Sunday, August 21, 2016

हास्य-व्यंग — अभी तो वाशरूम ही रेस्टरूम बना है, आगे-आगे देखिये होता है क्या

हास्य-व्यंग
         कानोंकान नारदजी के

अभी तो वाशरूम ही रेस्टरूम बना है, आगे-आगे देखिये होता है क्या  

 
बेटा:   पिताजी।
पिता:  हांबेटा।
बेटा:   कल मैं बड़ी मुश्किल में फंस गया।
पिता:   क्या हुआ?
बेटा:    मैं एक कार्यक्रम में गया था। मुझे पेशाब आया तो मैंने साथ बैठे एक
       महानुभाव से पूछा कि उन्हें पता है कि बाथरूम कहां है?
पिता:   फिर?
बेटा:   उसने मेरी तरफ इस तरह से देखा जैसे कि मैं किसी और दुनिया से आया हूं। हूं कह कर   उसने मुंह दूसरी ओर फेर लिया।
पिता:   फिर तूने क्या किया?
बेटा:   मुझे पेशाब बड़े ज़ोर से आया था। मैं बाहर निकल गया। बाहर गया तो मुझे एक व्यक्ति दिखाई    दिया जो कोई कर्मचारी ही लगता था। मैंने उससे भी 'बाथरूम कहां हैपूछा। उसने विनम्रता से       कहा, ''यहां बाथरूम नहींरैस्टरूम है''
पिता:   पर तुझे तो पेशाब जाना था।
बेटा:    यही तो मुसीबत थी। मैंने कहा, ''भैय्यामुझे आराम नहीं करनापेशाब जाना है''
पिता:   फिर क्या हुआ?
बेटा:   उसने मुझे घ्यान से देखा और मुस्कराते हुये कहा, ''हांवहीं करिये''। मैं बहुत परेशान हो उठा।      मैंने फिर हैरान होते हुये पूछा, ''रैस्टरूम में पेशाब करूं?'' वह झलझला उठा। बोला, ''हां भई हां। जाओ तो सही''

पिता:   फिर गया तू
बेटा:   हॉंपिताजी मैं गया। मैं हैरान हो गया जब वहां मैंने देखा कि लोग वहॉं आम बाथरूम की तरह     ही पेशाब कर रहे थेहाथमुंह धो रहे थे। हांनेपथ्य में संगीत अवश्य बज रहा था।
 
