Thursday, February 2, 2017

हास्य-व्‍यंग आतंकी मेरे भाई, पर अब नहीं

 

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          कानोंकान नारदजी के
आतंकी मेरे भाई, पर अब नहीं
 
अभी हाल ही तक मैं अपने भाई आतंकवादियों का बहुत बड़ा फैन था। मैं समझता था कि ईश्वर ने उन्हें मुझ जैसे दीन-दुखियों,दलित, पिछड़े, व समाज द्वारा सताए व तिरस्कृत तुच्छ बंधुओं की भलाई व सेवा के लिए मृत्युलोक में अवतरित किया है। उन्हें जन-जन की सेवा के लिए मजबूर होकर ही हथियार उठाने पड़े।वह तो निस्वार्थ भाव से काम कर रहे ऐसे सेवक थे जो दूसरों के हितों के संवर्धन के लिए अपनी जान तक पर खेल जाते थे। इसमें उनका कोई अपना स्वार्थ नहीं था। उन्हों ने जनता के लिए अपने कीमती जीवन का भी बलिदान दे दिया। एक नही अनेक उदहारण हैं.
अपने इस पावन उद्देश्य की पूर्ती व प्राप्ति के लिए कई खून चूसने वाले बड़े-बड़े ज़मींदारों, ज़ालिम अफसरों, जनता के दुश्मन राजनेताओं की उन्‍हें बलि लेनी पड़ी। मैं इस में कोई बुराई नहीं देखता। आपको पता ही है कि नरबलि कर प्रचलन तो हमारे समाज में सभ्यता के उदय से ही प्रचलित है। फिर इस में बुरा भी क्या है? यदि लक्ष्य नेक हो तो साधन कैसा भी हो सकता है।
पर अब मेरी धारणा बदल गयी है। मैं देख रहा हूँ कि वह अब तो वह केवल बड़े लोगों की ही भलाई कर रहे हैं। ग़रीब तो वहीँ का वहीँ खड़ा है।
कश्मीर में आम आदमी मारा जा रहा है। इस धंधे में आतंकवादियों के कई बड़े नेता करोड़ों-अरबों में खेल रहे है जबकि उनका आमदनी का कोई साधन नहीं है। कोई काम-धंधा नहीं है। उधर बेचारे ग़रीब, अनपढ़ बच्चे हैं जिनसे पुलिस व सेना पर सारा दिन पत्थर फिंकवाए जाते हैं और उन्हें मिलता है केवल पांच सौ रुपया। ऊपर से उन्हें पुलिस के डंडे भी खाने पड़ते हैं। कई बार तो ज़ख़्मी भी हो जाते हैं।
मेरे इन तथाकथित मित्रों ने तो अब तक बड़े-बड़ों के बारे-न्यारे कर दिए हैं। ऊंचे  अफसरों को, मोटे-मोटे व्यापारियों व उद्योगपतियों को, छोटे-बड़े नेताओं और मंत्रियों को जान से मारने की धमकी देकर उन्हें सरकारी खर्च पर दर्जनों सुरक्षाकर्मी और सरकारी गाड़ियां उपलब्ध करवा दी हैं। जब वह सड़क पर निकलते हैं तो पुलिस की गाड़ियां धूं-धूं कर निकलती हैं। जान की सुरक्षा प्राप्त इन महानुभावों का खून तो अपने आप ही बढ़ जाता है। किसी टॉनिक के खाने की तो आवश्यकता ही नहीं पड़ती। वह अपने आप ही महत्‍वपूर्ण हो जाते हैं।
कई महानुभाव तो ऐसे हैं कि उनके पास अपना कोई मकान ही नहीं। यदि है तो इतना छोटा और किसी ऐसी संकरी गली में कि पुलिस ही कह देती है कि यहाँ रह कर उनकी सुरक्षा सुनिश्चित कर पाना संभव नहीं है। इस कारण तो सरकार उन्हें बड़ा सरकारी बंगला उपलब्‍ध करवा देती है।
अभी हाल ही में सरकार ने समाजवादी पार्टी के संसद व नेता अमर सिंह को जेड-प्लस की सुरक्षा उपलब्ध करवा दी। उत्तर प्रदेश में झगड़ा बाप-बेटे का और मौज लग गयी अमर सिंह जी की। इसे कहते हैं किस्मत। जब ईश्वर देता है तो छप्पड़ फाड़ कर देता है।
