Saturday, July 22, 2017

हास्‍य–व्‍यंग रिश्‍ते–नाते प्‍यार-वफा सब बातें हैं

हास्‍यव्‍यंग
           कानोंकान नारदजी के
रिश्‍तेनाते प्‍यार-वफा सब बातें हैं
शरीर  तो  नश्वर  है, आने-जाने वाली वस्तु. आज यहाँकल वहां. अगर  कुछ निरंतर है  तो  वह  है आत्मा. इसी लिये तो हमारे संत-महात्मा कहते हैं कि प्यार करना हैसम्बन्ध रखना है तो आत्मा से जो अमर हैअजर है. लगता है यह उपदेश हमारी आजकल की जनता के मन में घर कर गया है. इसी लिये वह सारी ममता व सम्‍बंधों को शरीर से जोड़ते हैं। वह समझते हैं कि सारे रिश्‍ते-नाते शरीर से जुड़े हुये हैं जो नश्‍वर है। इस कारण वह रिश्‍तों को अधिक महत्‍व नहीं देते। 
            पहले तो मां-बाप संतान की चिंता में डूबे रहते है. घर गूँज उठे बच्‍चों की किलकारियों से, उसके लिए वह क्या कुछ नहीं करते. यदि संतान साधारण विधि से प्राप्त न हो तो वह सब दवा-दारू करते फिरते हैं जो हो सकती हो. मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों के चक्कर मारते हैं. साधू-संतों के आगे-पीछे घूमते है. व्रत रखते हैं. दान-पुण्य करते हैं. इतनी तपस्या के बाद जब पुत्र या पुत्री रत्न प्राप्त हो जाते हैं तो फूले नहीं समाते. अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए, उन्हें बड़ा करनेअपने पांव पर खड़ा करने के लिए वह क्या-क्या नहीं करते. वह स्वयं भूखे रह जाएँपर उनके बच्चे भर पेट खाएं — वह यह अवश्य सुनिश्चित करते हैं. जब बच्चे पढ़-लिख जाते हैंनौकरी मिल जाती है या कोई अपना व्यवसाय अपना कर अपने पांव पर खड़े होने वाले होते हैं या हो जाते हैं तो वह अपनी स्वयं सोचने लगते हैं. तब उन्हें माता-पिता की आवश्यकता नहीं रहती. तब वह अपने भाग्यविधाता स्वयं बन जाते हैं. अपना भविष्य वह स्वयं चुनने लग जाते हैं. तब यह उनका मौलिक अधिकार बन जाता है — मानवाधिकार जिसका कोई हनन नहीं कर सकता, जिसमें कोई दखल नहीं दे सकता — माता-पिता भी नहीं. माता-पिता ने उनके लिए अब तक क्या कियाक्या दुःख झेले, क्या कुर्बानियां दीं — वह बच्‍चों के लिये माता-पिता का कर्तव्य बन कर रह जाता है. तब बच्चों के सिर्फ अधिकार होते हैं और माता-पिता के हिस्‍से रह जातें हैं बस कर्त्तव्य, बच्चों पर अधिकार कोई नहीं, बच्‍चों के प्रति केवल कर्तव्‍य।
जिसको जन्‍म दिया है, जिसकी परवरिश की है, सेवा की है, उसको कोई सेक तक न लगे उसके लिये माता-पिता ने पसीना बहाया है, आंसू बहाये हैं, यदि वह पढ़ नहीं रहा, कहना नहीं मान रहा, वह उसे झिड़क नहीं सकते, उसे एक चपत नहीं मार सकते। केवल इस लिये माता-पिता के तो बच्‍चों के प्रति मात्र कर्तव्‍य होते हैं, कोई अधिकार नहीं। ऐसा करना बच्‍चों के प्रति अत्‍याचार बन जाता है।