पिता:  सच?
बेटा:   हां पिताजी।   
पिता:  तो बाथरूम और रैस्टरूम में अन्तर क्या है?
बेटा:   यह तो वह ही जाने।
पिता:  बेटामेरी समझ के मुताबिक तो रैस्टरूम का ​अर्थ तो विश्राम का स्थान है।
बेटा:   तब पिताजीबैडरूम क्या हुआ?
पिता:   मेरी समझ के अनुसार तो बैडरूम में हम सोते और आराम करते हैं।
बेटा:   मैं भी तो यही हैरान हूं। वहां तो कोई आराम नहीं कर रहा था। तो यह रैस्टरूम वाला तमाशा      क्या है?
पिता:   मेरे को तो बेटा समझ नहीं आ रहा कि स्थान तो वही ही है पर उसके नाम बारबार बदलते जा रहे हैं। पहले महाराष्ट्र में इसे सड़ांध कहते थे और अन्य स्थानों पर पेशाबघर।
बेटा:   बाद में पिताजीपहले बाथरूम और फिर जनसुविधायें भी कहा जाने लगा।
पिता:  बेटाएक घटना तो मैं तुझे भी याद करा दूं। तुझे याद है कि कई साल पहले जब तू छोटा था तो   मैं परिवार को शिमला घुमाने ले गया था। शिमला के माल रोड पर हम घूम रहे थे। वहां तूने   देखा कि माल रोड के किनारे बोर्ड लगे थे 'मैन्नऔर दूसरी तरफ 'वीमैन्न'। तब तूने पूछा    ''पिताजीजो तो 'मैन्नकी तरफ जा रहे हैं वह तो मर्द हुये और जो दूसरी ओर जा रहे हैं वह    महिलायेंतो जो हम माल रोड पर घूम रहे हैं वह कौन हैं? मैं निरूत्‍तर हो गया था।
बेटा:   पर पिताजी मेरा भी तो प्रश्‍न कोई गलत था क्‍या?
पिता:  बिलकुल नहीं। यह प्रश्‍न तो स्‍वाभाविक था। यह तो किसी भी जिज्ञासु बच्‍चे के मन में उत्‍पन्‍न     हो सकता है।
बेटा:   पर पिताजी, एक ही चीज़ के नाम बार-बार क्‍यों बदले जाते हैं?
पिता:  शायद इसलिये कि लोगों का विश्‍वास है कि बदलाव ही जीवन है। वह समझते हैं कि कुछ न       कुछ तो बदलता ही रहना चाहिये वरन् जीवन कुछ ठहर गया लगता है।
बेटा:   पर यह बदलते क्‍यों रहते हैं?
पिता:  बेटा, समझ तो मुझे खुद नहीं आता। जब मैं पेशाब करने जा रहा हूं तो मूझे यह कहने में क्‍यो’    शर्म आ जायेगी जब मैं यह कहूं कि मैं पेशाबघर जा रहा हूं?
बेटा:   शायद उन्‍हें पेशाब का नाम लेना अच्‍छा नहीं लगा इसलिये उन्‍होंने इसका नाम बाथरूम बना दिया।
पिता:  बेटा, तो यह सि‍विलाईज्‍़ड लोग क्‍या यह भ्रम पैदा करना चाहते हैं कि वह पेशाब करते ही    नहीं?
बेटा:   यदि उनका अभिप्राय यह था तो वह तो अपना ही मूर्ख बना रहे थे। जब उन्‍होंने यह कहना शुरू    किया कि वह बाथरूम जा रहे हैं तब भी तो उन्‍होंने भ्रम ही पैदा किया। बाथरूम का तो अर्थ   होता है स्नानालय। पर वह स्‍नान तो करते नहीं थे। वह तो पेशाब करने ही जाते थे।
पिता:   यह तो बेटा बड़े आदमियों के चोंचले हैं और कुछ नहीं।
बेटा:    पिताजीएक बार तो मैं बहुत बुरी तरह फंस गया था इस पेशाब और बाथरूम के चक्कर में।      मैं किसी के घर बैठा था। मुझे पेशाब आ गया। मैंने यह सोचकर कि यहां से जल्दी ही निकल   जाऊंगा तो मैंने काफी देर रोके रखा। पर मुझे देर लग गई। जब बहुत देर हो गई तो मुझे पूछना    ही पड़ा कि बाथरूम कहां है। उस व्यक्ति ने एक बन्द दरवाज़े की ओर इशारा कर दिया। मेरा तो     बस पेशाब निकलने की वाला था। मैं दरवाज़ा खोल जब करने ही वाला था तो मैंने देखा कि वह       बाथरूम तो था पर पेशाब के लिये कोई स्थान नहीं था। मैं उल्टे पांव उस व्यक्ति के पास गया   और बताया कि मुझे तो पेशाब जाना है। उसने मुझे दूसरे द्वार की ओर इशारा कर दिया। वहां     पहुंच कर मुझे तसल्ली हुई। मुझे तो ऐसा लग रहा ​था कि पेशाब तो मेरी पैंट में ही निकल      जायेगा। वास्तव में उस महानुभाव ने नहाने के लिये अलग और पेशाब आदि के लिये अलग व्यवस्था कर रखी थी।
पिता:   उसके बाद तो बेटा बाथरूम का नाम वाशरूम बन गया।
बेटा:   पिताजीवाशरूम भी तो बेतुका नाम लगता है।
पिता:   अब तो वाशरूम भी रैस्टरूम बन गया है।
बेटा:   यह तो पिताजी और भी अजीब लगता है। वहां जाकर हम नहायेंगे या फ्रैश होंगे या आराम करेंगे?
पिता:   हो सकता है कि ये बड़े लोग फ्रैश होने को आराम करना ही मानते हों।
बेटा:   तो बैडरूम में हम आराम नहीं करते?
पिता:   बेटाआजकल चीज़ का मतलब ज़रूरी नहीं कि वही हो जो सामने दिखता हो।
बेटा:   यह बात तो ठीक है।
पिता:   अब तो बेटासब कुछ बदल ही रहा है। अब मातापिताचाचाचाचीतायाताईदादादादी     फूफाबुआ कहां रहेअब तो मौमडैडअंकलआंटी बन कर रह गये हैं। लोग कहेंगे ये मेरे     ब्रदरइनलॉसिस्टरइनलॉ हैं। समझ पाना ही मुश्किल है कि वह साला हैं या जीजासाली   हैं या भाबी। वस्तुत: रिश्तों का भी आधुनीकरण व सैकुलीकरण कर दिया गया है।
बेटा:   हां पिताजी अब तो पता ही नहीं चलता कि किसका किसके साथ क्या रिश्ता है। सब सभी को     अपना कज़न बता देते हैं चाहे वह लड़का हो या लड़की।
पिता:  कारण तो बेटा यही है कि हम अपने आपको भारतीय न होकर अंग्रेज़ व पश्चिमी सभ्यता का ही    भागी बताना चाहते हैं।  
बेटा:   मेरे साथ भी एक बार ऐसा ही हुआ। मैं अपने एक दोस्त के घर गया। सलीके से सम्मानपूर्वक मैं   ने उसकी मां को मम्मी न कह कर माताजी कह दिया। बस फिर क्या थावह तो नाराज़ हो   उठीं। कहने लगी कि यह लड़का तो मुझे किसी गांव से आया गंवार लगता है।