इसी तरह आतंकियों के सौजन्‍य से सरकार सोनियाजी की पुत्री प्रियंका गाँधी जी पर भी मेहरबान है। उन्हें भी नयी दिल्ली के एक अत्यंत  वीआईपी इलाके में सरकार ने उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने में सुविधा की दृष्टि से एक आलिशान कोठी दे रखी, ऐसे स्थान पर जहाँ सिर छुपाने के लिए जगह प्राप्त करने के सपने देखते-देखते तो कई परमात्मा को भी प्यारे हो जाते हैं। अगले जन्म में क्या होगा, यह तो ईश्वर ही जाने।
सरकार ने प्रियंका जी से इस कोठी का जब किराया माँगा तो उन्हों ने कह दिया कि वह इसका इतना बड़ा किराया वाहन करने के लिए आर्थिक रूप से सक्षम नहीं है। बात भी जायज़ है। कोठी सरकार ने आतंकियों के डर से उन्‍हें दी है। उन्‍होंने तो मांगी नहीं। यह तो सरकार ने स्वयं अपनी सुविधा के लिए दी है। तो सरकार की सहूलियत का बोझ वह क्यों उठायें? यह अलग बात है कि करोड़ो में खेलने वाले उनके पति उनके साथ इसी कोठी में रहते है। वह हिमाचल प्रदेश में शिमला में अपनी मर्ज़ी का एक बंगला भी बना रही हैं. मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार वह अब तक नए बंगले को छह-सात बार तुड़वा कर बना रही हैं क्‍योंकि अब तक जो बना वह उन्हें पसंद नहीं आया।
उधर किसी नेता, उद्यमी या अन्य की सुरक्षा का ताम-झाम तो अब स्टेटस सिम्बल भी बन गया है। एक व्‍यक्ति को सुरक्षा मिली और उसी के साथी या बराबर के व्यक्ति को नहीं मिली तो दूसरे में हीन भावना आ जाती है। उसके बच्चे ही पूछने लगते हैं कि डैडी आपको सुरक्षा क्यों नहीं मिली? क्या आपकी ज़िन्दगी सरकार के लिए कीमती नहीं है? बेचारा पिता हूँ-हाँ कर ही बात टाल देता है। और वह कर भी क्या सकता है?
एक मुसीबत और भी खड़ी हो जाती है। कई बार सरकार ही सुरक्षा प्रबंधों की समीक्षा करने लग पड़ती है। ऐसे हालात में कईयों की सुरक्षा या कम कर दी जाती है या हटा ली जाती है। इसका उनके नज़दीकी, संबंधी व परिचित यह अर्थ लगाने लगते हैं कि उसका राजनितिक व सामाजिक वज़न ही कम हो गया है। राजनीति में माना उसका महत्व ही नहीं रहा है। समाज की नज़रों में अपनी प्रतिष्ठा बरकरार रखने के लिए तब वह हाथ-पांव मारने लगता है ताकि उसकी सुरक्षा का दिखावा बना रहे। अनेकों बार वह कामयाब भी हो जाता है।
 वैसे ग़रीब आदमी की चिंता करता ही कौन है? कभी यह काम आतंकवादी अवश्‍य किया करते थे। अब उन्हों ने भी छोड़ दिया है।
सरकार से तो मुझे पहले ही आशा कम थी। पर जि़ंदगी में सब से ज्‍़यादा यदि किसी ने मायूस किया हे तो वह है मेरे जिगरी दोस्‍त आतंकियों ने। लोग चाहे उन्‍हें बुरा-भला कहते फिरते हों पर मेरे मन में उनके प्रति सदैव प्रेम, श्रद्धा व विश्‍वास का भाव रहा। पर अब यह बात पुरानी हो गई है। अब मैं भी उन्‍हें ग़रीबो का दुश्‍मन मानने लगा हूं। सच भी है। उन्‍होंने सब की मदद की बड़े-बड़े राजनीतिक नेताओं की, बड़े-बड़े नौकरशाहों की, और कुछ अपने चहेते लोगों की। इन लोगों को धमकी दे कर उनका कल्‍याण कर दिया। उन्‍हें सरकारी कोठियां व बंगले दिला दिये सरकारी खर्च पर। उनकी सुरक्षा के लिये कई सुरक्षाकर्मी तैनात करवा दिये। उनका तो नाम रौशन करवा दिया। जनता की लज़रों में उनका मान बढ़वा दिया।
