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Monday, May 30, 2016

हास्‍य-व्‍यंग कानोंकान नारदजी के राजनीति तेरे रंग अनेक

हास्‍य-व्‍यंग
        कानोंकान नारदजी के
राजनीति तेरे रंग अनेक

बेटा:   पिताजी।
पिता:  हां, बेटा।
बेटा:   आपको पता है महाराष्‍ट्र के कुछ जि़लों में पीने के पानी का भ्‍यंकर संकट पैदा हो गया            है?      
पिता:  हां, बेटा। बहुत दु:खदपूर्ण स्थिति है।            
बेटा:   और हमारे दिल्‍ली के मुख्‍य मन्‍त्री श्री केजरीवाल तो बहुत ही दयावान निकले।
पिता: कैसे?
बेटा:  उन्‍होंने निर्णय ले लिया है कि वह महाराष्‍ट्र केलिये प्रतिदिन 10 लाख लीटर पानी दिल्‍ली से        भेजेंगे।   
पिता:  लेकिन इतनी दूर पानी पहुचेगा कैसे?
बेटा:   उसके लिये उन्‍होंने केन्‍द्र सरकार से अनुरोध कर दिया है कि वह यह पानी वहां पहुंचाने के लिये माल गाडि़यों का प्रबन्‍ध कर दे।
पिता:  रेल का भाड़ा कौन देगा?
बेटा:   यह तो साफ नहीं है पर लगता है इसका बोझ तो केन्‍द्र को ही सहना पड़ेगा।
पिता:   पर बेटा, क्‍या दिल्‍ली सरकार के पास इतना फालतू पानी है कि वह महाराष्‍ट्र केलिय
       जलदान कर सके?                                                            
बेटा:   पिताजी होगा तभी तो उन्‍होंने यह प्रस्‍ताव किया है।
पिता:  पर बेटा, सरकार और मीडिया कि रिपोर्ट तो यह कहती है कि दिल्ली में स्‍वयं पानी की 35 प्रतशि‍त की कमी है और सरकार दिल्‍ली की जनता को ही पानी की पूर्ति नहीं कर पा रही है।
बेटा:   और पिताजी उलटे अपनी पानी की पूर्ति के लिये हरियाण पर आश्रित है।
पिता:  यह तो बेटा है।
बेटा:   ऊपर से पिताजी सूर्य देवता भी कुछ ज्‍़यादा ही गर्म होते दिख रहे हैं। इससे तो दिल्‍ली में पानी की अपनी ही मांग बहुत बढ़ जायेगी। 
पिता:  बेटा, केजरीवाल मुख्‍य मन्‍त्री कम और राजनेता अधिक हैं और राजनेताओं की बातों को ज्‍़यादा संजीदगी से नहीं लेना चाहिये।
बेटा: फिर भी पिताजी, आदमी की ज़ुबान की भी तो कोई कीमत होती है।
पिता:  बेटा राजनीति में ज़ुबान तो छोड़ आदमी की कीमत नहीं होती। पर केजरीवाल हैं पक्‍के राजनेता। वह जानते हैं कि आवश्‍यकता पड़ी तो कोई बहाना भी घड़ लेंगे। नहीं होगा तो केन्‍द्र पर दोष मढ़ देंगे कि उसने गाडि़यों का प्रबन्‍ध नहीं किया।
बेटा:   तब तो पिताजी केजरीवालजी के दोनों होथों में लड्डू हैं। वह जो राजनीतिक लाभ अर्जित करना चाहते हैं वह तो मिल गया।
पिता:  इसे ही बेटा राजनीति कहते हैं।
बेटा:   मैं तो पिताजी उनकी राजनीति का कायल हो गया हूं।
पिता:  इस बात के लिये तो केजरीवाल की जितनी तारीफ की जाये उतनी ही कम है।
बेटा:   पिताजी, आजकल की राजनीति को देखते हुये मुझे तो लग रहा है कि मैंने अपने जीवन का बहुमूल्‍य समय यूंहि बर्बाद कर दिया। 
पिता:  तू कौनसे झण्‍डे गाड़ देना चाहता था?
बेटा:   मैंने सूझबूझ से काम लिया होता तो आज मैं भी अपने प्रदेश का मुख्‍य मन्‍त्री होता।
पिता:  आज तू फिर लगा वही पुरानी बकवास करने। आज तक कुछ कर तो पाया नहीं, हवाई किले अवश्‍य बनाता रहता है।
बेटा:   पिताजी, आपका बेटा इस बार सब सच कर दिखायेगा। तब आप मेरी पीठ भी थपथपायेंगे और गर्व से अपना सीना भी फुलायेंगे।