पिता:   बेटाहम में तो इतनी हीन भावना आ गई है कि जो पटपट अंग्रेज़ी बोलता हैचाहे ग़लत ही     सहीहमें उसे बड़ा सभ्य व ऊंचा मानते हैं। एक बार मैं श्ताब्दी ट्रेन में जा रहा था। वहां सब को     एक अखबार देते हैं। बांटने वाले ने बिना पूछे ही एक महिला को हिन्दी की अखबार दे दी। वह भड़क उठी। बोली, ''ओयेतू हमारे को हिन्दी वाली समझता हैमुझे अंग्रेज़ी का पेपर दे''
बेटा:   वैसे तो एक बार मैंने भी देखा। अपने आपको यह जताने के लिये कि वह अंग्रेज़ी जानता है और    पढ़ सकता हैएक व्यक्ति कुर्सी पर बैठ कर बड़ी शान से अंग्रेज़ी की अखबार पढ़ रहा था पर   उसने अखबार उल्टी पकड़ रखी थी।
पिता:   जब ढोंग करेंगे तो बेटा ऐसे ही जलूस निकलेगा।

पिता:  वैसे तो बेटा बहुत साल पहले मैंने धर्मयुग में एक कार्टून देखा था जिसमें दो अंग्रेज़ आपस में      बात कर रहे थे। एक कह रहा था कि 1947 में हमने बहुत बड़ी गलती कर दी। भारत छोड़ते     समय यदि हम कह देते कि हम अंग्रेज़ी भाषा को भी अपने साथ इंगलैण्ड ले जा रहे हैं तो    हिन्दोस्तानियों ने हमारे पांव पकड़ कर गिड़गिड़ाना था कि हम अंग्रेज़ी को नहीं जाने देंगेतुम भी       मत जाओ।
बेटाः   वैसे कार्टून में वर्तमान स्थिति में ठीक ही आंका गया लगता है।
पिताः  कुछ भी कहो बेटाहमारी संस्कृति ने विकास तो बहुत किया है। पहले नाई होते थेपंसारीधोबी    बढ़ईकुम्हारसुनार और लोहार और कई कुछ। पर अब तो ढूंढे नहीं मिलते। सब प्रोवीज़न स्टोर  जनरल स्टोरवाशिंग हाउसज्वूलरआयरन स्टोरहेयर कटिंग सैलून और पता नहीं क्या कुछ बन गया है।
बेटाः पिताजीपानवाईनानवाईहलवाई आदि बोलना आज के सन्दर्भ में अच्छा भी नहीं लगता।
पिताः बेटादेखते रहो। आज वाशरूम से रैस्टरूम बन गया है। आगे देखिये होता है क्या।
***
Courtesy: UdayIndia (Hindi) weekly 

Saturday, August 20, 2016


Punjab Elections Gaining Heat
Can Sidhu take the plunge and swim safe to the shore?