पर मेरे साथ उन्‍होंने पता कौनसे जन्‍म का बदला लिया कि मुझे कोई धमकी नहीं दी। कहते हैं कि तेरे पास न कोई नाम है, न काम और न ही जेब में पैसे। तो इसका मतलब तो यह निकला कि चाहे सरकार हो या आतंकवादी सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।
ऐसा लगता है कि ग़रीब आदमी के लिए न तो सरकार है और न मेरे भाई आतंकवादी क्या ग़रीब की जान की कोई कीमत नहीं होती? अगर आतंकवादी भाई मुझे जान से मार देने की धमकी दे दें तो उनका कुछ नहीं जायेगा। हां, मुझे अवश्‍य पांच-दस आदमी और एक गाडी मेरी सुरक्षा के लिए मिल जाएगी। क्योंकि मेरे पास रहने के लिए कोई झुग्गी तक नहीं है, इस लिए सरकार को मुझे मकान भी देना ही पड़ेगा। जब सरकार मालदार सामियों को अपने घर होते हुए भी आलिशान कोठियां बढ़िया इलाक़ों में दे सकती है तो मुझे कोई छोटा सा मकान देने में उसका क्‍या चला जायेगा? मैं और मेरे सुरक्षाकर्मी भाई वहीँ इकट्ठा सो जाया करेंगे। भोजन का क्या है? जब वह पांच-दस आदमियों का खाना बनाएंगे तो मुझ एक ग़रीब के लिए खाना तो बिना और खर्च के आसानी से निकल आएगा। दोनों का काम आसानी से हो जायेगा। जब मुझे कहीं जाना होगा तो मैं उस सरकारी गाड़ी में अपने सुरक्षा कर्मियों के बीच बैठ कर कहीं भी चला जाऊंगा। न मुझे कोई अतिरिक्त व्यय करना पड़ेगा और न सरकार को। मेरे कपड़ों की समस्या भी हल हो जाएगी। पुलिस कर्मियों को समय-समय पर सरकारी वर्दी तो मिलती ही है।
मैं अपने सुरक्षाकर्मी भाइयों से उनकी पुरानी वर्दी मांग लूँगा वह आसानी से खुश होकर दे भी देंगे। पुरानी वर्दी तो उन्हीं भी फेंकनी ही है या फिर कबाड़ी को बेच देनी है। फिर इकट्ठे रह कर इतना भाईचारा तो पर पैदा हो जाना स्वाभाविक भी है उनके ही कपडे पहन लेने से तो उनका काम और भी आसान हो जायेगा। मुझे मार देने पर उतारू शत्रु जान ही न पाएंगे कि मैं कहाँ हूँ। वह समझ बैठेंगे कि उनके बीच बैठा मैं भी पुलिसकर्मी हूँ, न कि उनका निशाना मैं। सुरक्षा का काम भी आसान हो जायेगा।
पर यह काम ग़रीबों के तथाकथित मसीहा कहाँ करेंगे? और एक दिन मैं सड़क के किनारे मर जाऊँगा असुरक्षित, भूखा और प्यासा। तब आतंकवादियों की भी पोल खुल जाएगी1 सब उन्हें भी सरमायदारों का पिट्ठू मान लेंगे। वह सब नंगे हो जायेंगे। वक्‍त अभी भी नहीं गुज़रा। वह मुझे धमकी अभी भी दे सकते हैं और अपनी इज्‍़जत बचा सकते हैं। मेरा काम हो जायेगा। मैं उन्‍हें पुन: अपना और ग़रीबों का मसीहा समझने लगूंगा।***
जाते थे। इसमें उनका कोई अपना स्वार्थ नहीं था। उन्हों ने जनता के लिए अपने कीमती जीवन का भी बलिदान दे दिया। एक नही अनेक उदहारण हैं.