     यही बात बच्‍चों के अध्‍यापकों की है। वह किसी बच्‍चे को सज़ा तो क्‍या झिड़क भी नहीं सकते यदि उसने होमवर्क नहीं किया हो। यदि कक्षा में शरारते करता हो या कर रहा हो। पर जब बच्‍चे फेल हो जाते हैं तो दोषार्पण शिक्षकों पर होता है। वह ठीक से पढाते नहीं हैं। बच्‍चों की देखभाल नहीं करते। शिक्षाग्रहण की प्रगति पर नज़र वह नहीं रखते। शिक्षकों की अपने विद्याथियों से कोई दुश्‍मनी होती है जो उन्‍हें घर को दिया काम कर के न आने पर या जो याद करने को दिया है उसे याद न कर आने पर उन्‍हें झिड़कें? ऐसी स्थिति में आज के युग में तो शिक्षकों का कर्तव्‍य बनता है कि वह अपने विद्याथियों की पीठ थपथपाये। उन्‍हें शाबास दें। जब कक्षा या स्‍कूल का परिणाम निराशाजनक आये तो अभिभावकों को चाहिये कि वह स्‍कूल व शिक्षकों को अपने विद्यार्थियों के अधिकारों का पूरा सम्‍मान करने और उन्‍हें झिड़क और कोई छोटी-मोटी सज़ा तक न देने केलिये पुरस्‍क़त करें।   
     एक समय था जब बच्‍चे माता-पिता से तो डरते ही थे पर उससे भी ज्‍़यादा डरते थे अपने शिक्षकों से। बच्‍चों को डराने के लिये माता-पिता उन्‍हें डराते थे कि वह यह बात उनके शिक्षक को बता देंगे। बच्‍चे अपने शिकों से इतना डरते थे कि वह माता-पिता के आगे गिड़गिड़ाते थे कि उनकी शिकायत उनके शिक्षक से न करें। तब वह अपने माता-पिता के सामने ऐसे दुम हिलाते फिरने लगते थे मानों उनसे बड़ा आज्ञाकारी कोई है ही नहीं।
     तब माता-पिता भी बड़े दकियानूस होते थे। यदि टीचर ने शिकायत कर दी कि उनका बच्‍चा घर का काम कर के नहीं आता या कोई और श्किायत हो तो माता-पिता स्‍वयं ही शिक्षक को दोषी ठहराते हुये पूछते कि आपने उसे डांटा क्‍यों नहीं, उसे ज़ोर से दो-चार चांटे क्‍यों नहीं लगाये? पर आज समय बदल गया हैा सब आधुनिक हो गये हैं। पश्चिम की अच्‍छी बातें सीख रहे हें। बच्‍चों के अधिकारों के प्रति बड़े सचेत हो गये हैं। अब यदि कोई शिक्षक उनके अभिभावक को चपत मारना तो दूर, उसे झिड़क भी दे तो अभिभावक कहते हैं कि बच्‍चा फेल होता तो उनका होता न, तुम्‍हारा तो नहीं। तुमने उस पर हाथ उठाने की हिम्‍मत कैसे की? वह तो अध्‍यापक के विरूद्ध कार्रवाई की मांग करते हैं। उसके विरूद्ध आपराधिक मामला दर्ज कर कड़ी से कड़ी आदर्श सज़ा दिलाना चाहते हैं ताकि कोई और अध्‍यापक भविष्‍य में ऐसी हिमाकत न कर सके।    
बच्‍चों को कहाँकब और किस से प्यार करना है या नहीं — यह बच्चों ने तय करना हैमाता-पिता ने नहीं। जब यह मुद्दा परिवार में उठता हैतो माता-पिता की सलाह उन्‍‍हें डिक्टेटराना लगती है। बच्चों के भी तो सपने होते हैं। उनकी भी कोई भावनाएं होती हैं। अपना भला-बुरा क्‍या है, वह माता-पिता से बेहतर बच्‍चे स्‍वयं समझ सकते हैं। वह अपना मार्ग स्वयं चुनना चाहते हैं वह भी तो अपना भला-बुरा सोचने की शक्ति रखते हैं। आपस की बात तब यहाँ तक पहुँच जाती है कि बच्चे माता-पिता को पूछने लगते हैं कि शादी उन्‍हें करनी है या आपको? लड़की या लड़के के साथ जि़न्‍दगी उन्‍होंने बितानी है या बच्‍चों ने? पसन्‍द बच्‍चों की होनी चाहिये या माता-पिता की? तब माता-पिता चुप हो कर रह जाते हैं। उन्हें अपने वाणी पर ताला ही लगाना पड़ता है। उनके पास और कोई चारा भी नहीं रह जाता.