As of today, the cricketer-turned-politician and recently an entertainer in comedy shows, Navjot Singh Sidhu has not as yet resigned from BJP though he did from Rajya Sabha for which he was nominated only three months back. Yet, the media has created a hype as if the BJP has lost the electoral cricket match slated in early next year which it was, otherwise, sure to win. It has already put him in the Aam Aadmi Party's kitty and anointed him as its chief ministerial candidate though the AAP anxious to catch a big fish from the other side has, so far, refrained from saying so. Note further. Sidhu too has, so far, not resigned from the Party though his wife has gone on record saying his quitting Rajya Sabha amounts to quitting party.
As is the wont with most of the media, it is only highlighting the huge losses the BJP, in its opinion, is sure to score in the next election with Sidhu campaigning against the Akali-BJP alliance in power for the last about one decade. It is totally ignoring the other side of the story, the negative one of Sidhu, only because that heightens its hype and adds to the sensation.
Needless to recall that Sidhu stands convicted for culpable homicide not amounting to murder and sentenced to three years' jail besides a fine of Rs. One lakh. His appeal is pending in the Supreme Court. He could not have re-contested the 2009 election to Parliament from Amritsar had the eminent lawyer, Arun Jaitley, now Finance Minister in Narendra Modi led NDA government, not successfully pleaded before the court and succeeded in getting his sentence suspended. Sidhu had won in 2004 and repeated his victory in 2009.
It is also a fact that in the last elections to Punjab assembly in 2012 BJP's star campaigner Sidhu did not campaign for the Akali-BJP alliance because he had developed irreconcilable differences with those running the Akali Dal. He wanted the Party to sever the oldest alliance with Akali Dal. Yet it was voted into power with BJP winning a larger number of seats than last time. Yet, his wife was favoured with a ministerial berth in the new government. She too had an uneasy relationship with Akali Dal. She still continues in alliance government.
Sidhu had a perennial fight with Akali Dal holding the latter responsible for lack of development in his Amritsar constituency. On the other hand, Sidhu’s detractors charged him with ignoring the constituency at the cost of taking part in a programme that was popular with the name 'Laughter Challenge'.
In 2014 Parliament elections Sidhu was denied the nomination for the third time and Arun Jaitley was made the BJP candidate. Sidhu did not campaign for Jaitley whom he otherwise publicly accepted as his “mentor”. Even in the Modi wave Jaitley lost not for his own fault but for the sins of both Sidhu and Akali Dal.
Yet, Sidhu was made a Secretary of BJP at the national level. He still remained sulking, more active in Kapil's Comedy Show than in the discharge of his functions as a functionary of the party. The Kapil show did earn him hefty financial dividends  but these left him poor at the political level. In the elections which threw up BJP to power at the Centre for the first time, his showing at the campaign trail was few and far between.
BJP did try to keep the sulking Sidhu in good humour and continued to pamper him one way or the other. His nomination to Rajya Sabha, which he gladly accepted, was one such instance. In his first reaction after taking oath in April 2016, Sidhu said: “The present nomination by the Prime Minister Narendra Modi is significant for me as he is a great role model for me”.  But he did not consult PM before resigning.
After quitting Rajya Sabha on July 18 he said: "At the behest of the honourable PM, I had accepted the Rajya Sabha nomination for the welfare of Punjab. With the closure of every window leading to Punjab the purpose stands defeated. It is now a mere burden. I prefer not to carry it”.
While media is agog with hunches that Sidhu was unhappy at the treatment meted out to him by the party and that he had been ignored for a ministerial berth in the expanded Modi Council of Ministers a fortnight back, he seems to be trying to plunge into the uncertainty of the next year's assembly elections to stage a Kejriwal in Punjab. Otherwise, his political future stands eclipsed. Whether Akali-BJP alliance scores a hat trick or loses power, he will stand to lose in both eventualities.
Even if AAP finally decides to launch him as its chief ministerial candidate, he is not likely to have a smooth sailing. It is fallacious to measure the success of Kapil's comedy show as the barometer for Sidhu's acceptance as a chief minister in Punjab where his political role for the last over five years has been minimal. TV shows can contribute enormously to a person's popularity and financial standing but it is a hard nut to crack in elections. If occasional jumlas and comedy gimmicks in TV shows were to do the trick in parliament or assembly elections, then Kapil should win hands down from any constituency in the country. But that is a false assumption. Raju Srivastava who regaled audiences in a greater measure than Sidhu had a bitter taste of this electoral reality. Raju contested the last UP assembly election on Samajwadi Party ticket. Raju lost while his party won the UP election and formed government.
Further, both Akali Dal and Congress are most likely to throw a gauntlet of challenge for him. Congress chief ministerial candidate may invite him to fight against him from Patiala, Sidhu's home district, to test his popularity. Likewise, Akali Dal may ask him to try his popularity either against the elder Badal or his son Deputy CM Sukhbir Badal. Accepting either of the two challenges from Congress or Akali Dal may boomerang and shying away paint him as a paper tiger. Needless to recall that Kajriwal did challenge the sitting Congress CM Sheila Dikshit in her own constituency in Delhi and did win. But Punjab is not Delhi and Sidhu is not Kejriwal. Can Sidhu take the plunge?                                                                                  (Antaryami)
Courtesy: Uday India weekly (English)

