमें सब को अपनी बात कहने, चिल्‍लाने और दूसरे की
बात न सुनने का पूरा संविधानिक अधिकार है।
पिता: पर बेटा यह सब कर क्‍या रहे हैं?
बेटा:   ये सब हमारे अधिकारों व हमारे हितों के लिये लड़ रहे हैं।
पिता:  वह हमारे हित हैं क्‍या?
बेटा:   वे मांग रहे हैं श्रीमति सुषमा स्‍वराज व श्रीमति वसुन्‍धरा राजे के त्‍यागपत्र।
पिता:  क्‍यों?
बेटा:   क्‍यों‍कि श्रीमति स्‍वराज ने ललित मोदी को लंदन से पुर्तगाल जाने में सहायता की जहां
मोदी की धर्मपत्नि का कैंसर आप्रेशन होना था और मोदी उस संवेदनशील घड़ी में अपनी पत्नि के पास होना चाहते थे।
पिता:  यह तो मानवीय कर्तव्‍य है जो सुषमाजी ने निभाया। उसमें क्‍या अपराध है?
बेटा:   पर वे इसे अक्षम्‍य अपराध मानते हैं।
पिता:  और वसुन्‍धराजी का अपराध?
बेटा:   उनका आरोप है कि उनके व उनके बेटे के ललित मोदी के साथ पारस्‍परिक व उनके
व्‍यवसाय में सम्‍बंध हैं।
पिता:  क्‍या मोदी कोई अपराधी घोषित हुआ है?
बेटा:   मोदी के वकील तो दावा करते हैं कि वह न तो कोई भगौड़ा है और न ही उसके विरूद्ध किसी प्रकार का कोई वारंट ही जारी है। मोदी का मानना है कि वह लंदन में इस लिये रह रहा है क्‍योंकि भारत में उसकी जान को खतरा है। हां, अभी हाल ही में एन्‍फोर्समैंट निदेशालय ने मोदी को पेश होने के वारंट भेजे हैं।
पिता:  सारा हंगामा कौन कर रहे हैं?
बेटा:   वही लोग जो कल तक सत्‍ता में थे।
पिता:  जब मोदी विदेश भागा और लौट कर नहीं आया तो वर्तमान सरकार ही सत्‍ता में थी?
बेटा:   नहीं पिताजी, पिछली सरकार।
पिता:  बेटा, यह वही लोग नहीं हैं जिन्‍होंने ससम्‍मान वारन एण्‍डरसन को भारत से बाहर जाने       दिया था जो भोपाल गैस त्रासदी में 15000 से अधिक लोगों के मारे जाने और उससे भी
अधिक के अपंग हो जाने का दोषी था? वही जिन्‍होंने बोफर घूस काण्‍ड के अपराधी     क्‍वात्रोची को भारत से भागने दिया था? वही जिन्‍होंने विधान सभा में एक प्रस्‍ताव पास किया था कि उस अपराधी को मानवीय आधार पर जेल से रिहा कर दिया जाये जो एक आतंकी घटना में संलिप्‍त था जिसमें दर्जनों निर्दोष अपनी जान गंवा बैठे थे? वही जिनके कुछ लोगा संसद भवन पर आक्रमण व 26/11 के दोषी व्‍यक्तियों पर दया की याचना करते थे और उनके 'जीने के अधिकार' की रक्षा करने की पैरवी करते थे जिन्‍होंने सैंकड़ों निर्दोष लोगों के जीने का अधिकार छीना था?
बेटा:   हां पिताजी, यह वही लोग हैं जिन्‍होंने दिल्‍ली के एक मन्‍त्री जिसे लोकायुक्‍त ने घूसखोरी के आरोप में अपने पद से हटाने की सिफारिश की थी पर उस सिफारिश को राजनीतिक भाव से रद्द करवा दिया था। यही हैं जिनके कई मन्‍त्री और मुख्‍य मन्‍त्री भ्रष्‍टाचार व अन्‍य अनियमितताओं के लिये आरोपित हैं पर वह उनके साथ कन्‍धे से कन्‍धा मिलाकर उन्‍हें अपना राजनीतिक व नैतिक समर्थन दे रहे हैं।
पिता:  फिर बेटा वह किस चीज़ की लड़ाई लड़ रहे हैं?
बेटा:   पिताजी, कुछ भी हो वह संघर्ष तो हमारे हित के लिये ही कर रहे हैं न जिसके लिये हमने उन्‍हें चुन कर भेजा है।
पिता:  उसमें हमारा हित क्‍या है?
बेटा:   उनकी जीत हमारी जीत होगी क्‍योंकि वह हमारे चुने हुये प्रतिनिधि हैं।
