हिन्दू धर्म के शक्तिस्तम्भ
आज से शायद 50 वर्ष पुराणी बात होगी। तत्कालीन
मद्रास व आज के चैन्नेई में एक विधवा महिला प्रदिदिन मन्दिर जाती थी। संयोगवश एक
महाशय भी यही करते थे। महिला के पति के श्राद्ध का दिन आया तो उस महिला ने सोचा कि
यह ब्राह्मण बड़ा श्रेष्ठ है जो हर रोज़ मन्दिर आता है, पूजा-अर्चना करता है, क्यों
न उसे ही न्योता दे दूं? झिझकते हुये उसने उस महाशय को बताया कि उसके पति का कल श्राद्ध है और मेरी
प्रार्थना है कि आप मेरे घर आकर भोजन करें। महाशय तुरन्त तैय्यार हो गये और उस
महिला के घर का पता ले लिया।
दूसरे दिन निश्चित समय पर प्रात: वह महाशय आ गये।
उन्होंने पूजा भी करवा दी और भोजन भी ग्रहण कर लिया। भोजन उपरान्त महिला ने उस
ब्राह्मण को दक्षिणा भी दी। औपचारिकता के लिये व अपना आभार प्रकट करने के लिये कि
वह महाशय उसके घर श्राद्ध के भोजन के लिये पधारे, वह महाशय को घर के बाहर तक
छोड़ने गई। तब वह भौंचक्की रह गई जब उसने देशा कि वह महाशय तो गाड़ी में आये थे।
उसने उनके पांव पकड़ लिये और कहा, ''मुझे माफ कर दीजिये। आप तो कोई बड़े आदमी लगते
हैं और मैं ने आपको अपने छोटे से घर में श्राद्ध के भोजन के लिये आमन्त्रित कर
दिया''।
महाशय ने महिला को उठाया और कहा, ''आप क्या कर रही
हैं? मैं एक ब्राह्मण हूं और श्राद्ध करवाना व भोजन ग्रहण करना तो मेरा कर्तव्य
है। मैं ने आप पर कोई एहसान नहीं किया।''
और वह महाशय तत्कालनी मद्रास उच्च न्यायालय (हाई कोर्ट) के मुख्य न्यायाधीश
थे।
(मुझे एक सज्जन ने सुनाया था जिसने यह घटना एक पुस्तक में
पढ़ी थी)
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