Sunday, August 7, 2016

हास्य—व्यंग — मैं मच्छर महान

हास्यव्यंग
         कानोंकान नारदजी के
मैं मच्छर महान


मैं मच्छर हूं। इसमें शर्म की कोई बात नहीं है। तुम्हें इन्सान होने पर शर्म हो सकती है पर मुझे अपने मच्छर होने पर गर्व है।
यह  ठीक है कि तुम तो हर दूसरे आदमी को मच्छर कह कर उसकी खिल्ली उड़ाते हो। मच्छर की तरह मसल कर रख दूंगा'' — जैसे ​​​फिल्मी डायलॉग बोलकर तुम अपनी शेखी बघारते फिरते हो! ऐसा कहकर अपने आपको तीसमारखां जताने की कोशिश करते हो। यदि तुम इतने ही शक्तिशाली हो और मुझे मसलकर रख देने की तुम्हारी हिम्मत है तो फिर स्वयं लड़ाई न लड़कर मच्छर भगााने की क्रीमों कामच्छरदानियों कारातभर जलने वाली मैट या लोशनों का सहारा क्यों लेते हो ? बहादुर तो तुम बहुत बनते हो! अपने शौर्य के लम्बेचौड़े किस्सेबड़े बृहद ग्रन्थ लिखतेलिखवाते हो। पर मेरे साथ दोदो हाथ क्यों नहीं करतेमुझ से क्यों कारतापूर्वक छिपते फिरते हो कि कहीं मैं न आ जाउंमुझ से डर कर अपने घरदफतर के दरवाज़ेखिडकियों में जालियां लगवाते फिरते हो कि कहीं मैं अन्दर न आ जाउं। कमरों में भी न जाने क्याक्या जलातेछिड़कते फिरते हो। पर हे वीर मानवक्या तुम कहीं भी मुझे रोक पाने में सफल हुये होकभी नहींकहीं नहीं।मैं तुम्हारी तरह बुज़दिल नहीं हूं। तुम्हारी तरह पीछे से वार नहीं करता। पीठ के पीछे से  छुरा नहीं घोंपता। मैं आता हूं तो सामने से अपना सीना तानकर मारनेमरने के लिये तैयार होकर। तब तुम अपने आपको बचाने के लिये लगते हो हवा में ही हाथों की तलवारें चलानेमुझे पकड़नेमारने के लिये। पर मैं भी तो इतना कच्चा खिलाड़ी नहीं भइया कि मैं इतनी जल्दी और आसानी से तुम्हारे हाथ आ जाउं।कई बार तो मुझे मारने केलिये तुम अपने मुंह परअपने गालों परअपने सिर व माथे पर ऐसे तमाचे जड़ते फिरते हो जैसे कोई पागल हो गया हो और अपने आपको ही मार रहा हो। पर तब भी मैं क्या तुम्हारे हाथ आता हूंबेवकूफों जैसी तुम्हारी इन हरकतों पर मैं मंदमंद मस्कराता हूं तो कभी अबटहास करता हूं।
पर मैं तुम्हारे होथों कब आता हूंबचकर निकल जाता हूं। फिर लौट कर आता हूं और भी अधिक जोश और जज़्बे के साथ। तुम्हारे द्वारा सताये जाने पर भी मैं बदले की भावना से नहीं आता। फिर भी घटिया हथियार नहीं अपनाता। तुम्हारे द्वारा सताये जाने पर भी यदि मुझे पीछे से आना पड़े या कभी सोये पर भी वार करना पड़े तो मैं अपने आगमन का शंखनाद पूरी शक्ति से कर देता हूं ताकि किसी निहत्थे पर वार करने का पाप न लगे। फिर भी यदि तुम अपनी कुम्भकरणी नींद से नहीं उठो तो मेरा कसूर नहीं।
वास्तव में मेरी तो आदमी जात से ही दुश्मनी है! मैं तो सदा तुम्हारे साथ युद्ध की स्थिति में रहता हूं। मैं तो तुम्हारे खून का प्यासा हूं और सदा रहूंगा। मैं इन्सान का कितना भ खून क्यों न चूस लूंपर मैं सदा रहता हूं अतृप्तसदा प्यासा। मैं तो बस इतना जानता हूं कि मुझे तो हर हाल मेंहर स्थान परहर सूरत में तुम्हें काटना ही है। तुम्हारा खून पीनाचूसना हैचाहे कुछ भी हो।