पिता:  बेटा, इससे देश का अरबों रूपया बर्बाद हो रहा है। यह हमारा ही नुक्‍सान है। कोई काम
      नहीं हो रहा। वह हमारे ही पैसे की आग पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं।
बेटा:   पिताजी, आजकल राजनीति को ही तो देश व राष्‍ट्र हित बना दिया गया है। इसी में तो
हमारी भलार्इ है।
पिता:  पता है इससे हमारी जग हंसाई भी हो रही है?
बेटा:   पिताजी आपको पता ही नहीं। अब तो विश्‍व की कई संसद सभायें हमसे बहुत कुछ सीख   
रही हैं और इस मामले में हमसे भी बहुत आगे निकलने की कोशि‍श कर रही हैं।
पिता:  इस बात पर तू गर्व महसूस करता है?
बेटा:   पिताजी, आप कुछ कहो। मेरी संवेदना तो उनके साथ है। आखिर वह हमारे प्रतिनिधि हैं।
उन्‍हें हमने ही चुन कर भेजा है। इसमें उनका कोई कसूर नहीं है। हमें हर हालात में उनके साथ खड़ा होना चाहिये।  
पिता:  तो इसके लिये तू क्‍या करना चाहता है?
बेटा:   पिताजी, मेरी तो उनके साथ बहुत सहानुभूति है। वह हमारे लिये इतना गला फाड़़-फाड़ क्‍र लड़ रहे हैं। हाथ-सिर-पांव हिलाते हैं। सड़क से संसद तक हमारी लड़ाई लड़ रहे हैं। पिताजी, उनकी जगह आप होते तो आकर बिस्‍तर पर लेट जाते और एक सप्‍ताह बिस्‍तर न छोड़ते। अपने सिर, बाज़ू, टांगों व पांव की मालिश करवा-करवा कर हमारी ऐसी-तैसी फेर देते। लेकिन वह हैं कि थकते ही नहीं।
पिता: तो जा, मुझे छोड़ और उनकी सेवा कर जो तेरे लिये इतना कुछ कर रहे हैं।
बेटा:   पिताजी, मैं आपको तो छोड़ नहीं सकता पर घर बैठे ही मैं उनके लिये थोड़ा-कुछ अवश्‍य करूंगा जो देश के लिये इतना कुछ कर रहे हैं। मैं अब समझ गया हूं कि संसद में बढि़या खाना-पीना क्‍यों इतना सस्‍ता है कि उस दाम पर घटिया से घटिया व गन्‍दे से गन्‍दे ढाबे पर भी नहीं मिलता। मैं तो अब उन लोगों के दांत तोड़ दूंगा जो इसकी आलोचना व विरोध करते हैं। संसद में यदि पौष्टिक भोजन सस्‍ते दाम नहीं मिलेगा तो हमारे हितों के लिये मलयुद्ध में उन्‍हें ऊर्जा कहां से मिलेगी?
पिता:  पर बेटा 'काम नहीं तो वेतन नहीं' के सिद्धान्‍ता का क्‍या हुआ?
बेटा:   पिताजी, कानून कानून बनाने वालों पर लागू नहीं होते। यह भी ग़लत आरोप है कि काम  नहीं हो रहा। सवाल-जवाब, बहस, गर्मागर्मी ही तो हमारे सदनों की शान हैं। यही सदा से हाता रहा है और आज भी हो रहा है। ण्‍क--दूसरे की बात काटना ही तो यहां का विधान है।
मैं तो मांग करता हूं कि उनका वेतन, भत्‍ते व अन्‍य युविधायें दुगनी व और भी सूगम कर दी जायें। फिर यदि हमारे सदनों में तू-तू, मैा-मैं न हो तो सदनों की कार्रवाई ही नीरस हो जायेगी। कोई देखेगा ही नही। जनता मनोरंजन से वंचित रह जायेगी।
पिता:  बहुत खूब।
बेटा:   मैं तो पिताजी अब यह भी सुझाव देने जा रहा हूं कि जैसे हमारी सीमाओं पर तैनात
रक्षाकर्मियों को देश की रक्षा करने पर शौर्य चक्र प्रदान किये जाते हैंहैं, उसी तर्ज़ पर संसद में राष्‍ट्र व देश हित की रक्षा के लिये मर मिटने वाले व्‍यक्तियों का भी सम्‍मान हो और उन को भी 'राष्‍ट्रहित वीर' जैसे पदक प्रदान किये जायें। यदि इसकी शुरूआात इसी सत्र से हो जाये तो इससे बढ्रिया मौका शायद फिर हाथ न आये।      ***   