पिता:  मैं तेरी फिज़ूल बकवास से आगे ही तंग हूं। चुप हो जा अब।
बेटा:   पिताजी, ऐसा आप इसलिये कह रहे हैं क्‍योंकि आपको पता नहीं कि विदेशों की तर्ज़ पर अब हमारे देश में भी ऐसे व्‍यक्ति व कम्‍पनियां आ गई हैं जो किसी भी व्‍यक्ति को प्रधान मन्‍त्री व मुख्‍य मन्‍त्री बना सकती हैं।
पिता:  तेरा मतलब बन्‍दे में स्‍वयं कोई योग्‍यता हो या न हो, तब भी?
बेटा:   पिताजी, कहते हैं भारत में एक ऐसा करिश्‍माई व्‍यक्ति आ गया है जो किसी पार्टी को भी जिता सकता है और मुख्‍य मन्‍त्री बना सकता है। ऐसी कुछ कम्‍पनियां भी आ गई हैं। उनका चालू असम, पश्चिमी बंगाल व आने वाले पंजाब व उत्‍तराखण्‍ड चुनावों के लिये अनुबंध कर लिया गया है।
पिता: अच्‍छा?
बेटा:  आपको पता है पिछले लोक सभा चुनाव में मुख्‍य मन्‍त्री होते हुये भी नितीश कुमार की पार्टी बिहार में बुरी तरह हार गई थी और तब तय लगता था कि नितीश कुमार के भी दिन लद गये हैं।
पिता:  फिर क्‍या हुआ?
बेटा:   पहले हार केलिये नैतिक जि़म्‍मेदारी कबूल करते हुये नितीश जी ने मुख्‍य मन्‍त्री पद से इस्‍तीफा दे दिया। पर जिसके मुंह में सत्‍ता का खून लग जाये वह उसके बिना रह नहीं सकता। चुनाव से कुछ मास पूर्व उन्‍होंने फिर मुख्‍य मन्‍त्री की गद्दी सम्‍भाल ली। चुनाव रणनीति के माहिर को काम पर लगाया और वह देखो, उसने सभी को झूठा साबित कर दिया और नितीशजी को पुन: सत्‍ता में ला खड़ा कर दिया।
पिता:  तो बेटा, उसने मुंह मांगी फीस ली होगी।
बेटा:   पिताजी, जब नथ पहननी है तो नाक भी बिंध्‍वानी पड़ेगी और जेब भी ढीली रखनी पड़ेगी ही।
पिता:  अब तो सरकार में भी उसकी तूती बोलती होगी?
बेटा:   पिताजी, जब काम किया है तो उसका फल भी तो मिलेगा ही।
पिता:  तेरा मतलब ये चुनाव के महारथी किसी को भी चुनाव जिता सकते हैं? तेरे जैसे को भी?
बेटा:   बिलकुल।
पिता:  मैं तो विश्‍वास नहीं कर सकता कि वह तेरे जैसे को भी जीत दिला सकते हैं।
बेटा:   पिताजी, नितीश कुमारजी लगभग 14 मास पूर्व ही बुरी तरह लोक सभा चूनाव हार गये थे। तब तो ऐसा लग रहा था कि विधान सभा चुनाव में भी उसकी लुटिया डूबी ही समझो। पर उस रणनीतिकार ने कर दिखाया न करिश्‍मा? 
पिता:  पर तू कहां से लायेगा करोड़ों रूपये? मेरे पास तो तुझे देने केलिये लाखों भी नहीं हैं।
बेटा:   करोड़ों नहीं, पिताजी अरबों।
पिता:  तो तू यह सारे लायेगा कहां से?
बेटा:   पिताजी, जनता और अपने समर्थकों से। आपको शायद पता नहीं कि चुनाव कोई अपने पैसे से नहीं लड़ता। इस देश में खुले दिल से दान देने वाले दानवीरों की कमी नहीं है।  
पिता:   वह क्‍यों लुटायेंगे तुझ पर लाखों-करोड़ों?
बेटा:   पिताजी, ये व्‍यक्ति व संस्‍थायें किसी को भी जिताने व मुख्‍य मन्‍त्री बनाने में इतनी मशहूर हैं कि ज्‍योंहि लोगों को पता चलेगा कि मैंने उनकी सेवायें प्राप्‍त कर ली हैं तो सभी को तसल्‍ली हो जायेगी कि मेरा मुख्‍य मन्‍त्री बनना तो अब तय है। तब सभी काली कोठरियों में बेकार पड़ी अपनी गठरियों को निकालकर मेरे घर लाइन लगा कर खड़े हो जायेंगे अपना पहला नम्‍बर लगवाने के लिये। मुझे अपनी तुच्‍छ सी भेंट स्‍वीकार करने के लिये प्राथर्ना करेंगे। कहेंगे कि फिर हाजि़र होते रहेंगे। उन्‍हें पता है कि यदि वह बार-बार आकर अपनी शक्‍ल नहीं दिखाते रहेंगे तो मैं उन्‍हें पहचान नहीं पाऊंगा क्‍योंकि सत्‍ता प्राप्ति पर व्‍यक्ति की अपनी यादाश्‍त क्षीण हो जाती है और कई बार तो वह अपनों को भी पहचानने से इनकार कर देता है।    