तुम तो हर मरे हुये जानवर व पक्षी का मांस मिर्चमसाला लगाकर चटकारे लगाकर खा जाते हो। पर मैं जब खून पीता हूं तो स्वयं काट कर जीवित इन्सान का। मैं दूसरे के मारे शिकार का स्वाद नहीं चखता। जिनका लहू साफ नहीं होतास्वच्छ नहीं हातामीठा नहीं होता या स्वाद नहीं होता तो मैं उसका खून नहीं चूसता। तुम ने कई लोग देखे होंगे जो हांक मारते हैं कि उन्हें तो मच्छर काटता नहीं! ये वही लोग होते हैं जिन से मैं नफरत करता हूं। यह तो बस इन्सान ही है जो करेला भी खा जाता है और कड़वे घूंट भी पी जाता है। तुम तो मुझे कमज़ोर कहते हो पर अपने दिल से पूछो कि तुम कितने बहादुर हो। शेरबाघ तो क्यातुम तो एक गीदड़ का भी मुकाबला नहीं कर सकते। हाथीशेर सामने आ जाये तो तुम्हारे प्राण खुश्क हो जाते हैं। और मैं? मैं उनसे भी नहीं डरता। किसी से नहीं डरता। मैं सीना तान कर उनके सामने जाता हूं। मैं उन्हें भी उसी तरह काटता हूं जैसे कि तुम्हें। मैं उन पर भी पीछे से नहीं सामने से वार करता हूं।
मेरी पहुंचमेरी शक्ति का तुम अन्दाज़ा नहीं नहीं लगा सकते। तुम अपनीअपने देश की  कितनी भी सुरक्षा मज़बूत कर लो। लोहे के पर्दे लगा लगा लो। पुलिस खड़ी कर दो! सेना तैनात कर दो। पर मैं सारी सुरक्षा में सेंध लगा कर घुस ही जाता हूं। मैं दुनिया के सब से सुरक्षित अमरीका के राष्ट्रपति के व्हाईट हाउस भी पहुंच जाता हूं। रूस के राष्ट्रपति के निवास पर तो मैं जब चाहे चला जाता हूं। कोई शाही महल ऐसा नहीं है जो मेरा जानापहचाना नहीं है। दुनिया के परमाणु बम का ज़खीरा कहांकहां पर है यह मुझे सब मालूम है। पर मेरा आदर्श है। मैं इन्सान की तरह बेइमान नहीं कि कुछ डालर और पौंडों के चक्कर में आकर एक देश को दूसरे देश के राज़ बताता फिरूंपैसे कमाता फिरूं।
मेरी पहुंचमेरी शक्ति का तुम अन्दाज़ा नहीं नहीं लगा सकते। तुम अपनीअपने देश की  कितनी भी सुरक्षा मज़बूत कर लो। लोहे के पर्दे लगा लगा लो। पुलिस खड़ी कर दो। सेना तैनात कर दो। पर मैं सारी सुरक्षा में सेंध लगा कर घुस ही जाता हूं। मैं दुनिया के सब से सुरक्षित अमरीका के राष्ट्रपति के व्हाईट हाउस भी पहुंच जाता हूं। रूस के राष्ट्रपति के निवास पर तो मैं जब चाहे चला जाता हूं। कोई शाही महल ऐसा नहीं है जो मेरा जानापहचाना नहीं है। दुनिया के परमाणु बम का ज़खीरा कहांकहां पर है यह मुझे सब मालूम है। पर मेरा आदर्श है। मैं इन्सान की तरह बेइमान नहीं कि कुछ डालर और पौंडों के चक्कर में आकर एक देश को दूसरे देश के राज़ बताता फिरूंपैसे कमाता फिरूं। ऐसा करने पर मुझे तो इतने पैसे मिल सकते हैं कि मैं अपनी सारी मच्छर जाति का ही कायाकल्प कर दूं। पर में इतना गिरा नहीं हूं। मेरे भी कोई आदर्श हैं। हर तीसरे दिन हम अखबारों में पढ़ते हैं कि अमुक व्यक्ति ने अरबोंकरोड़ों डालर लेकर एक देश को दूसरे देश की गुप्त बातें व दस्तावेज़ पहुंचा दिये। पर आपने कभी पढ़ा कि किसी मच्छर ने भी ऐसा घृणित अपराध किया हो? यही है इन्सान और मच्छर में फर्क।