Courtesy: Hindi UdayIndia

Tuesday, December 29, 2015

मज़ाक: ''थिंक टैंक'' अब हिन्‍दी शब्‍द

मज़ाक: ''थिंक टैंक'' अब हिन्‍दी शब्‍द
भाषा को सबल-समृद्ध बनाने की आड़ में कमज़ोर व पंगू बनाने का षड़यन्‍त्र

पिछले दिनों एक प्रतिष्ठित दैनिक में एक समाचार छपा कि हमारे हिन्‍दी भाषा के विशेषज्ञों ने अंग्रेज़ी शब्‍द ''थिंक टैंक'' को हिन्‍दी भाषा के शब्‍दे त ं पै। उन्‍होंने पटिअका कोश में इसे हिन्‍दी का शब्‍द ही कबूल कर लिया है। इस समाचार से मुझ जैसे अनभिज्ञ को हैरानी भी हुई और निर्णय लेने वालों पर दया आई। क्‍या हमारी हिन्‍दी भाषा इतनी असहाय, कमज़ोर और कंकाल हो गई है कि इस अंग्रेज़ी शब्‍द का कोई उपयुक्‍त हिन्‍दी शब्‍द ही नहीं हो सकता? ''थिंक'' का हिन्‍दी शब्‍दार्थ है ''सोच या विचार'' और ''टै़ंक'' का ''ताल या तालाब''। तो ''थिंक टैंक'' केलिये हिन्‍दी शब्‍द ''सोचताल'' या ''विचारताल'' क्‍यों नहीं हो सकता?  इसका शब्‍दार्थ ''सोच या विचार खूह'' या ''सोच या विचार कुआं या बाउली'' भी हो सकता था। पर निर्णायक मण्‍डल को हिन्‍दी शब्‍द से अधिक अंग्रेज़ी शब्‍दों से प्रेम लगता है। ऐसे निर्णयों से हिन्‍दी भाषा को समृद्ध व सबल बनाने का दायित्‍व प्राप्‍त ये लोग हिन्‍दी का ही अपमान कर रहे हैं और ऐसा आभास दे रहे हैं कि हिन्‍दी एक अपूर्ण भाषा है।
यह ठीक है कि हमें कम्‍प्‍यूटर, वैबसाईट, लैपटॉप सरीखे शब्‍दों के लिये हिन्‍दी में शब्‍द घड़ने का व्‍यर्थ प्रयास नहीं करना चाहिये। पर जिनके लिये कर सकते हैं और करना भी चाहिये उन पर हमारे विशेषज्ञ अपना दिमाग़ क्‍यों नहीं घिसना चाहते या अपने अनुभव के आधार पर परिवर्तन क्‍यों नहीं करना चाहते? मैं एक उदाहरण देना चाहता हूं। approach road के लिये अनुबाद हम करते हैं सम्‍पर्क मार्ग। मैंने एक प्रान्‍त में देखा कि वह इसके लिये और भी अच्‍छा शब्‍द प्रयोग में लाते हैं। मान लीजिये कि एक सड़क पालम गांव केलिये सम्‍पर्क मार्ग है। उन्‍होंने पट्टिका में लिखा ''पालम गांव के लिये पहुंच मार्ग''। यह सब से उपयुक्‍त है। हमें इसे अपनाना चाहिये।          ***


Friday, December 18, 2015

नाम में कुच्‍छ नहीं

नाम में कुच्‍छ नहीं

  अम्‍बा चरण वशिष्‍ठ

किसी भवन, किसी सड़क, किसी संस्‍था का नाम किसी राजनेता या अन्‍य के नाम से रखने या न रखने या वर्तमान नाम बदल कर कोई और नाम रख देने का कोई महत्‍व ही नहीं बचा है। आजकल हर नाम को संक्षिप्‍त (abreviate) करने की होड़ लगी रहती है।

