Thursday, October 26, 2017

हास्‍य-व्‍यंग पत्नियों के किस्‍से मर्दां की ज़ुबानी

हास्‍य-व्‍यंग
       
पत्नियों के किस्‍से मर्दां की ज़ुबानी

सच्चाई तो यह है कि जब मर्द अपनी घरवालियों  की ग़ैरहाज़िरी में हलके-फुल्के माहौल में बैठते हैं तो बीवियों के चटकारे लेते हैं और जब बीवियां मिल-बैठती हैं तो मर्दों के गुलछर्रे उड़ाती हैं. इसी से निकलती हैं हास्य की फुहारें. यह बातें होती हैं कुछ घडी-घड़ाईकुछ सुनी-सुनाई और कुछ पत्र-पत्रिकाओं से.
सुनते हैं कि एक पति थका-हरा अपने कार्यालय से आया. उसे बहुत भूख लगी थी. आते ही उसने अपने जूते उतारे और अपनी बीवी से कहा, "मुझे बहुत भूख लगी है. खाना तैयार है?"
कपड़ों को तैह लगते हुए बीवी ने सहज भाव से उत्तर दिया, "हाँगली पार के रेस्त्रां में".
कुछ स्त्रियां बड़ी भावुक होती हैं. वह यह नहीं सह सकतीं कि उनके पति को किसी प्रकार की पीड़ा होदुःख लगे. ऐसी ही एक पत्नी ने देखा कि उसका पति प्रातः उठते ही बड़ा उदास है. उसने पति से पूछा, "क्या बात हैआप सुबह से ही बुझे-बुझे उदास क्यों हैं?
पति ने उसे टालते हुए कहा, "कुछ नहींयूं ही".
पत्नी ने कहा, "बात तो कुछ है. आप तो आम तौर बड़े हँसते-खेलते  मूड में होते हैं. आप मुझ से कुछ छिपा रहे हैं."
पति ने उसे टालते हुए कहा, "नहींऐसे ही".
पत्नी कहाँ छोड़ने वाली थी. उसने ज़िद्द कर कहा, 'नहींकुछ बात तो ज़रूर है. मैं आपके  बामांगनी हूँ. मुझ से कुछ मत छिपाओ."
"नहींमैंने कहा न कि कुछ बात नहीं है"
"नहीं. कुछ बात तो अवश्य है. तुम मुझ से कुछ छुपा रहे हो. तुम्हें मेरी कसम. बताओक्या बात है?"
अब पति क्या करता. उसे  हथियार डालने पड़े. बोले. "मैं ने एक बड़ा बुरा सपना देखा रात को'.
"क्या देखा उसमे तुमने?"
पति ने कहा, "कह तो दिया कि बुरा सपना था. अब छोडो बता को."
"मैंने बता दिया"पति बोलै.
"नहींमुझे बताओ कि तुमने देखा क्या". पत्नी हठ पर उतर आयी.
आखिर पति को झुकना ही पड़ा. बताया. "मैंने सपने में देखा कि मैं रँडुआ हो गया हूँ".
यह सुन पत्नी को बड़ा दुःख हुआ. उसके पति को क्यों आंच भी आये. एक दम बोल पड़ी, "हाय-हायआप क्यों रँडुआ होएं. मैं ही रंडी (विधवा) हो जाऊं". 
ऐसे ही कुच्‍छ पत्नियां होती हैं जो बड़ी भावक होती हैं और अपने पति का न बुरा सुन सकती हैं और न बोल सकती हैं। ऐसी ही एक महिला का पति बड़ा मायूस था। कहने लगा कि मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि मैं ही अपना सब से बड़ा दुश्‍मन हूं। इस पर उसकी पतिब्रता वामांगनी तुरन्‍त कह उठी – ‘’देखोजी, मेरे होते यह बात कभी न सोचना और न ही ज़ुबान पर लाना।
कई महिलायें ऐसी होती हैं जो अपने घरवाले पर पूरा अधिकार जमाती हैं। ऐसी ही एक महिला ने अदालत में तलाक लेने केलिये मुकद्दमा दायर कर रखा था। जज ने उससे पूछा – तुम उससे तलाक क्‍यों लेना चाहती हो’’?
महिला ने अपने पति पर पूरा अधिकार जमाते हुये उल्‍टे जज पर ही स्‍वाल कर दिया। पूछा – ‘’क्‍यों वह मेरा पति नहीं है?
इसी प्रकार एक महिला पर मुकद्दमा चल रहा था। जज ने पूछा – ‘’तुमने अपने पति पर कुर्सी क्‍यो मार दी?
रूंधी हुई आवाज़ में उसने उत्‍तर दिया – ’’मैं क्‍या करती जनाब? मैं अबला हूं इसलिये। मैं मेज़ नहीं उठा सकती हूं।‘’