अपने इस पावन उद्देश्य की पूर्ती व प्राप्ति के लिए कई खून चूसने वाले बड़े-बड़े ज़मींदारों, ज़ालिम अफसरों, जनता के दुश्मन राजनेताओं की उन्‍हें बलि लेनी पड़ी। मैं इस में कोई बुराई नहीं देखता। आपको पता ही है कि नरबलि कर प्रचलन तो हमारे समाज में सभ्यता के उदय से ही प्रचलित है। फिर इस में बुरा भी क्या है? यदि लक्ष्य नेक हो तो साधन कैसा भी हो सकता है।
पर अब मेरी धारणा बदल गयी है। मैं देख रहा हूँ कि वह अब तो वह केवल बड़े लोगों की ही भलाई कर रहे हैं। ग़रीब तो वहीँ का वहीँ खड़ा है।
कश्मीर में आम आदमी मारा जा रहा है। इस धंधे में आतंकवादियों के कई बड़े नेता करोड़ों-अरबों में खेल रहे है जबकि उनका आमदनी का कोई साधन नहीं है। कोई काम-धंधा नहीं है। उधर बेचारे ग़रीब, अनपढ़ बच्चे हैं जिनसे पुलिस व सेना पर सारा दिन पत्थर फिंकवाए जाते हैं और उन्हें मिलता है केवल पांच सौ रुपया। ऊपर से उन्हें पुलिस के डंडे भी खाने पड़ते हैं। कई बार तो ज़ख़्मी भी हो जाते हैं।
मेरे इन तथाकथित मित्रों ने तो अब तक बड़े-बड़ों के बारे-न्यारे कर दिए हैं। ऊंचे  अफसरों को, मोटे-मोटे व्यापारियों व उद्योगपतियों को, छोटे-बड़े नेताओं और मंत्रियों को जान से मारने की धमकी देकर उन्हें सरकारी खर्च पर दर्जनों सुरक्षाकर्मी और सरकारी गाड़ियां उपलब्ध करवा दी हैं। जब वह सड़क पर निकलते हैं तो पुलिस की गाड़ियां धूं-धूं कर निकलती हैं। जान की सुरक्षा प्राप्त इन महानुभावों का खून तो अपने आप ही बढ़ जाता है। किसी टॉनिक के खाने की तो आवश्यकता ही नहीं पड़ती। वह अपने आप ही महत्‍वपूर्ण हो जाते हैं।
कई महानुभाव तो ऐसे हैं कि उनके पास अपना कोई मकान ही नहीं। यदि है तो इतना छोटा और किसी ऐसी संकरी गली में कि पुलिस ही कह देती है कि यहाँ रह कर उनकी सुरक्षा सुनिश्चित कर पाना संभव नहीं है। इस कारण तो सरकार उन्हें बड़ा सरकारी बंगला उपलब्‍ध करवा देती है।
अभी हाल ही में सरकार ने समाजवादी पार्टी के संसद व नेता अमर सिंह को जेड-प्लस की सुरक्षा उपलब्ध करवा दी। उत्तर प्रदेश में झगड़ा बाप-बेटे का और मौज लग गयी अमर सिंह जी की। इसे कहते हैं किस्मत। जब ईश्वर देता है तो छप्पड़ फाड़ कर देता है।
इसी तरह आतंकियों के सौजन्‍य से सरकार सोनियाजी की पुत्री प्रियंका गाँधी जी पर भी मेहरबान है। उन्हें भी नयी दिल्ली के एक अत्यंत  वीआईपी इलाके में सरकार ने उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने में सुविधा की दृष्टि से एक आलिशान कोठी दे रखी, ऐसे स्थान पर जहाँ सिर छुपाने के लिए जगह प्राप्त करने के सपने देखते-देखते तो कई परमात्मा को भी प्यारे हो जाते हैं। अगले जन्म में क्या होगा, यह तो ईश्वर ही जाने।
सरकार ने प्रियंका जी से इस कोठी का जब किराया माँगा तो उन्हों ने कह दिया कि वह इसका इतना बड़ा किराया वाहन करने के लिए आर्थिक रूप से सक्षम नहीं है। बात भी जायज़ है। कोठी सरकार ने आतंकियों के डर से उन्‍हें दी है। उन्‍होंने तो मांगी नहीं। यह तो सरकार ने स्वयं अपनी सुविधा के लिए दी है। तो सरकार की सहूलियत का बोझ वह क्यों उठायें? यह अलग बात है कि करोड़ो में खेलने वाले उनके पति उनके साथ इसी कोठी में रहते है। वह हिमाचल प्रदेश में शिमला में अपनी मर्ज़ी का एक बंगला भी बना रही हैं. मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार वह अब तक नए बंगले को छह-सात बार तुड़वा कर बना रही हैं क्‍योंकि अब तक जो बना वह उन्हें पसंद नहीं आया।
उधर किसी नेता, उद्यमी या अन्य की सुरक्षा का ताम-झाम तो अब स्टेटस सिम्बल भी बन गया है। एक व्‍यक्ति को सुरक्षा मिली और उसी के साथी या बराबर के व्यक्ति को नहीं मिली तो दूसरे में हीन भावना आ जाती है। उसके बच्चे ही पूछने लगते हैं कि डैडी आपको सुरक्षा क्यों नहीं मिली? क्या आपकी ज़िन्दगी सरकार के लिए कीमती नहीं है? बेचारा पिता हूँ-हाँ कर ही बात टाल देता है। और वह कर भी क्या सकता है?