अब व्‍यक्ति के नाम की ही बात लीजिये। किसी का नाम बुद्धू राम है। तो वह बिना नाम बदले बी0 आर0 शर्मा बन कर गर्व करने लगता है।

सड़कों का नाम लीजिये। अनेक बड़े शहरों में महात्‍मा गांधी रोड हैं पर सब जगह यह एम0 जी0 रोड बनकर रह गई हैं। दिल्‍ली में एक सड़क का नाम बदल कर अन्तिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर मार्ग कर दिया गया। पर हुआ क्‍या? अब वह बीऐसज़ैड मार्ग बन कर रह गया।

दिल्‍ली का इन्दिरा गांधी इन्‍टरनैशल एयरपोर्ट अब केवल आईजीआईए ही हो गया है। शिमला में मैडिकल कालिज का नाम बदल कर इन्दिरा गांधी मैडिकल कालिज कर उनकी याद को सम्‍मानित किया गया था। पर आज वह आईजीएमसी ही रह गया है। इन्दिरा गांधी नैशनल ओपन यूनिवर्सिटी इगनू बन कर मशहूर हो गई है। कहां हैं इन्दिरा गांधी?

दिल्‍ली की जवाहरलाल नैहरू यूनिवर्सिटी अपने असली नाम से नहीं जेएनयू के नाम से विश्‍वविख्‍यात हो गई है। पंजाब सरकार ने चण्‍डीगढ़ से सटे शहर मोहाली का नाम बदल 'साहिबज़ादा अजीत सिंह नगर' रख दिया कोई 20 साल पहले। पर लोग इस शहर को अभी भी मोहाली के नाम से पहचानते हैं और वैसे भी यह ऐसएऐस नगर ही बन कर रह गया है।

मनरेगा में महात्‍मा गांधी का नाम किस को दिखता है?

तो फिर हमारे नाम रखने या बदलने पर झगड़े का क्‍या तुक रह गया है?                                                                  ***                      


Wednesday, December 16, 2015

हास्‍य–व्‍यंग: कानोंकान नारदजी के — नॉन-वैज हॉय! शाकाहार हाये-हाये! !

हास्‍य–व्‍यंग
कानोंकान नारदजी के
नॉन-वैज हॉय! शाकाहार हाये-हाये! !
  