एक बार पति को अपनी अर्धांगिनी पर बड़ा प्‍यार आ गया। उसने उसे कहा कि तुम मुझे बहुत अच्‍छी लगती हो। पत्नि ने कड़क जवाब दिया ‘’ठीक से सुन लो। मैं तुम्‍हारी पत्नि हूं, प्रेयसी नहीं। तुम सीधे मेरे लिये एक बढि़या सी साड़ी ला दो। वरन् देख लेना।
य‍ह उस समय की बात है जब गांव में लकड़ी के चूल्‍हे पर खाने-पकाने का सारा काम होता था। चूल्‍हे के पास बैठकर गर्म-गर्म दाल-भाजी व चूल्‍हे से निकलता फुल्‍के का आनन्‍द ही कुछ और होता था। पत्नि अपने घरवाले को बड़े प्‍यार से खाना खिला रही थी। पति ने  प्रसन्‍न होकर कहा – ‘’जब तुम 25 साल की थी तो बड़ी सुन्‍दर थी।‘’
इस पर पत्नि को ग़ुस्‍सा आ गया। चूल्‍हे में जलती एक लकड़ी उसके बाज़ू पर मारते हुये बोली – क्‍यों? मैं आज भी 25 साल की नहीं हूं क्‍या?’’
सच्‍चाई तो भैय्या यह है कि रोते सभी हैं। कुछ शादी करवा कर और कुछ न करवा कर।
एक अपनी बीवी की तारीफ करने लगा। कहता कि वह तो इतनी अच्‍छी है कि में रात को 11-12 बजे भी घर लौटूं तो भी वह मुझे पानी गर्म कर के देती है।
‘’तुम रात को आकर नहाते हो?’’ मित्र ने पूछा।
‘’नहीं।‘’ उसने बताया। ‘’मैं ठण्‍डे पानी से बर्तन नहीं मांज सकता, इसलिये।‘’
पति ने फोन पर पूछा, ‘’मैं आ रहा हूं। खाना तैय्यार है न?’’
’’बिल्‍कुल तैय्यार।‘’ पत्नि बोली। ‘’मैं तो तुम्‍हारा ही इन्‍तज़ार कर रही हूं कि तुम आओ तो खाऊं।‘’
दहेज़ के विरूद्ध आन्‍दोलन में जगह-जगह लिखा मिलता है – पत्नि ही दहेज़ है। दहे़ज़ न लेने वालों के यही तो अभिशाप बनकर रह जाता है कि उसने पत्नि ली, दहेज़ नहीं। यह उसके लिये सारी उम्र की मुसीबत बन जाती है।
एक आदमी भागा-भागा अदालत पहुंचा और रो-रो कर दुहाई देने लगा – सॉब, मेरे दोस्‍त को बचाओ। उसकी जि़न्‍दगी तबाह हो जायेगी। वह बर्बाद हो जायेगा।‘’
जज ने  भी बड़ी संजीदगी से पूछा – ‘’क्‍या बात है?’’
‘’जज सॉब, वह मेरी बीवी से शादी करने जा रहा है।
               यह आम धारणा है कि दूल्‍हा दुल्‍हन से उम्र में बड़ा और कद में लम्‍बा होना चाहिये। इस परम्‍परा का लाभ महिलायें ही उठाती हैं। एक ने स्‍पष्‍ट कर दिया। उम्र छोटी इसलिये कि दुल्‍हन दूल्‍हे से सदा जवान लगे और कद छोटा इसलिये कि जब औरत अपने पति से बात करे तो सिर उठा कर और मर्द उस  से जब बात करे तो सिर झुका कर। यह परम्‍परा कायम करनेवाली लम्‍बी सोच वाली कोई महिला ही लगती है।
               पत्नि पूरी सजी-संवरी थी। हाथ में पूजा सामग्री थी। थाली में मीठे पकवान भी थे। उसने एक बड़ी प्‍यारी मुस्‍कान देकर पति के पांव छुये। पति ने आशीर्वाद दिया। बोली – ‘’आज मैंने तुम्‍हारे लिये ब्रत रखा है। सुबह से मैंने कुछ नहीं खाया है। पानी तक नहीं पिया है। ईश्‍वर से तुम्‍हारी दीर्घ आयु, वैभव और समृद्धि-सम्‍पन्‍नता केलिये प्रार्थना की है।‘’
               पति बोला  --’’अच्‍छा? मैं तो आज तक यही समझता था कि यह काम तुम रोज़ ही करती हो।‘’
               सारी गप्‍प-शप्‍प का समापन तो तब हुआ जब एक ने गृहलक्षमी की परिभाषा सुना डाली। उसने कहा कि उसने एक साप्‍ताहिक पढ़ी थी। उसमें लिखा  था कि गृहलक्षमी वह जो घर को स्‍वर्ग और घरवालों को स्‍वर्गवासी बना दे। सभी ठहाका मार कर हंस पड़े। उन सबका हल्‍का-फुल्‍का मूड भी संजीदगी में बदल गया। सब की घर की मालकिनें जो आ धमकी थी इसी बीच।              ***  
Courtesy: UdayIndia Hindi weekly.

