हास्य-व्यंग
आपातकाल और नसबन्दी
1975 में जब आपातकाल लगाया गया तब वह बड़ा भयावह समय था. पर हास्य उस समय भी उपजे बिना न रह सका. उस समय जब डर का माहौल था और लोगों के चेहरे पर से मुस्कान लगभग ग़ायब हो गयी थी, लोगों ने उस समय भी मुस्कान लौटाने के लिए हास्य का ही सहारा लिया.
उन दिनों श्रीमती इंदिरा गाँधी की गद्दी के स्पष्ट दावेदार संजय गाँधी की ही तूती बोलती थी. उनके इशारे के बिना तो कहते हैं पत्ता भी नहीं हिल पाता था. उन पर कई फब्तियां कसींगयीं. उस समय संजय का स्वप्निल प्रॉजेक्ट छोटी कार मारुती नयी-नयी चर्चा में थी. तो लोग कहते थे कि यह कार मारुती नहीं "माँ-रोती" है.
संजय गांधी तब युवा नेता के रूप में उभरे थे. युवा कांग्रेस का बोलबाला था. सभी उस के सदस्य बनना चाहते थे. युवा कांग्रेस का सदस्य होना उस समय एक ग्लैमर और गौरव का विषय था. उस समय एक कार्टून आया. उस में एक बूढा कांग्रेसी नेता लाठी के सहारे युवा कांग्रेस कार्यालय पहुंचा और उसका सदस्य बनने का आग्रह करने लगा. उसका दवा था कि अपने वक्त में तो वह भी सुडौल, सुन्दर और शूरवीर जवान थे. तब सुंदरियाँ हम पर मरा करतीं थीं. हमारे साथ आँख लड़ाने के लिए तरसती थीं.
संजय गांधी ने नसबंदी पर बड़ा ज़ोर दिया था. वह देश की आबादी पर नियंत्रण रख कर देश को आगे ले जाना चाहते थे. आंदोलन तो बड़ा अच्छा था पर कुछ ग़लत रास्ते पर धकेल दिया गया जिस कारण बाद की सरकारें उस पर ध्यान न दे पाईं क्योंकि उनको भी यही खदशा रहा कि उनकी भी बाद में हालत वही न हो जाये जो आपातकाल हटने के बाद हुये 1977 के चुनाव में श्रीमती गाँधी, स्वयं संजय गाँधी और कांग्रेस की हुयी.
उन दिनों नसबंदी पर इतना ज़ोर था कि सरकार का सारा ध्यान ही उधर केंद्रित लगता था. सरकारी अफसरों को नसबंदी के मासिक लक्ष्य दे दिए गए थे. वह अपने विभाग का कार्य न कर जैसे भी हो कोई ऐसी नयी मुर्ग़ी फंसाने में जुटे रहते थे कि उनका लक्ष्य पूरा हो जाये.
उन दिनों भूमिहीनों को भूमि देने पर बड़ा ज़ोर था. कई स्थानों पर तो भूमिहीनों को ज़मीन की पट्टे देने के बहाने बुलाया और साथ में उन सब की नसबंदी कर दी.
सरकारी अफसर और कर्मचारी भी मुसीबत में रहे. जिनकी उम्र 50 से कम थी उनकी तो शामत आ गयी थी. नसबंदी उनकी पदोन्नति, सालाना वेतन वृद्धि, गृह ऋण आदि की लिए आवश्यक योग्यता व वरीयता बन गयी थी. अगर उनके पास नसबंदी सर्टिफिकेट नहीं तो समझो उनके पास कुछ नहीं. वह किसी योग्य नहीं. वह किसी चीज़ की पात्र नहीं.
जिनके दो से अधिक बच्चे थे वह तो किसी भी हालत में बख्शे ही नहीं जा सकते थे. कुछ लोग टालमटोल करने की कोशिश करते रहे पर उनकी हालत थी कि बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी.
एक प्रदेश में एक स्कूल भवन में नसबंदी का एक शिविर लगाया गया. मंत्री महोदय ने उसका उद्घाटन किया. उसी शाम कुछ ऑपरेशन कर दिए गये. कुछ इन्फेक्शन वग़ैरा हो गयी जिस कारण दो आदमियों की मृत्यु हो गयी. बस फिर क्या था? ज्योंही बात फैली, किसी ने स्कूल का दरवाज़ा नहीं ढूँढा. शिविर में आये सभी वालंटियर स्कूल के कमरों की खिड़कियों से ही छलांग लगा कर भाग गए.