तुम इन्सान जो मर्ज़ी कर लो। चांद पर जा सकते हो। मंगल तक पहुंच सकते हो। पर मेरा मुकाबला नहीं कर सकते। तुम प्रयास करोफायदा मैं ही उठाउंगा। जब तुम चांद परमंगल पर पहुंच जाओगे तो देखना मैं भी तुम्हारे साथ ही वहां पहुंच जाउंगा। मैं यह भी बता दूं कि इन्सान का जीवन भी मेरे बिना अधूरा है। इन्सान को पत्नि का साथ चाहे न मिले मेरा साथ तो सदा मिलेगा और मिलता रहेगा।
तुम तो मेरा मुकाबला किसी भी बात में नहीं कर सकते। तुम बड़े महंगे टिकट खरीदते हो  वातानुकूलित राजधानी व शताब्दी ऐक्सप्रेस के। कई बात तो आपको सीट भी नहीं मिलती। पर मैं हूं कि मुझे रेल्वे ने बिना टिकट ने खुली छुट्टी दे रखी है कि मैं जब मर्ज़ी चाहूंजहां मर्ज़ी बैठूं और जहां चाहे उतर जाउं। मुझे कोई टोकने वाला नहीं है। मैं अपनी पसन्द का ब​ढ़िया से बढ़िया खाना खाता हूं।
अजीब विडम्बना है कि इन्सान में छूतछात है। कोई किसी का जूठा नहीं खातायहां तक कि बीवी अपने पति का भी नहीं। पर सभी इन्सान में चखा खााना बड़े शौक से बिना झिझक खाते हैं।
हवाई यात्रा का तो मज़ा ही कुछ और है। सुन्दर से सुन्दर एयरहोस्टैस हाथ जोड़ कर सवारियों का स्वागत करती हैं। पर उनकी यह हिम्मत नहीं कि वह मुझ से टिकट मांग बैठें। उन्हें पता है कि यदि वह ऐसी हिमाकत करेंगी तो मैं उनके गाल पर एक ऐसा टीका लगा दूंगा जैसे अस्पताल में परीक्षण के लिये खून लेते हैं। गाल पर ऐसी खुजली पैदा कर दूंगा कि वह गााल को रगड़ती रह जायेगी और वह लाल हो जायेगा। सब पूछेंगे कि क्या हुआ। वह शर्माती रह जायेगी। जहाज़ के अन्दर मैं जहां चाहूं बैठ जाता हूं।
चाहे जहाज़ हो या रेलआपको जो मांसाहारी या शाकाहारी भोजन परोसा जाता है पहले मैं ही उसे चखता हूं और आपको परोसे जाने योग्य समझता हूं। फर्क केवल इतना है कि तुम सब चटखारे मार कर खा जाते हो और मैं चुनचुन कर खाता हूं।
सब से बुरी बात जो इन्सान में है वह हैं जातिभेद व रंगभेद। पर हमारा समाज इतना महान् है कि इसमें कोई भेदभाव नहीं होता। मच्छर चाहे भारत का हो या चीन का या अमरीका का। चाहे वह जनतन्त्र का निवासी हो या तानाशाही का। सब एक होता हैएक जैसा होता है। उस पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है। वस्तुत: इन्सान तो कभी न कभीकहीं न कहीं ग़ुलाम अवश्य रहा पर मच्छर सदैव स्वतंत्र ही रहा है।
मेरे गौरव की गाथायें अनेक हैं। मैं किसी में भेदभाव नहीं बरतता। मैं  निर्धन को भी काटता हूं और धनाड्य को भी। छोटे को भी और बड़े को भी। मैंने हिटलर को भी काटा हैचर्चिल को भीस्टालिन को भीमाओ को भी। मैंने भारत के सभी प्रधान मन्त्रियों को खून चखने का गौरव प्राप्त किया है।
इन्सान और मच्छर को तो चोलीदामन का साथ है — जहां आदमी वहा मच्छर और जहां मच्छर वहां आदमी। यही कारण है कि कई सरकारें आईं और कई चली गईं। कई नेता आये और कई चले गये। सब कहते गये कि वह मच्छर का नामोनिशान मिटा देंगे। वह तो चले गये पर मैं मच्छर आज भी हूं और रहूंगा।
Courtesy: Udayindia Weekly (Hindi)