Thursday, September 7, 2017

हास्‍य-व्‍यंग हास्‍य आपातकाल और नसबन्‍दी में

हास्‍य-व्‍यंग
          
 आपातकाल और नसबन्‍दी
1975 में जब आपातकाल लगाया गया तब वह बड़ा भयावह समय था. पर हास्य उस समय भी उपजे बिना न रह सका.  उस समय जब डर का माहौल था और लोगों के चेहरे पर से मुस्कान लगभग ग़ायब हो गयी थीलोगों ने उस समय भी मुस्कान लौटाने के लिए हास्य का ही सहारा लिया.
उन दिनों श्रीमती इंदिरा गाँधी की गद्दी के स्पष्ट दावेदार संजय गाँधी की ही तूती बोलती थी. उनके इशारे के बिना तो कहते हैं पत्ता भी नहीं हिल पाता था. उन पर कई फब्तियां कसींगयीं. उस समय संजय का स्वप्निल प्रॉजेक्ट छोटी कार मारुती नयी-नयी चर्चा में थी. तो लोग कहते थे कि यह कार मारुती नहीं "माँ-रोती" है.
संजय गांधी तब युवा नेता के रूप में उभरे थे. युवा कांग्रेस का बोलबाला था. सभी उस के सदस्य बनना चाहते थे. युवा कांग्रेस का सदस्य होना उस समय एक ग्लैमर और गौरव का विषय था. उस समय एक कार्टून आया. उस में एक बूढा कांग्रेसी नेता लाठी के सहारे युवा कांग्रेस कार्यालय पहुंचा और उसका सदस्य बनने का आग्रह करने लगा. उसका दवा था कि अपने वक्त में तो वह भी सुडौलसुन्दर और शूरवीर जवान थे. तब सुंदरियाँ हम पर मरा करतीं थीं. हमारे साथ आँख लड़ाने के लिए तरसती थीं.
संजय गांधी ने नसबंदी पर बड़ा ज़ोर दिया था. वह देश की आबादी पर नियंत्रण रख कर देश को आगे ले जाना चाहते थे.  आंदोलन तो बड़ा अच्छा था पर कुछ ग़लत रास्ते पर धकेल दिया गया जिस कारण बाद की सरकारें उस पर ध्यान न दे पाईं क्योंकि उनको भी यही खदशा रहा कि उनकी भी बाद में हालत वही न हो जाये जो आपातकाल हटने के बाद हुये 1977 के चुनाव में श्रीमती गाँधीस्वयं संजय गाँधी और कांग्रेस की हुयी.
उन दिनों नसबंदी पर इतना ज़ोर था कि सरकार का सारा ध्यान ही उधर केंद्रित लगता था. सरकारी अफसरों को नसबंदी के मासिक लक्ष्य दे दिए गए थे. वह अपने विभाग का कार्य न कर जैसे भी हो कोई ऐसी नयी मुर्ग़ी फंसाने में जुटे रहते थे कि उनका लक्ष्य पूरा हो जाये.
उन दिनों भूमिहीनों को भूमि देने पर बड़ा ज़ोर था. कई स्थानों पर तो भूमिहीनों को ज़मीन की पट्टे देने के बहाने बुलाया और साथ में उन सब की नसबंदी कर दी.
सरकारी अफसर और कर्मचारी भी मुसीबत में रहे. जिनकी उम्र 50 से कम थी उनकी तो शामत आ गयी थी. नसबंदी उनकी पदोन्नतिसालाना वेतन वृद्धिगृह ऋण आदि की लिए आवश्यक योग्यता व वरीयता बन गयी थी. अगर उनके पास नसबंदी सर्टिफिकेट नहीं तो समझो उनके पास कुछ नहीं. वह किसी योग्य नहीं. वह किसी चीज़ की पात्र नहीं.
जिनके दो से अधिक बच्चे थे वह तो किसी भी हालत में बख्शे ही नहीं जा सकते थे. कुछ लोग टालमटोल करने की कोशिश करते रहे पर उनकी हालत थी कि बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी.
एक प्रदेश में एक स्कूल भवन में नसबंदी का एक शिविर लगाया गया. मंत्री महोदय ने उसका उद्घाटन किया. उसी शाम कुछ ऑपरेशन कर दिए गये. कुछ इन्फेक्शन वग़ैरा हो गयी जिस कारण दो आदमियों की मृत्यु हो गयी. बस फिर क्या था ज्योंही बात फैलीकिसी ने स्कूल का  दरवाज़ा नहीं ढूँढा. शिविर में आये सभी वालंटियर स्कूल के कमरों की खिड़कियों से ही छलांग लगा कर भाग गए.