बेटा:    पिताजी।
पिता:  हां बेटा।
बेटा:    कुछ सरकारों ने त्‍यौहारों के दिन मांस बेचने पर प्रतिबन्‍ध लगा दिया है।
पिता:  बेटा, धर्मनिर्पेक्षता का तक़ाजा़ है कि हम एक दूसरे की धार्मिक भावनाओं का सम्‍मान करें। इससे सामाजिक तनाव कम होता है और आपसी भाईचारे को बढ़ावा मिलता है।
बेटा:    पर पिताजी, कुछ लोग इसका विरोध कर रहे हैं। उनका तर्क है कि यह उनके निजि अधिकारों पर कुठाराघात है, उनके मानवाधिकारों का उल्‍लंघन और जनतन्‍त्र में निजि स्‍वतन्‍त्रता पर कुल्‍हाड़ी।
पिता:  बेटा, देखा जाये तो सभ्‍यता का विकास ही मानव के अधिकारों का हनन है। मानव को वास्‍तविक स्‍वतन्‍त्रता तो किसी भी शासन व्‍यवस्‍था में पूरी तरह प्राप्‍त ही नहीं हुई । ज्‍यों-ज्‍यों मानव सभ्‍यता का विकास होता गया त्‍यों-त्‍यों मानव की स्‍वतन्‍त्रता पर अंकुश बढ़ता गया।
बेटा:  आपकी बात मुझे समझ नहीं आ रही। ज़रा समझा कर बोलिये।
पिता:  बेटा, प्रारम्भिक जीवन में ही मानव पूर्णतय: स्‍वतन्‍त्र था। उतनी स्‍वतन्‍त्रता
उसे किसी भी सभ्‍य समाज या बढि़या से बढि़या शासन व्‍यवस्‍था में कभी नहीं
      मिली।
बेटा:   कैसे?
पिता:     बेटा, तब न कोई सामाजिक व्‍यवस्‍था थी और न शासक। व्‍यक्ति अपनी मर्जी़ का मालिक आप था। वह हर बात के लिये स्‍वतन्‍त्र था। यहां तक कि तब न परिवार नाम की कोई चीज़ थी और न कोई रिश्‍ता। मां, बहन व भाई को तो न कोई जानता था न पहचानता। यदि कोई रिश्‍ता था तो बस नर और नारी का। वह जो चाहे करता था। उसकी करनी, कथनी और वाणी पर न कोई लगाम लगा सकता था और न कोई मानता था।
बेटा:    उस समय तो पिताजी सचमुच ही पूर्ण स्‍वतन्‍त्रता थी, उसी तरह जो  आजकल जानवरों के पास है
पिता: बेटा, मानव भी तो एक सामाजिक जानवर व प्राणी ही तो है।
बेटा:  पर पिताजी, आज तो मानव ने जानवर अधिकारों पर भी अंकुश लगाता जा रहा है। वह सब जानवरों को मार लेता है और खा लेता है, मानों पशुओं को तो जीने का अधिकार ही नहीं है और वह बस मानव का भोजन बनने के लिये ही पैदा होते और मरते हैं। जानवर के जानवर अधिकारों पर भी अंकुश मानव ने ही लगा रखा हैं अपने स्‍वार्थों की पूर्ति के लिये।
पिता:  यह तो बेटा तूने बड़ी गूढ़ी बात कर दी। यह तो सच्‍चाई है कि मानव दूसरे प्राणियों के मौलिक अधिकारों की धज्जियां तो उड़ाता है पर जब कोई व्‍यक्ति या सरकार उसके मानव अधिकारों पर अंकुश लगाना चाहे तो वह बड़ा बखेड़ा खड़ा कर देता है। जब गोमांस खाने पर प्रतिबन्‍ध लगता है या उसकी बात होती है तो यही लोग सैकुलरवाद का नाम लेकर व्‍यक्तिगत स्‍वतन्‍त्रता का शोर मचाते हैं।  
बेटा:  पिताजी, सरकार ने कई पशु-पक्षियों, तीतर, हिरण, काले हिरण, आदि के मारने व उसका मांस खाने पर प्रतिबन्‍ध लगा रखा है। कुछ फिल्‍म अभिनेता तो इस कानून के उल्‍लंघन के लिये धरे भी गये हैं। कुछ को सज़ा भी हो गई है। इससे व्‍यक्तिगत स्‍वतन्‍त्रता का उल्‍लंघन नहीं होता?         
पिता:  होता तो है पर यदि यह प्रतिबन्‍ध न लगाया जाये तो इन पशुओं-पक्षियों की प्रजातियां ही लुप्‍त हो जायेंगी।
बेटा:    पिताजी, सरकार तो साल में दो मास के लिये मच्‍छली पकड़ने पर भी प्रतिबंध लगा देती है। यह भी तो ग़लत है। इससे भी तो व्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता व मानवाधिकारों पर अतिक्रमण होता है।