पिता:  तब तू कहीं मेरे साथ भी ऐसा तो नहीं करेगा?
बेटा:   नहीं पिताजी, मैं कभी इतना नहीं गिर सकूंगा।
पिता:  चलो, ईश्‍वर सब कुछ करे। मेरी शुभकामनायें तेरे साथ हैं। किसे बुरा लगेगा जब उसका पुत्र मुख्‍य मन्‍त्री बन जाये चाहे वह कितना भी निकम्‍मा या नालायक क्‍यों न हो।
बेटा:   पिताजी, सच्‍चाई यह है कि सत्‍ता मिल जाने पर व्‍यक्ति के अवगुण अपने आप ही छुप जाते हैं।
पिता:  ऐसा तो है बेटा।
बेटा:   पर पिताजी, मुझे एक ही बात से डर लगता है।
पिता:  किस से?
बेटा:   राजनीति में जब विरोधी विरोध केलिये किसी भी हद तक गिर जाते हैं। 
पिता:  क्‍या हुआ?
बेटा:   आपने मीडिया में नहीं देखा कि कश्‍मीर के एक गांव में किस प्रकार सेना के विरूद्ध घोर प्रदर्शन व हिंसा हुई जिसमें पांच-छ: निर्दोष जाने भी चली गईं?
पिता:  यह तो बेटा बहुत बुरा हुआ। पर लोग भी तो इस बात पर उत्‍तेजित हो उठे थे कि सेना के कुछ जवानों ने वहां की स्‍थानीय किसी छात्रा से बदसलूकी की थी।
बेटा:   पिताजी, दु:ख की बात तो यह है कि लोग अफवाहों पर विश्‍वास कर अपना आप खो बैठते हैं और कोई सच्‍चाई जानने की कोशिश नहीं करता।
पिता:  तो सच्‍चाई क्‍या है?
बेटा:   अब देखो सच्‍चाई आपको भी पता नहीं। सारा दिन तो आप टीवी से चिपके रहते हैं और अखबार में छपी खबरों को भी पूरी तरह चाट जाते हैं पर इस मामले की सच्‍चाई आपको भी पता नहीं।
पिता:  बेटा हम वही पढ़ते हैं, सुनते हैं जो अखबार में छपता है या टीवी में दिखाया जाता है। सच्‍चाई जानने केलिये हमारे पास क्‍या साधन है?
बेटा:   यही तो पिताजी हमारे जनतन्‍त्र की ट्रैजडी है। हर नेता, हर अखबार व टीवी चैनल सच्‍चाई पर रंग चढ़ा कर अपने हिसाब से इस प्रकार प्रस्‍तुत करता है कि इस स्‍वार्थ की बाढ़ में सच्‍चाई जानने वाला डूब कर मर जाता है।
पिता:  पर हुआ क्‍या? तू तो अपने बाप को बता।
बेटा:   हिंसा के अंधेरे में कोई सच्‍चाई के उजाले तक पहुंच ही न सका। अब पुलिस उस लड़की से सम्‍पर्क साध पाई है और उसने पुलिस व अदालत में अपना ब्‍यान दर्ज करवाया है कि सेना के किसी अधिकारी या जवान ने उसके साथ कोई बदसलूकी नहीं की। उल्‍टे हुआ यह कि वह जब शौचालय से निकली तो उसके ही गांव के दो लड़कों ने उसे घेर लिया और दुर्व्‍यवहार किया। उसने उनके नाम भी बताये हैं और पुलिस ने एक को पकड़ भी लिया है। दूसरे को पकड़ने की कोशिश की जा रही है।
पिता:  तो तेरा मतलब उन दो अपराधी लड़कों को बचाने केलिये दोष सेना के माथे मढ़ दिया गया जिस कारण हिंसा भड़क उठी और निर्दोष जाने भी चली गईं।
बेटा:   बिलकुल। भीढ़ ने पहले तो जांच होने ही नहीं दी। सच्‍चाई तक किसी को पहुंचने ही नहीं दिया गया। असमाजिक तत्‍व अपने षड़यन्‍त्र में सफल हो गये।
पिता:  यह तो राजनीति का बड़ा भ्‍यावह चेहरा सामने आ रहा है।
बेटा:   पर पिताजी, राजनेताओं को जनता की भावनाओं से इस हद तक खिलवाड़ नहीं करना चाहिये कि हिंसा हो, सरकारी व निजि सम्‍पत्ति का नुक्‍सान पहुंचे और निर्दोष लोगों की जान चली जाये।