कुछ अफसर इस ताक में थे कि नसबंदी का लक्ष्य पूरा करने की लिए कोई मुर्ग़ी फंसे. उन्हें एक अधेड़ व्यक्ति मिला जो कुछ सामान्य नहीं था. बात भी वह पूरी तरह नहीं कर सकता था. उस से पूछा कि उसके कितने बच्चे हैं. लड़खड़ाती आवाज़ में उसने कहा — चार. तब तो तुम्हें अपना नसबंदी आपरेशन अवश्य करवा लेने चाहिए. उन्हों ने उसकी नसबंदी करवा दी. बाद में धन्‍यवाद करते हुये उसकी पीठ थपथपाते हुए एक अफसर ने कहा — खुश हो जाअब और बच्चे नहीं होंगे.
खीज में उसने कहा  — नहींहोते रहेंगे.
अफसर ने फिर आश्वासन दिया — नहींअब तुम्हारी नसबंदी कर दी गयी है. अब नहीं होंगे.
नहीं — उसने ज़ोर देकर कहा. होते रहेंगे. पहले भी मेरे नहीं हैं.
इससे तो ऐसी ही एक और अजीब घटना याद आ जाती है. लोग अपने दुःख के समय भी अपने हास्य व व्यंग का पुट नहीं भूलते. एक व्यक्ति को रास्ते में अकेला आता देख चार-पांच व्यक्ति टूट पड़े. "नंदूतेरी माँ....तेरी बहन....." की गन्दी गालियां देते हुयी उस पर घूसे पे घुसा जड़े जा रहे थे. जब उसे बेहाल देख कर वह जाने लगे तो मार से अधमरा वह कराहते हुए भी अपने मुंह पर मुस्कान लाने के कोशिश करता वह बेचारा उन पर फब्ती कसने से न चूका. उसने कहा — देखाबना दिया न मूर्ख. मैं तो नंदू हूँ ही नहीं.
पर कई वार नसबंदी ऑपरेशन परिवार में परेशानी का कारण भी बन गया.
कई ऐसे भी उदहारण पैदा हो गए जहाँ पति की नसबंदी कर दी गयी थी. कई बार ऐसा हुआ कि आपरेशन के बावजूद पत्नी गर्भवती हो गयी. पति उस पर शक करने लगा. घर में तनाव  हो गया. मामला तो तब सुलझा,पैद जब डाक्टर ने पति के जांच की और पाया कि उसका नसबंदी ऑपरेशन विफल रहा था और दोबारा किया गया.
कई सच्चे-पक्के भी थे. एक पति-पत्नी को परिवार नियोजन की आवश्यकता समझ आ गयी. उस का एक बेटा था. दोनों ने संकल्प ले लिया कि अब जो भी होनए बच्चे के जन्म के बाद वह आपरेशन करवा लेंगे. पर ईश्वर की मर्ज़ी देखो. जब प्रसव के समय आया तो इकट्ठे ही तीन बच्चे पैदा हो गए.
जब 1977 में चुनाव हुए तो उस समय आपातकाल हटाया नहीं गया था. उसे निरस्त ही किया गया था. लोग उस समय भी चुटकी लेने से बाज़ नहीं आये. नसबंदी की याद दिलाते हुए एक दूसरे को सावधान करते थे — भैय्यावोट करते समय ध्यान रखना. अभी तो उन्हों ने कनेक्शन ही काटा हैचुनाव के बाद तो वह मीटर भी काट कर ले जायेंगे. (वह नसबंदी की तुलना बिजली का कनेक्शन काटने और मीटर उठा ले जाने से कर रहे थे)
वैसे परिवार नियोजन का मामला वैयक्तिक स्वतंत्रता और निजता का भी बनता है. कोई दम्पति बच्चे पैदा करे या न करे और कितने करेइसमें निजता और वैयक्तिक स्वतंत्रता भी तो आ जाती है. फिर नसबंदी तो पति-पत्नी के बीच भी विवाद और पहले-आपपहले-आप का उदहारण बन गया. पति चाहता था कि आपरेशन पत्नी करवाए और पति चाहता था कि पत्नी. कई तो पत्नियों ने ही आपरेशन करवाने की पहल कर दी. उन्हों ने दूर की सोची. यदि कभी किसी कारण किसी हालत में घर में नए आगंतुक की आवश्यकता ही पड़ जाये तो पति को तो उसके लिए सक्षम ही रहना चाहिए.
उन्हीं दिनों एक मतदाता तो और भी होशियार निकला. उसने अपने घर के बाहर अपनी नाम-पट्टिका के नीचे नोटिस टांग दिया:  वही प्रत्याशी मुझसे मेरा कीमती वोट मांगने आयें जो अपनी नसबंदी का अपना सर्टिफिकेट साथ लाएंगे.
                                   *** 
Courtesy: Weeklu Uday India (Hindi)