Saturday, August 6, 2016

Media Speculation not at Cost of Accountability

 

Media Speculation not at Cost of Accountability


By Amba Charan Vashishth

The media was agog with speculating that Nitin Patel will step into the shoes of Mrs. Anandiben Gujarat chief minister who had resigned. The atmosphere in Patel's residence turned festive and there were celebrations in anticipation of the impending elevation. But, finally it came out to be Vijay Rupani and Patel made his deputy.
Much before the actual reshuffle of the council of ministers by Prime Minister Narendra Modi took place on July 5, 2916 the media was agog with reports of certain individuals being inducted, some ministers being promoted and some others being dropped, a few for crossing the age-line of 75 or for poor performance.
These media reports created a very anomalous situation and embarrassing moments for everyone who figured in the news stories.
Those who were projected as probables in the council of ministers or being promoted started receiving a stream of well-wishers who made haste to be the first to congratulate with sweets and bouquets. The former could not afford to be discourteous to their visitors by refusing to accept the greetings in advance.
The most embarrassing had been the fate of those projected to be dropped. Their friends and relatives who used to visit them as a matter of routine started avoiding them during those days. They knew their friends would not be in a state of mind to receive them with a smile. The individual ministers too found it awkward to visit their constituencies, to attend public programmes fixed much earlier and even to step out of their bungalows for fear of facing the too caring friends, well-wishers and even media. In a way, these poor fellows were, per force, confined to their residences listening and following the reports on news channels and print media.
When the actual expansion occurred, hardly one percent of the predictions came out to be true. What was the result? Unnecessary worry and harassment of the persons figuring in the news. It would be no exaggeration to say that some persons had to spend sleepless nights with bouts of anxiety.
Afterwards, the media started interpreting the change of portfolios in their own way. It is the prerogative of a prime minister/chief minister to select or change his team. But the reasons that are imputed to change or not selecting some persons the media speculated are not always true. If a person's portfolio is changed, the reason can be non-performance, but not always. Why should PM/CM retain a person in his council of ministers who has failed to come to the expectations of his boss, both in government and ruling party? Can it not be that a PM/CM changes a portfolio to give the individual greater exposure and chance also to perform in his new charge? But the media is not condescending to strike at this positive side.
Hair-splitting has become the bane of today's journalism and negativism rules the roost. These days there are hardly news reports; these are news stories opinionated. Though best effort is made to make it appear fair and objective, yet slip of partiality of the reporter could not be hidden despite best efforts. And there can be no stories lacking the thrill of surprise and imagery. That is why they need not be true, always.
Journalism has, mainly, five objectives to perform: see, hear, observe, analyse and report. A reporter cannot tinge his/her writing with his opinion. If he does, the report loses its sense of fairness, impartiality and objectivity.  But that is the malady with which the present day media seems to be suffering. In fact, a majority of news reports these days have a mixture of facts and events interspersed with comments which fail to hide which side he/she stands. into being. But that too needed to keep one's proclivities and feelings at bay. The journalist's role then was to confine oneself to the facts that one discovers and reporting as a matter of fact. There was no room for subjectivity in such a report. The nobler characteristics of impartiality and objectivity got eclipsed.
Of late, another phenomenon of reporting based on assumptions has raised its head, more so in the electronic media engaged in a cut-throat competition to be the first to assumee and to, later, claim that this is what it had predicted much earlier. If the prophesies turn untrue, as mostly do those of astrologers and meteorologists, mum is the word without the least trace of repentance.
The media is the fourth pillar of democracy. Media is in the forefront to expect the three pillars of democracy — the executive, the legislature and the judiciary — to be accountable. But why should the fourth pillar, media, not be so?
The writer is a Delhi-based political analyst.
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