पिता:  इससे तो बेटा हमारे गणतन्‍त्र व अभिव्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता का ही कुरूप चेहरा सामने आ रहा है। यदि ऐसा होता रहा और उसपर अंकुश न लगाया गया तो हमारा गणतन्‍त्र, अभिव्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता और कानून व्‍यव्‍स्‍था ही खतरे में पड़ जायेगी।                                               *** 
Courtesy: Uday India (Hindi)

Wednesday, January 22, 2014

A 'Victory' or Retreat, Mr. Kejriwal?

It looks eating his own words is the favourite dish Delhi chief minister Arvind Kejriwal relishes the most. He enjoys it the most when sprinkled with the flavour of hypocrisy on it.

Announcing the termination of his 30-hour old dharna near the Railway Bhawan, New Delhi Mr. Kejriwal claimed it a victory of Delhi people. But what for? He was not fighting for a cause dear to the Delhi people. He had staked the prestige and honour of his government and party only for establishing the superiority of his two ministers whose conduct did not behove the office they held. It is not the function of a minister to order raids or conduct the same themselves. Or to catch hold of people, more so women, whom they suspect to be involved in any kind of crime. It is neither the duty of a minister to decide the course and manner of a police operation and command officers to act or not to act in a particular manner. They cannot grab the law in their own hands like a jhadoo, their party election symbol, and instead of using it to sweep the floor start beating people with it. This whole gimmickry has cost the people very dear. It put out of gear the normal life. It disturbed peace and tranquility in the country's national capital.

On the first day he exhorted party workers and supporters to keep off the dharna. Next day when he felt that his whole Cabinet alone was not strong enough to make Union Government bend, he issued a call to his MLAs to bring, in thousands, people to the dharna site. The people of Delhi already suffering the pangs of his dharna because of snarling traffic jams paid no heed to his appeals. Ultimately, as per media reports, Delhi AAP had to 'import' about 400 people from Haryana to give semblance of peoples' support.

Mr. Kejriwal also seems to be suffering from occasional bouts of selective amnesia. He had started off his protest march which culminated into a dharna outside Rail Bhawan with a demand that five police officers should be suspended pending probe for, in the words of AAP leaders, "dereliction of duty" for not acting on the diktat of Law Minister Somnath Bharti etc. Mr. Kejriwqal had accordingly declared that there could be no compromise on this demand under any circumstances. He rejected the advice of Home Minister Sushil Kumar Shinde to maintain the dignity of office he occupies. He also turned down Mr. Shinde's suggestion to shift his dharna to the Jantar Mantar. "It is me", Mr. Kejriwal declared at noon on January 21 to the clapping of his horde, "and not Shinde where should I sit on dharna". He threatened that the dharna would linger on as long as even 10 days till his demands were met. When pointed out that this would hinder the Republic Day celebrations in the national capital, he remained unrelenting. When some political parties accused him of spreading anarchy, he proudly acknowledged himself to be "an anarchist". He retorted: "Politics cannot be played sitting in five-star comforts but sitting on the roads with the people". He forgot that administration cannot be run sitting in dharnas on the roads. Instead of maintaining law & order and obeying the laws of the land Kejriwal himself became a threat to law and order in the city.