Saturday, July 22, 2017

हास्‍य–व्‍यंग रिश्‍ते–नाते प्‍यार-वफा सब बातें हैं

हास्‍यव्‍यंग
           कानोंकान नारदजी के
रिश्‍तेनाते प्‍यार-वफा सब बातें हैं
शरीर  तो  नश्वर  है, आने-जाने वाली वस्तु. आज यहाँकल वहां. अगर  कुछ निरंतर है  तो  वह  है आत्मा. इसी लिये तो हमारे संत-महात्मा कहते हैं कि प्यार करना हैसम्बन्ध रखना है तो आत्मा से जो अमर हैअजर है. लगता है यह उपदेश हमारी आजकल की जनता के मन में घर कर गया है. इसी लिये वह सारी ममता व सम्‍बंधों को शरीर से जोड़ते हैं। वह समझते हैं कि सारे रिश्‍ते-नाते शरीर से जुड़े हुये हैं जो नश्‍वर है। इस कारण वह रिश्‍तों को अधिक महत्‍व नहीं देते। 
            पहले तो मां-बाप संतान की चिंता में डूबे रहते है. घर गूँज उठे बच्‍चों की किलकारियों से, उसके लिए वह क्या कुछ नहीं करते. यदि संतान साधारण विधि से प्राप्त न हो तो वह सब दवा-दारू करते फिरते हैं जो हो सकती हो. मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों के चक्कर मारते हैं. साधू-संतों के आगे-पीछे घूमते है. व्रत रखते हैं. दान-पुण्य करते हैं. इतनी तपस्या के बाद जब पुत्र या पुत्री रत्न प्राप्त हो जाते हैं तो फूले नहीं समाते. अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए, उन्हें बड़ा करनेअपने पांव पर खड़ा करने के लिए वह क्या-क्या नहीं करते. वह स्वयं भूखे रह जाएँपर उनके बच्चे भर पेट खाएं — वह यह अवश्य सुनिश्चित करते हैं. जब बच्चे पढ़-लिख जाते हैंनौकरी मिल जाती है या कोई अपना व्यवसाय अपना कर अपने पांव पर खड़े होने वाले होते हैं या हो जाते हैं तो वह अपनी स्वयं सोचने लगते हैं. तब उन्हें माता-पिता की आवश्यकता नहीं रहती. तब वह अपने भाग्यविधाता स्वयं बन जाते हैं. अपना भविष्य वह स्वयं चुनने लग जाते हैं. तब यह उनका मौलिक अधिकार बन जाता है — मानवाधिकार जिसका कोई हनन नहीं कर सकता, जिसमें कोई दखल नहीं दे सकता — माता-पिता भी नहीं. माता-पिता ने उनके लिए अब तक क्या कियाक्या दुःख झेले, क्या कुर्बानियां दीं — वह बच्‍चों के लिये माता-पिता का कर्तव्य बन कर रह जाता है. तब बच्चों के सिर्फ अधिकार होते हैं और माता-पिता के हिस्‍से रह जातें हैं बस कर्त्तव्य, बच्चों पर अधिकार कोई नहीं, बच्‍चों के प्रति केवल कर्तव्‍य।
जिसको जन्‍म दिया है, जिसकी परवरिश की है, सेवा की है, उसको कोई सेक तक न लगे उसके लिये माता-पिता ने पसीना बहाया है, आंसू बहाये हैं, यदि वह पढ़ नहीं रहा, कहना नहीं मान रहा, वह उसे झिड़क नहीं सकते, उसे एक चपत नहीं मार सकते। केवल इस लिये माता-पिता के तो बच्‍चों के प्रति मात्र कर्तव्‍य होते हैं, कोई अधिकार नहीं। ऐसा करना बच्‍चों के प्रति अत्‍याचार बन जाता है।
     यही बात बच्‍चों के अध्‍यापकों की है। वह किसी बच्‍चे को सज़ा तो क्‍या झिड़क भी नहीं सकते यदि उसने होमवर्क नहीं किया हो। यदि कक्षा में शरारते करता हो या कर रहा हो। पर जब बच्‍चे फेल हो जाते हैं तो दोषार्पण शिक्षकों पर होता है। वह ठीक से पढाते नहीं हैं। बच्‍चों की देखभाल नहीं करते। शिक्षाग्रहण की प्रगति पर नज़र वह नहीं रखते। शिक्षकों की अपने विद्याथियों से कोई दुश्‍मनी होती है जो उन्‍हें घर को दिया काम कर के न आने पर या जो याद करने को दिया है उसे याद न कर आने पर उन्‍हें झिड़कें? ऐसी स्थिति में आज के युग में तो शिक्षकों का कर्तव्‍य बनता है कि वह अपने विद्याथियों की पीठ थपथपाये। उन्‍हें शाबास दें। जब कक्षा या स्‍कूल का परिणाम निराशाजनक आये तो अभिभावकों को चाहिये कि वह स्‍कूल व शिक्षकों को अपने विद्यार्थियों के अधिकारों का पूरा सम्‍मान करने और उन्‍हें झिड़क और कोई छोटी-मोटी सज़ा तक न देने केलिये पुरस्‍क़त करें।   
     एक समय था जब बच्‍चे माता-पिता से तो डरते ही थे पर उससे भी ज्‍़यादा डरते थे अपने शिक्षकों से। बच्‍चों को डराने के लिये माता-पिता उन्‍हें डराते थे कि वह यह बात उनके शिक्षक को बता देंगे। बच्‍चे अपने शिकों से इतना डरते थे कि वह माता-पिता के आगे गिड़गिड़ाते थे कि उनकी शिकायत उनके शिक्षक से न करें। तब वह अपने माता-पिता के सामने ऐसे दुम हिलाते फिरने लगते थे मानों उनसे बड़ा आज्ञाकारी कोई है ही नहीं।
     तब माता-पिता भी बड़े दकियानूस होते थे। यदि टीचर ने शिकायत कर दी कि उनका बच्‍चा घर का काम कर के नहीं आता या कोई और श्किायत हो तो माता-पिता स्‍वयं ही शिक्षक को दोषी ठहराते हुये पूछते कि आपने उसे डांटा क्‍यों नहीं, उसे ज़ोर से दो-चार चांटे क्‍यों नहीं लगाये? पर आज समय बदल गया हैा सब आधुनिक हो गये हैं। पश्चिम की अच्‍छी बातें सीख रहे हें। बच्‍चों के अधिकारों के प्रति बड़े सचेत हो गये हैं। अब यदि कोई शिक्षक उनके अभिभावक को चपत मारना तो दूर, उसे झिड़क भी दे तो अभिभावक कहते हैं कि बच्‍चा फेल होता तो उनका होता न, तुम्‍हारा तो नहीं। तुमने उस पर हाथ उठाने की हिम्‍मत कैसे की? वह तो अध्‍यापक के विरूद्ध कार्रवाई की मांग करते हैं। उसके विरूद्ध आपराधिक मामला दर्ज कर कड़ी से कड़ी आदर्श सज़ा दिलाना चाहते हैं ताकि कोई और अध्‍यापक भविष्‍य में ऐसी हिमाकत न कर सके।    