कई माता-पिता बहुत हठीले निकलते हैं। उन्हें लगता है कि उनके बच्चे भटक रहे हैं माता-पिता की सोच-समझउनका अनुभव और उनकी अंतरदृष्टि उन्हें बताती है कि उनके बच्चे ग़लत रास्‍ते पर जा रहे हैं.। पर यह तो माता- पिता की 18वीं सदी की पुरानी सोच का कसूर है,। बच्‍चे माता-पिता की सोच को आधुनिक तराज़ू पर तोलते हैं। तब उनके तर्क में बच्‍चे कम वज़न पाते हैं। ये बुढऊ क्या जानें आज के प्रेम के बारीकियां।
असल में माता-पिता की सोच होती है पुरानी और बच्‍चों की आधुनिक। माता-पिता पीछे की ओर देखते हैं और बच्‍चे आगे की ओर। आखिर समझौता तो माता-पिता को ही करना पड़ता है। पड़ना भी चाहिये बच्‍चों की खुशी के लिये। बच्‍चों की खुशी में ही तो उनकी खुशी है। वह जीते किसकी खुशी के लिये हैं? सुखी वही माता-पिता रहते हैं जो बच्‍चों के माता-पिता नहीं उनके हमजोली बनकर रहते हैं।
प्‍यार करते तो बच्‍चे ही हैं पर यह भी सत्‍य है कि प्‍यार बच्‍चों का खेल भी नहीं है। यदि ऐसा होता तो संसार में लैला-मजनू और या शीरीं-फरहाद जैसे मशहूर किस्‍से भी न होते। प्‍यार बहुत बार जीवन की वास्‍तविकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता और तकरा‍र का रूप धारण कर लेता है। बात तलाक तक पहुंच जाती है। उस कठिन घड़ी में तब माता-पिता ही उनके परेशान सिर को कंधा प्रदान करते हैं, साथ खड़े होते हैं। यह उनका कर्तव्‍य भी तो है।
परेशानी तो तब पैदा होती है जब माता-पिता उसी रौ में नहीं बहते जिसमें उनके बच्‍चे बह रहे होते हैं। जब बहाव के विरूद्ध तैरने की कोशिश करेंगे तो उस बाढ़ में डूबना तो तय है। जब कई माता-पिता अपने प्‍यारे बच्‍चों की बात नहीं मानते जो उनका कर्तव्‍य है, तो उनको परेशानी का सामना करता पड़ता है। सज़ा भुगतनी पड़ती है। उनकी हठधर्मी से परेशान बच्‍चे कई बार आत्‍महत्‍या तक कर बैठते हैं। यह तो उनकी मेहरबानी होती है जब वह आत्‍महत्‍या का कोई लिखित कारण नहीं छोड़ जाते, किसी को दोषी नहीं बनाते। वरन् यदि उन्‍होंने लिख कर छोड़ दिया कि आत्‍महत्‍या इस लिये कर रहे हैं कि उनके माता-पिता ने उन्‍हें अपनी मर्ज़ी से शादी नहीं करने दी, तो जेल की सैर तो नि‍श्चित है। माता-पिता को चाहिये कि अपनी जिद्द छोड़ कर अपना कर्तव्‍य निभायें। वर्तमान युग में उनका अपने अधिकारों के बारे सोचना ही उनकी सब से बड़ी ग़लती है। इसी की सज़ा ऐसे माता-पिता भुगत भी रहे हैं।
यही कारण है कि आज के युग में माता-पिता और बच्‍चों के बीच प्रेम व लगाव कम होता जा रहा है। मन-मुटाव की खाई बढ़ती जा रही है। दूरी इतनी ज्‍़यादा होती जा रही है कि रिश्‍तों का मतलब ही नहीं रह गया है। अब तो भाई भाई के रिश्‍ते का मान नहीं रखता। अब तो कहने लगे हैं कि भाई का भाई से बड़ा दुश्‍मन नहीं होता। माता व पिता आंख के तारे अपने लाडले बेटे की हत्‍या करने लगे हैं। आये दिन पिता अपनी बेटी से, भाई अपनी बहन से, चाचे अपने भतीजी से, मामे अपनी भान्‍जी से बलात्‍कार के समाचार पढ़कर सिर शर्म से झुकने लगा है।
पर बात यह भी है कि आदमी है क्‍या? हाड-मांस का पुतला ही ना? वह तो नश्‍वर है। तो उस हाड-मांस के पुतले से प्‍यार क्‍या? रिश्‍ता क्‍या? प्‍यार व लगाव कैसा? आज है, कल नहीं है। इसी लिये लोगों ने इन मिथ्‍या रिश्‍तों की पहचान करनी बन्‍द कर दी है। उनका मान-सम्‍मान करना बन्‍द कर दिया है। उसकी रक्षा करनी बन्‍द कर दी है। गुरू और चेले की तो बात ही और है। विद्यार्थियो और श्क्षिकों के बीच प्‍यार व बलात्‍कार के किस्‍से भी अब आम होने लगे हैं। लोग कहने लगे है कि घोर कलियुग आ गया है। कुछ भी हो। इतना तो साफ है। अब रिष्‍तोनातों का महत्‍व क्षीण्‍ होता जा रहा है। आधुनिक युग की यह देन तो स्‍वागत योग्‍य ही है।                            ***     
Courtesy: Udai India (Hindi weekly)