कुछ अफसर इस ताक में थे कि नसबंदी का लक्ष्य पूरा करने की लिए कोई मुर्ग़ी फंसे. उन्हें एक अधेड़ व्यक्ति मिला जो कुछ सामान्य नहीं था. बात भी वह पूरी तरह नहीं कर सकता था. उस से पूछा कि उसके कितने बच्चे हैं. लड़खड़ाती आवाज़ में उसने कहा — चार. तब तो तुम्हें अपना नसबंदी आपरेशन अवश्य करवा लेने चाहिए. उन्हों ने उसकी नसबंदी करवा दी. बाद में धन्यवाद करते हुये उसकी पीठ थपथपाते हुए एक अफसर ने कहा — खुश हो जा, अब और बच्चे नहीं होंगे.
खीज में उसने कहा — नहीं, होते रहेंगे.
अफसर ने फिर आश्वासन दिया — नहीं, अब तुम्हारी नसबंदी कर दी गयी है. अब नहीं होंगे.
नहीं — उसने ज़ोर देकर कहा. होते रहेंगे. पहले भी मेरे नहीं हैं.
इससे तो ऐसी ही एक और अजीब घटना याद आ जाती है. लोग अपने दुःख के समय भी अपने हास्य व व्यंग का पुट नहीं भूलते. एक व्यक्ति को रास्ते में अकेला आता देख चार-पांच व्यक्ति टूट पड़े. "नंदू, तेरी माँ....तेरी बहन....." की गन्दी गालियां देते हुयी उस पर घूसे पे घुसा जड़े जा रहे थे. जब उसे बेहाल देख कर वह जाने लगे तो मार से अधमरा वह कराहते हुए भी अपने मुंह पर मुस्कान लाने के कोशिश करता वह बेचारा उन पर फब्ती कसने से न चूका. उसने कहा — देखा, बना दिया न मूर्ख. मैं तो नंदू हूँ ही नहीं.
पर कई वार नसबंदी ऑपरेशन परिवार में परेशानी का कारण भी बन गया.
कई ऐसे भी उदहारण पैदा हो गए जहाँ पति की नसबंदी कर दी गयी थी. कई बार ऐसा हुआ कि आपरेशन के बावजूद पत्नी गर्भवती हो गयी. पति उस पर शक करने लगा. घर में तनाव हो गया. मामला तो तब सुलझा,पैद जब डाक्टर ने पति के जांच की और पाया कि उसका नसबंदी ऑपरेशन विफल रहा था और दोबारा किया गया.
कई सच्चे-पक्के भी थे. एक पति-पत्नी को परिवार नियोजन की आवश्यकता समझ आ गयी. उस का एक बेटा था. दोनों ने संकल्प ले लिया कि अब जो भी हो, नए बच्चे के जन्म के बाद वह आपरेशन करवा लेंगे. पर ईश्वर की मर्ज़ी देखो. जब प्रसव के समय आया तो इकट्ठे ही तीन बच्चे पैदा हो गए.
जब 1977 में चुनाव हुए तो उस समय आपातकाल हटाया नहीं गया था. उसे निरस्त ही किया गया था. लोग उस समय भी चुटकी लेने से बाज़ नहीं आये. नसबंदी की याद दिलाते हुए एक दूसरे को सावधान करते थे — भैय्या, वोट करते समय ध्यान रखना. अभी तो उन्हों ने कनेक्शन ही काटा है, चुनाव के बाद तो वह मीटर भी काट कर ले जायेंगे. (वह नसबंदी की तुलना बिजली का कनेक्शन काटने और मीटर उठा ले जाने से कर रहे थे)
वैसे परिवार नियोजन का मामला वैयक्तिक स्वतंत्रता और निजता का भी बनता है. कोई दम्पति बच्चे पैदा करे या न करे और कितने करे, इसमें निजता और वैयक्तिक स्वतंत्रता भी तो आ जाती है. फिर नसबंदी तो पति-पत्नी के बीच भी विवाद और पहले-आप, पहले-आप का उदहारण बन गया. पति चाहता था कि आपरेशन पत्नी करवाए और पति चाहता था कि पत्नी. कई तो पत्नियों ने ही आपरेशन करवाने की पहल कर दी. उन्हों ने दूर की सोची. यदि कभी किसी कारण किसी हालत में घर में नए आगंतुक की आवश्यकता ही पड़ जाये तो पति को तो उसके लिए सक्षम ही रहना चाहिए.
उन्हीं दिनों एक मतदाता तो और भी होशियार निकला. उसने अपने घर के बाहर अपनी नाम-पट्टिका के नीचे नोटिस टांग दिया: वही प्रत्याशी मुझसे मेरा कीमती वोट मांगने आयें जो अपनी नसबंदी का अपना सर्टिफिकेट साथ लाएंगे.
Courtesy: Weeklu Uday India (Hindi)
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