पिता: बेटा, यह करना भी अति आवश्‍यक है क्‍योंकि उन दो मास में मच्‍छलियां अण्‍डे देती हैं। उन दिनों उसका शिकार करने पर सारा साल ही मच्‍छली के प्रजनन व उसकी पैदावार बहुत काम हो जायेगी। इससे मच्‍छली खाने वालों को ही नुक्‍सान उठाना पड़ेगा।
बेटा: पिताजी, कुछ भी हो व्‍यक्ति के मच्‍छली खाने के मानवाधिकार का हनन तो हुआ न।
पिता:  बेटा, यह तो सहना ही पड़ेगा।
बेटा: पर पिताजी, जंगल में आखेट पर क्‍यों प्रतिबन्‍घ लगा दिया गया है? अपनी मर्जी़ का शिकार करने और उसे बनाने-खाने का तो मज़ा ही और है। इससे भी तो सरकार व्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता का हनन कर रही है।
पिता: बेटा, यह तो पर्यावरण की सुरक्षा के लिये अति अनिवार्य है। अन्‍यथा जंगलों में कई पशु-पक्षियों की प्रजातियां ही लुप्‍त हो रही हैं। शेरों व बाघों की संख्‍या कम होती जा रही है। प्रतिबन्‍ध लगाने के फलस्‍वरूप ही इन जानवरों की संख्‍या में वृद्धि हुई है।
बेटा:  पिताजी, आप चाहे सरकार की जितनी भी तर्फदारी कर लो पर एक बात तो है कि सरकार एक के बाद दूसरा प्रतिबन्‍ध्‍ा लगाती जा रही है और व्‍यक्ति की अपनी मनमर्ज़ी का खाने-पीने की स्‍वतन्‍त्रता लुप्‍त होती जा रही है। सरकार ने सार्वजनित स्‍थानों पर सिगरेट-तम्‍बाकू पीने पर भी प्रतिबन्‍ध्‍ा लगा दिया है। इसी प्रकार सरकार ने व्‍यक्ति की ड्रग सेवन की स्‍वतन्‍त्रता भी समाप्‍त कर दी है। लोगों को जेल में डाल रही है। इस कारण इस व्‍यवसाय में लगे ग़रीबों की रोज़ी-रोटी छिन रही है।
पिता: तू तो मुझे महामूर्ख लगता है। तुझे यह भी समझ नहीं आता कि सरकार यह सब जनता की भलाई के लिये ही कर रही है। तेरे को पता नहीं कि तम्‍बाकू कैंसर को खुला न्‍यौता है। भारत में इस कारण हुये कैंसर से सब से अधिक लोग मौत का शिकार होते हैं।
बेटा:  कुछ भी हो। यह तो व्‍यक्ति को सोचना है। सरकार क्‍यों व्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता पर कुठाराघात कर रही है? व्‍यक्ति को किसी चीज़ से फायदा है या नुक्‍सान यह व्‍यक्ति ने सोचना है, सरकार ने नहीं।
पिता: मुझे तो तेरी अक्‍़ल पर तर्स ही आ रहा है। क्‍या सरकार लोगों को ऐसे ही मरने दे?
बेटा:  यदि कोई ऐसा कर मरने का प्रबन्‍ध कर रहा है तो सरकार के पेट में क्‍यों दर्द हो रहा है? यह तो व्‍यक्ति की निजि स्‍वतन्‍त्रता का मामला है। यदि कोई व्‍यक्ति अपनी निजी स्‍वतन्‍त्रता की रक्षा की लड़ाई में शहीद होना चाहता है तो सरकार को क्‍या परेशानी है?
पिता: तो क्‍या सरकार अपनी युवा पीढ़ी को इस प्रकार के व्‍यस्‍नों में पड़ने दे और मरने दे?
बेटा:  पर पिताजी, कुछ भी हो। व्‍यक्तिगत इच्‍छा व अधिकार भी तो कोई चीज़ है।
पिता: तब तो व्‍यक्तिगत स्‍वतन्‍त्रता के तेरे जैसे उपासक तो यह भी मांग करने लगेंगे कि हमें जुआ खेलने, सट्टा लगाने, अनेक शादियां रचाने, कोठों पर जाने आदि सब की खुली छूट होनी चाहिये। घूसखोर तो घूस को अपना मौलिक अधिकार जताने लगेंगे।
बेटा:  पिताजी, व्‍यक्तिगत स्‍वतन्‍त्रता व मानवाधिकारों को जब सरकारी इतनी बेडि़यों में जकड़ कर रखेगी तो जनतन्‍त्र में व्‍यक्तिगत स्‍वतन्‍त्रता का गला ही घुट कर रह जायेगा। उसमें से आत्‍मा निकल जायेगी, बस हड्डियों का पिंजर ही बचा रह जायेगा।
पिता: यह सारी स्‍वतन्‍त्रतायें नहीं बेटा, उच्‍छृंखलायें हैं। यदि यह सब मिल गईं तो स्‍वतन्‍त्रता भी सभ्‍यता के उदय से पूर्व का जीवन बन कर रह जायेगी।