बच्‍चों को कहाँकब और किस से प्यार करना है या नहीं — यह बच्चों ने तय करना हैमाता-पिता ने नहीं। जब यह मुद्दा परिवार में उठता हैतो माता-पिता की सलाह उन्‍‍हें डिक्टेटराना लगती है। बच्चों के भी तो सपने होते हैं। उनकी भी कोई भावनाएं होती हैं। अपना भला-बुरा क्‍या है, वह माता-पिता से बेहतर बच्‍चे स्‍वयं समझ सकते हैं। वह अपना मार्ग स्वयं चुनना चाहते हैं वह भी तो अपना भला-बुरा सोचने की शक्ति रखते हैं। आपस की बात तब यहाँ तक पहुँच जाती है कि बच्चे माता-पिता को पूछने लगते हैं कि शादी उन्‍हें करनी है या आपको? लड़की या लड़के के साथ जि़न्‍दगी उन्‍होंने बितानी है या बच्‍चों ने? पसन्‍द बच्‍चों की होनी चाहिये या माता-पिता की? तब माता-पिता चुप हो कर रह जाते हैं। उन्हें अपने वाणी पर ताला ही लगाना पड़ता है। उनके पास और कोई चारा भी नहीं रह जाता.
कई माता-पिता बहुत हठीले निकलते हैं। उन्हें लगता है कि उनके बच्चे भटक रहे हैं माता-पिता की सोच-समझउनका अनुभव और उनकी अंतरदृष्टि उन्हें बताती है कि उनके बच्चे ग़लत रास्‍ते पर जा रहे हैं.। पर यह तो माता- पिता की 18वीं सदी की पुरानी सोच का कसूर है,। बच्‍चे माता-पिता की सोच को आधुनिक तराज़ू पर तोलते हैं। तब उनके तर्क में बच्‍चे कम वज़न पाते हैं। ये बुढऊ क्या जानें आज के प्रेम के बारीकियां।
असल में माता-पिता की सोच होती है पुरानी और बच्‍चों की आधुनिक। माता-पिता पीछे की ओर देखते हैं और बच्‍चे आगे की ओर। आखिर समझौता तो माता-पिता को ही करना पड़ता है। पड़ना भी चाहिये बच्‍चों की खुशी के लिये। बच्‍चों की खुशी में ही तो उनकी खुशी है। वह जीते किसकी खुशी के लिये हैं? सुखी वही माता-पिता रहते हैं जो बच्‍चों के माता-पिता नहीं उनके हमजोली बनकर रहते हैं।
प्‍यार करते तो बच्‍चे ही हैं पर यह भी सत्‍य है कि प्‍यार बच्‍चों का खेल भी नहीं है। यदि ऐसा होता तो संसार में लैला-मजनू और या शीरीं-फरहाद जैसे मशहूर किस्‍से भी न होते। प्‍यार बहुत बार जीवन की वास्‍तविकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता और तकरा‍र का रूप धारण कर लेता है। बात तलाक तक पहुंच जाती है। उस कठिन घड़ी में तब माता-पिता ही उनके परेशान सिर को कंधा प्रदान करते हैं, साथ खड़े होते हैं। यह उनका कर्तव्‍य भी तो है।
परेशानी तो तब पैदा होती है जब माता-पिता उसी रौ में नहीं बहते जिसमें उनके बच्‍चे बह रहे होते हैं। जब बहाव के विरूद्ध तैरने की कोशिश करेंगे तो उस बाढ़ में डूबना तो तय है। जब कई माता-पिता अपने प्‍यारे बच्‍चों की बात नहीं मानते जो उनका कर्तव्‍य है, तो उनको परेशानी का सामना करता पड़ता है। सज़ा भुगतनी पड़ती है। उनकी हठधर्मी से परेशान बच्‍चे कई बार आत्‍महत्‍या तक कर बैठते हैं। यह तो उनकी मेहरबानी होती है जब वह आत्‍महत्‍या का कोई लिखित कारण नहीं छोड़ जाते, किसी को दोषी नहीं बनाते। वरन् यदि उन्‍होंने लिख कर छोड़ दिया कि आत्‍महत्‍या इस लिये कर रहे हैं कि उनके माता-पिता ने उन्‍हें अपनी मर्ज़ी से शादी नहीं करने दी, तो जेल की सैर तो नि‍श्चित है। माता-पिता को चाहिये कि अपनी जिद्द छोड़ कर अपना कर्तव्‍य निभायें। वर्तमान युग में उनका अपने अधिकारों के बारे सोचना ही उनकी सब से बड़ी ग़लती है। इसी की सज़ा ऐसे माता-पिता भुगत भी रहे हैं।
यही कारण है कि आज के युग में माता-पिता और बच्‍चों के बीच प्रेम व लगाव कम होता जा रहा है। मन-मुटाव की खाई बढ़ती जा रही है। दूरी इतनी ज्‍़यादा होती जा रही है कि रिश्‍तों का मतलब ही नहीं रह गया है। अब तो भाई भाई के रिश्‍ते का मान नहीं रखता। अब तो कहने लगे हैं कि भाई का भाई से बड़ा दुश्‍मन नहीं होता। माता व पिता आंख के तारे अपने लाडले बेटे की हत्‍या करने लगे हैं। आये दिन पिता अपनी बेटी से, भाई अपनी बहन से, चाचे अपने भतीजी से, मामे अपनी भान्‍जी से बलात्‍कार के समाचार पढ़कर सिर शर्म से झुकने लगा है।
पर बात यह भी है कि आदमी है क्‍या? हाड-मांस का पुतला ही ना? वह तो नश्‍वर है। तो उस हाड-मांस के पुतले से प्‍यार क्‍या? रिश्‍ता क्‍या? प्‍यार व लगाव कैसा? आज है, कल नहीं है। इसी लिये लोगों ने इन मिथ्‍या रिश्‍तों की पहचान करनी बन्‍द कर दी है। उनका मान-सम्‍मान करना बन्‍द कर दिया है। उसकी रक्षा करनी बन्‍द कर दी है। गुरू और चेले की तो बात ही और है। विद्यार्थियो और श्क्षिकों के बीच प्‍यार व बलात्‍कार के किस्‍से भी अब आम होने लगे हैं। लोग कहने लगे है कि घोर कलियुग आ गया है। कुछ भी हो। इतना तो साफ है। अब रिष्‍तोनातों का महत्‍व क्षीण्‍ होता जा रहा है। आधुनिक युग की यह देन तो स्‍वागत योग्‍य ही है।                            ***     
Courtesy: Udai India (Hindi weekly) 