But by the afternoon the 'proud anarchist' seemed rattled by lack of public support for his un-public cause, no-nonsense attitude of the Union government and Lt. Governor and, above all, the unkind weather. The solid ice of his arrogance of power melt away even in this bone-chilling cold. He became panicky for a face-saver. He, according to reports, wanted that at least these officers should be transferred, if not suspended, from their posts. The Lt. Governor stood his ground. He was kind enough not to humiliate the chief minister too far and gave a lollypop of sending just two police officers on paid leave for, according to reports, only three-four days. And this, Mr. Kejriwal took as a "great victory" for the Delhi people which for he himself was an ignominious humiliation. Kejriwal & company have let down their own government and Delhi people — those very people who catapulted them to power. The defiant Kejriwal who had the guts to ignore Union Home Minister condescended to relent as a show of respect to the Delhi Lt. Governor.

Kejriwal cabinet took oath of office swearing in the name of God/solemnly affirming that they "will bear true faith and allegiance to the Constitution of India as by law established" and "will do right to all manner of people in accordance with the Constitution and the law, without fear or favour, affection or ill-will."  They violated this oath and the Constitution by sitting on a dharna in defiance of prohibitory orders under section 144 and by calling upon policemen on duty to shed their uniform and join their protest dharna.

Mr. Kejriwal claimed that this 'victory' was a great step forward making Delhi Police hark the voice of the elected government of the people. His assumption is erroneous. On the other hand, his government's unbecoming behaviour has spoiled the case for handing over the reins of Delhi Police and responsibility for law and order to the "elected government of the people". The irresponsible and self-assertive conduct of the Kejriwal government has justified the denial of this right to the Delhi government. One shudders at the very thought of the prospect of what havoc lay in store for the people of Delhi had Kejriwal government full control over Delhi Police and law & order as other State governments have, particularly with the republic day celebrations just a few days ahead. It would have proved — there is no exaggeration to say — to be "a live bomb in the hands of a child".

Mr. Kejriwal's conduct has all the more been depressing for those who were discovering in him the qualities of being a good prime minister. Do these people stand by their impression of him? That is the question.                                                            

                                                                                                                  ***

Monday, December 31, 2012

On allegations about Ambani brothers' Swiss bank accounts by Kejriwal UPA & Media on same wavelength


Allegations about Ambani brothers' Swiss bank accounts by Kejriwal
UPA & Media on same wavelength 

Arvind Kejriwal of the Aam Aadmi Party cannot just be dismissed as an irresponsible individual of no consequence. When he made allegations against BJP President Nitin Gadkari the Congress-led UPA government took these as gospel of truth immediately going into action, raiding certain concerns connected with him and demanding his resignation from the Party. In about two months, despite best efforts the government has, so far, failed to come out with any concrete evidence against him or arrive at any conclusion on the allegations. Obviously, keeping the issue hanging, in the long run, serves the Congress political and electoral interests.
But it is quite a different story as far as Kejriwal's disclosure of the account numbers of Ambani Brothers in Swiss banks is concerned. It must remain one of the rarest of the rare cases in which the matter ended just with the offices of the Ambani brothers, separately, denying the allegation and the Congress instead of going into the concrete details about the bank accounts asked, on the contrary, Kejriwal to present further evidence. One wonders is the account number not sufficient to initiate an inquiry?
More surprising is the attitude of the media which every now and then keeps alive the allegations, so far not proved, to demand Gadkari's resignation but has felt completely satisfied with the denial of the allegations by Ambani brothers. One has not heard anything about the matter from the day the allegations surfaced and instant denial by Ambanis. Media is now treating the matter as closed for all intents and purposes. Had it been some other individual or politician, media would have been in race to post-mortem the truth about the allegations as a part of what it claims to be its unchallenged right to 'investigative journalism'.
It is not the first of the case in which persons complained against have denied the allegations in so many words. But media has never taken such denials on their face value. It burns midnight oil to prove the denials wrong, as it had done, in the past, in a number of cases.
It remains beyond comprehension why has the media and the UPA government closed any inquiry into the serious Kejriwal disclosures about Ambani brothers' Swiss accounts just on their simple denials and not went ahead with investigations?
There is no gainsaying the fact that the ruling party is always not impartial and has its own political and electoral axe to grind, like in the cases against BSP chief Miss Mayawati and Samajwadi Party supremo Mulayam Singh Yadav. But what has sent our media blind, deaf and dumb on the allegations against Ambani brothers because, otherwise, it claims to be free, fearless and impartial. But is it so in the case of Ambani brothers? The doubt persists. The media owes an explanation to the people.
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