बेटा:  पर पिताजी, इतना तो आप भी मानेंगे कि जो व्‍यक्ति रोज़ मांस का सेवन करता है उसके लिये तो दो दिन उसके बिना रह पाना बड़ा कठिन है ।
पिता: लोग उपवास नहीं रखते? रोज़े तो पूरा मास चलते हैं।
बेटा:  पिताजी, वह तो और बात है। मैं तो ऐसा नहीं कर सकता।
पिता: मेरे से अपनी पोल मत खुलवा। जब तू अपनी बीवी से लड़ने के बाद दो-दो दिन खाना नहीं खाता, तो कैसे चल जाता है? मैं बीच में पड़ कर सुलह-सफाई करवा देता हूं वरन् तेरे को भोजन के लिये बीवी के पांव पकड़ने पड़ते।
बेटा:  पिताजी, आप तो मेरी पोल सब के सामने ही खोलने बैठ जाते हैं। इतना तो लिहाज़ किया करो कि मैं आपका बेटा हूं।
पिता: जब तू फिज़ूल की शेखियां वघारने लगता है, बहस करने लगता है तो फिर मुझे गुस्‍सा आ जाता है और मेरे से रहा नहीं जाता।
बेटा:  पर पिताजी आप यह तो मानते हैं कि भारत एक सैकुलर देश है। उसे तो अपने अल्‍पसंख्‍यक भाइयों का भी ध्‍यान रखना पड़ता है। उन पर तो किसी प्रकार का ऐसा प्रतिबन्‍ध लगाना सैकुलरीज्‍़म के हमारे उच्‍च सिद्धान्‍तों की छाती में छुरा घोंपने बराबर है।    
पिता: बेटा, इस मामले को तो कुछ राजनीतिक दल जानबूझ कर इस बात को हवा दे रहे हैं। अल्‍पसंख्‍यकों के कई धार्मिक नेताओं ने तो इस प्रतिबन्‍ध का स्‍वागत किया है। आम नागरिक को तो दो जून की रोटी के ही लाले पड़े रहते हैं। उसे मांस खाने के मौलिक अधिकार की बात छोड़ो, भरपेट भेजन पाने का ही अधिकार नहीं मिलता।
बेटा:  पर जो खाये बिना नहीं रह सकते उनका भी तो ध्‍यान रखना होगा।
पिता: इस पर तो न्‍यायालय ने भी कह दिया है कि दो दिन के प्रतिबन्‍ध से कोई फर्क नहीं पड़ता। फिर बेटा बहुसंख्‍यकों के भी तो अधिकार हैं। उनकी भी भावनायें हैं। उनका सम्‍मान करना और उन्‍हें ठेस न पहुंचने देना अल्‍पसंख्‍यकों का भी तो कर्तव्‍य बनता है। इसे ही तो भाईचारा कहते हैं। वस्‍तुत: अल्‍पसंख्‍यकों का भारी बहुमत भाईचारा ही बनाये रखना चाहता है।  मीडिया इस बहाने अपनी टीआरपी बढ़ाने के चक्‍कर में है और राजनीति के लोग अपनी चुनावी रोटियां सेकने के।
बेटा:  मांस की इतनी महिमा सुनकर तो पिताजी अब मेरा दिल कर रहा है कि मैं भी इसे चख ही लूं। मैं जानना चाहता हूं कि आखिर इस में है क्‍या जो लोग इसके बिना एक-दो दिन भी नहीं रह सकते।
पिता: नालायक, तेरे को पता है कि मैं शाकाहारी हूं और मांस से नफरत करता हूं।
बेटा:  पिताजी, मैं आपको मांस खाने के लिये थोड़े कह रहा हूं। मैं अपनी थाली में मांस खाऊंगा, आप अपनी थाली में घास-फूस खाइये।
पिता: ज्‍य़ादा बकवास मत कर। तू मेरे सामने थाली रखकर मांस खायेगा?  
बेटा:  पिताजी, यह तो मेरा मानवाधिकार है और स्‍वतन्‍त्रता।
पिता: तेरे अधिकार व स्‍वतन्‍त्रता की ऐसी तैसी। मैं तुझे घर से निकाल बाहर फैंक दूंगा।
बेटा:  पिताजी, आप ऐसा नहीं कर सकते। मेरा भी इस घर पर अधिकार है।
पिता: अच्‍छा, अधिकार और स्‍वतन्‍त्रता तुझ जैसे नालायक की है और मेरा कुछ नहीं?
बेटा:  मैं आपकी इस मनमानी के विरूद्ध अदालत का दरवाज़ा खटखटाऊंगा।
पिता: जा-जा। तू घर से बाहर तो जा। मैं अपना दरवाज़ा बन्‍द कर लूंगा। मैं देख लूंगा। तू जा तो सही।
बेटा:  पिताजी, क्षमा कर दो। मैं तो मज़ाक कर रहा था। आपको तो पता है कि मैं मांस कहां खाता हूं?
पिता: ठीक है, ठीक है। पर मैं तुझे बता दूं कि मैं मज़ाक नहीं कर रहा था।

                             *** 
Courtesy: UdayIndia (Hindi) 
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