Thursday, June 15, 2017

हास्‍य–व्‍यंग पढि़ये विज्ञापन और त्‍यागिये आत्‍महत्‍या का इरादा

हास्‍यव्‍यंग
          कानोंकान नारदजी के
पढि़ये विज्ञापन और त्‍यागिये आत्‍महत्‍या का इरादा

                                रोज़ बढ़ रहे आत्‍महत्‍या के मामलों को पढ़ कर बड़ा दु:ख होता है। ऐसा लगता है कि ऐसा कायराना कदम उठाने वाले व्‍यक्ति टीवी नहीं देखते व अखबार नहीं पढ़ते। पर आज के युग में यह सम्‍भव नहीं लगता। तो फिर ऐसा लगता है कि वह लोग ध्‍यान से इन मीडिया माध्‍यमों में प्रकाशित व प्रसारित विज्ञापनों को नहीं पढ़ते या देखते। यदि देखते हैं तो ऐसा लगता है कि वह उन पर ध्‍यान नहीं देते। या फिर यह कह सकते हैं कि वह उनको ठीक तरह से समझ नहीं पाते। हमारे विज्ञापनों में तो हर मर्ज़ की दवा हाजि़र है। हर समस्‍या का हल है। विज्ञापनों में बताये रास्‍ते पर चल कर क्‍या वस्‍तु है जिसे आप पा नहीं सकते?      
                            मुझे तो दु:ख व हैरानी होती है जब मैं समाचार पढ़ता हूं कि किसी लड़के या लड़की ने आत्‍महत्‍या कर ली क्‍योंकि वह परीक्षा में पास न हो सके या उतने नम्‍बर नहीं आये जितनी कि उनको उम्‍मीद थी या चाहते थे। यह तब होता है जब बच्‍चों या उनके मां-बाप ने वह विज्ञापन नहीं पढ़ा-सुना होता जिसमें सौ प्रतिशत पास होने की गारण्‍टी दी होती है। कई तो मनचाहे नम्‍बर मिलने का भी वादा करते हैं। आपका बच्‍चा आठवीं में फेल हो गया तो क्‍या?अनेक संस्‍थाये उन्‍हें अगले ही साल मैट्रिक करवा देने की गारण्‍टी देती हैं। तो फिर माता-पिता और उनके अभिवावकों को और क्‍या चाहिये? वह क्‍यों उन संस्‍थाओं से सम्‍पर्क कर अपने बच्‍चों का भविष्‍य नहीं सुधार लेते और उनकी कीमती जीवन बचा लेते?
                            कई लोगों को यह गिला रहता है कि जीवन नीरस है। तब मैं उनकी अज्ञानता पर हंसता हूं। कहां है जीवन नीरस। आप घर में, बाहर, सड़क पर, खेत में, खलिहान में, रैस्‍तरां में, होटल में, पूजास्‍थलों में, और कहां नहीं, गीत-संगीत ही तो है। आपके घर में रेडियो पर, टीवी पर, आपके मोबाइल फोन पर गाना और नाच ही तो है। वर्डसऐप और इन्‍स्‍टाग्राम पर तो आपको मनमोहक तस्‍वीरें, चुटकले, प्रेरणादाय‍क विचार भी मिलते हैं। तो आप कैसे कह सकते हैं कि आपका जीवन नीरस है? आजका जीवन जितना संगीतमय है उतना तो कभी रहा ही नहीं। आपने देखा नहीं कि लड़के-लड़कियां और अन्‍य लोग भी सड़क पर, स्‍कस्‍कॅटर-कार में, यहां तक कि स्‍कूल-कालिज में भी अपने कान में मोबाईल के प्रकरण लगा कर घूमते-फिरते संगीत का आनन्‍द लेते जाते हैं और किसी को डिस्‍टर्ब भी नहीं करते। यही तो उनकी शालीनता है।
                  जो अपने आपको अकेला महसूस करते हैं, उनके लिये तो और भी आकर्षक ऑफर हैं। मोबाइल के माध्‍यम से आप सैंकड़े-हज़ारों दोस्‍त बना सकते हैं। वह तो बस आपके फोन की प्रतीक्षा में रहते हैं। आप लोगों से  आपकी मर्जी़ के अनुसार, महिला व पुरूषों से, लड़कों-लड़कियों से  मीठी-मीठी बातें कर सकते हैं। फलर्ट भी कर सकते हैं। कोई मनाही नहीं है। कुछ कम्‍पनियों ने तो ऐसा भी प्रावधान कर रखा है कि आप चाहें तो किसी भी पुरूष-महिला से अपना नम्‍बर छुपा कर भी उन पर अपना दिल उंडेल सकते हैं। । बस आपको इसके लिये कुछ शुल्‍क देना पड़ेगा। किसी होटल या डांस बार में चले जाइये, वहां किसी के साथ भी आप डांस कर सकते हैं।  
                  अभी कुछ सालों से और भी मज़े लग गये हैं। आप इसी एक जीवन में टू-इन-वन मज़े लूट सकते हैं। अब तो व्‍यक्ति के पास एक ही जीवन में दो-दो लाइफ हो गई हैं  एक डे-लाइफ और एक नाइट-लाइफ। दिन को दोपहर तक सोइये। बाद दोपहर काम कीजिये और नाइट-लाइफ का लुत्‍फ उठाकर रात को हसीन-रंगीन कीजिये। पहले कहते थे कि रात को तो चोर-डाकू और लुटेरे ही जागते और अपना धंधा करते हैं पर अब तो शालीन लोग भी रात के मज़े उठाते हैं।
                  आप जवान हैं पर आपका कद छोटा रह गया। कोई चिन्‍ता नहीं। अनेकों व्‍यक्ति और संस्‍थान हैं जो आपका कद शर्तीया बढ़ाने वरन् पैसे लौटाने का वादा करते हैं।
                  इसी प्रकार कई दुबले-पतले होते कई बिलकुल कमज़ोर।  कई बहुत मोटे होते हैं। सब के लिये दवा का विज्ञापन आपको अनेकों ऑटो के पीछे लिखा मिलेगा। सबको ताक़त, स्‍फूर्ति और जवानी मिल जाती होगी। फिर चिन्‍ता किस बात की?
                  समस्‍या यह है कि कइयों को तो चिन्‍ता होती है कि उन्‍हें ऋण चाहिये होता है और कइयों को लिया हुआ ऋण लौटाना होता है। कोई समस्‍या नहीं। आजकल तो बैंक विज्ञापन देते हैं और मोबाइल पर जनता से ऋण लेने के लिये स्‍वयं आग्रह करते हैं। आप बस किसी बैंक के कान में यह सूचना डलवा दीजिये कि कि आप कुछ लाख या करोड़ का ऋण लेना चाहते हैं। या महंगी कार या बड़े मकान के लिये उधार लेने की सोच रहे हैं। फिर देखिये कमाल। ऋण देने वालों की आप के घर के सामने कतार लग जायेगी। आपका माबाईल तो बस बजता ही रहेगा। आप परेशान हो जायेंगे। ब्‍याज की दर पर भी बैंकों में स्‍पर्धा रहती है। सब कहते हैं कि हमारे से सस्‍ते ब्‍याज पर कोई ऋण दे ही नहीं सकता।
                  अब तो ऐसे ऐप भी निकल आये हैं जिससे आप स्‍वयं अन्‍दाजा लगा सकते हैं कि आपको कितना ऋण मिल सकता है।
                  यदि आपने ऋण लिया हुआ है तब भी उसकी कोई परेशानी नहीं। समस्‍या यही है न कि आप ऋण वापस लौटा नहीं सकते और ब्‍याज की सूई है कि थमने का नाम नहीं लेती। आप चुनाव तक प्रतीक्षा कीजिये। सभी राजनीतिक दल आपका ऋण मॉफ करने का वादा करेंगे।
                  यदि आपकी त्‍वचा का रंग काला है तो आप परेशान क्‍यों हैं? आपको अपना मुंह छुपाने की कोई ज़रूरत नहीं। बाज़ार में अनेकों क्रीमें उपलब्‍ध हैं जो आपके प्राकृतिक सौंदर्य पर काली परतों को हटा कर आपका असली रंग-रूप सामने ला देंगे। तब आप साधारण युवक व युवती नहीं कोई फिल्‍मी स्‍टार दिखेंगे। लोग तो क्‍या आप स्‍वयं भी  अपने आपको पहचान न पायेंगे। तब आप स्‍वयं ही अपने आप को कोसने लगेंगे कि आपने अपनी सुन्‍दरता इतने सालों तक लोगों से छिपाई क्‍यों रखी। तब आपको उस क्रीम का ‘’थैंक यू’’ तो करना ही पड़ेगा।
            यही नहीं। अब तो मर्दों व महिलाओं के लिये अलग-अलग क्रीमें ईजाद
हो गई हैं। प्रतीक्षा तो केवल यह है कि आप कब इसका उपयोग करते हैं।
                  आप बेकार हैं। आपको नौकरी नहीं मिल रही। आप परेशान हैं। आपको सारी रात नींद नहीं आती। आपके माता-पिता भी परेशान हैं। महाशय, मैं मानता हूं कि आप बेकार हैं पर आप परेशान भी बेकार में हैं। हमारे यहां तो अनेक ऐजैन्सियां हैं जो आपको आपकी मनचाही नौकरी दिलाने के लिये बेकरार बैठी हैं। आपको मुंह मांगा वेतन दिलाने को तैय्यार हैं वह भी अपके मनचाहे स्‍थान पर। यही नहीं। अब तो आपको घर बैठे काम करने की सुविधा भी मिल सकती है। काम का काम, आराम का आराम। जब चाहे तो काम कीजिये और जब आपका दिल चाहे तो आराम। आप उनसे सम्‍पर्क तो कीजिये। हां, जेब तो ढीली करनी ही पड़ेगी। शुभ कार्य केलिये ऐसा तो करना ही पड़ता है। आप किसी पूजास्‍थल पर कोई मन्‍नत मांगने जाईये वहां भी कुछ तो चढ़ावा चढ़ाना ही पड़ता पड़ता है। ऊपर से यह भी वादा करना पड़ता है कि काम हो गया तो फिर दर्शन करू़गा। इतने कंजूस और मक्‍खीचूस तो मत बनिये यदि आपको जीवन में कुछ पाना है, कुछ कर दिखाना है।  
                  यदि अभी तक आपकी शादी नहीं हुर्ई तो दु:खी रहने की क्‍या बात है? दुनिया में अनेक महानुभाव हैं जिनकी शादी हुई नहीं या जिन्‍होंने शादी करवाई नहीं। फिर  उन्‍होंने अपनाभी खूब नाम बनाया है। हमारे महान् नेता राहुल गांधी जी और प्रसिद्ध अभिनेता सलमान खां को ही लीजिये। अभी तक उनकी शादी हुई नहीं या उन्‍होंने की नहीं, वह खुश हैं। मज़े में हैं। जब उनके चाहने वाले चिन्‍ता करते हैं और पूछते हैं तो वह खुश होकर कहते है कि समय आने पर करेंगे। तो आप स्‍वयं क्‍यों इतने परेशान हैं?
                  पर यह भी सच है कि आप उनकी तरह बड़े और महान् तो हैं नहीं। उनके पीछे तो अनेक लोग हैं जो उनका जीवन साथी बन धन्‍य हो जाने के लिये तैय्यार बैठे हैं। उनकी हां की प्रतीक्षा सालों से कर रहे हैं। इसके लिये वह कुछ भी कुर्बानी देने को तैय्यार बैठे हैं। पर आप उनकी तरह बड़े दिल वाले हो नहीं सकते हैं। पर तब आपके लिये विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं के मैट्रीमोनियल कालम खुले पड़े हैं। करिये उनका उपयोग। पा लीजिये अपने सपनों का जीवन साथी और सारे जीवन के लिये सुखी हो जाईेये। न हो तो आप अनेकों मैट्रीमोनियल साईटों पर जा सकते हैं। मनचाहा जीवन साथी ढूंढ सकते हैं। उनसे मिल सकते हैं। ठोक-बजा कर अपना निर्णय ले सकते हैं। आपके सारे सपने साकार हो जायेंगे।
                  आप किसी बीमारी से ग्रसित हैं। बहुत दु:खी हैं तो व्‍यर्थ में। कौनसी बीमारी है जिसका इस दुनिया में इलाज नहीं है? आपके पास तो ढेर सारे विकल्‍प हैं। कई इश्‍तहार देकर दावा करते हैं कि वह बेइलाज बीमारियों को जड़ से उखाड़ कर फैंक देते हैं। जिन्‍हें डाक्‍टरों व अस्‍पतालों ने भी मना कर दिया है, कई लोग उनके जीवन में भी उम्‍मीद की आग जला देते हैं। टूटे हुये अंग जोड़ देने का विश्‍वास दिलाते हैं।
                  कई लोगों को सन्‍तान न हो पाने के कारण न दिन को चैन है और न रात को नीन्‍द। परेशान वह लोग हैं जिन्‍होंने इश्‍तहार नहीं पढ़े। अनेकों व्‍यक्ति व संस्‍थान हैं जो उनकी दवाई खाने व उनके द्वारा उपाये सुझाने के बाद अपने आंगन में बच्‍चों की किलकारियां सुनने के सौभाग्‍यशाली हो चुके हैं। बात तो अच्‍छी राय सुनने और उस पर अमल करने की है।
                   इस लिये मेरी तो सब महानुभावों से प्रार्थना है कि आत्‍महत्‍या की सोचने और अपने कीमती जीवन को गंवाने से पूर्व टीवी पर जो विज्ञापन प्रसारित होते हैं और विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में जो इश्‍तहार छपते हैं, उन्‍हें ध्‍यान से पढ़ने का कष्‍ट अवश्‍य करें। मुझे पूरा विश्‍वास है कि आप आत्‍महत्‍या का अपना इरादा ज़रूर बदल देंगे और इस देश और समाज की सेवा करते रहेंगे।                                     *** 
Courtesy: Udai India Hindi weekly