एक मुसीबत और भी खड़ी हो जाती है। कई बार सरकार ही सुरक्षा प्रबंधों की समीक्षा करने लग पड़ती है। ऐसे हालात में कईयों की सुरक्षा या कम कर दी जाती है या हटा ली जाती है। इसका उनके नज़दीकी, संबंधी व परिचित यह अर्थ लगाने लगते हैं कि उसका राजनितिक व सामाजिक वज़न ही कम हो गया है। राजनीति में माना उसका महत्व ही नहीं रहा है। समाज की नज़रों में अपनी प्रतिष्ठा बरकरार रखने के लिए तब वह हाथ-पांव मारने लगता है ताकि उसकी सुरक्षा का दिखावा बना रहे। अनेकों बार वह कामयाब भी हो जाता है।
 वैसे ग़रीब आदमी की चिंता करता ही कौन है? कभी यह काम आतंकवादी अवश्‍य किया करते थे। अब उन्हों ने भी छोड़ दिया है।
सरकार से तो मुझे पहले ही आशा कम थी। पर जि़ंदगी में सब से ज्‍़यादा यदि किसी ने मायूस किया हे तो वह है मेरे जिगरी दोस्‍त आतंकियों ने। लोग चाहे उन्‍हें बुरा-भला कहते फिरते हों पर मेरे मन में उनके प्रति सदैव प्रेम, श्रद्धा व विश्‍वास का भाव रहा। पर अब यह बात पुरानी हो गई है। अब मैं भी उन्‍हें ग़रीबो का दुश्‍मन मानने लगा हूं। सच भी है। उन्‍होंने सब की मदद की बड़े-बड़े राजनीतिक नेताओं की, बड़े-बड़े नौकरशाहों की, और कुछ अपने चहेते लोगों की। इन लोगों को धमकी दे कर उनका कल्‍याण कर दिया। उन्‍हें सरकारी कोठियां व बंगले दिला दिये सरकारी खर्च पर। उनकी सुरक्षा के लिये कई सुरक्षाकर्मी तैनात करवा दिये। उनका तो नाम रौशन करवा दिया। जनता की लज़रों में उनका मान बढ़वा दिया।
पर मेरे साथ उन्‍होंने पता कौनसे जन्‍म का बदला लिया कि मुझे कोई धमकी नहीं दी। कहते हैं कि तेरे पास न कोई नाम है, न काम और न ही जेब में पैसे। तो इसका मतलब तो यह निकला कि चाहे सरकार हो या आतंकवादी सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।
ऐसा लगता है कि ग़रीब आदमी के लिए न तो सरकार है और न मेरे भाई आतंकवादी क्या ग़रीब की जान की कोई कीमत नहीं होती? अगर आतंकवादी भाई मुझे जान से मार देने की धमकी दे दें तो उनका कुछ नहीं जायेगा। हां, मुझे अवश्‍य पांच-दस आदमी और एक गाडी मेरी सुरक्षा के लिए मिल जाएगी। क्योंकि मेरे पास रहने के लिए कोई झुग्गी तक नहीं है, इस लिए सरकार को मुझे मकान भी देना ही पड़ेगा। जब सरकार मालदार सामियों को अपने घर होते हुए भी आलिशान कोठियां बढ़िया इलाक़ों में दे सकती है तो मुझे कोई छोटा सा मकान देने में उसका क्‍या चला जायेगा? मैं और मेरे सुरक्षाकर्मी भाई वहीँ इकट्ठा सो जाया करेंगे। भोजन का क्या है? जब वह पांच-दस आदमियों का खाना बनाएंगे तो मुझ एक ग़रीब के लिए खाना तो बिना और खर्च के आसानी से निकल आएगा। दोनों का काम आसानी से हो जायेगा। जब मुझे कहीं जाना होगा तो मैं उस सरकारी गाड़ी में अपने सुरक्षा कर्मियों के बीच बैठ कर कहीं भी चला जाऊंगा। न मुझे कोई अतिरिक्त व्यय करना पड़ेगा और न सरकार को। मेरे कपड़ों की समस्या भी हल हो जाएगी। पुलिस कर्मियों को समय-समय पर सरकारी वर्दी तो मिलती ही है।
मैं अपने सुरक्षाकर्मी भाइयों से उनकी पुरानी वर्दी मांग लूँगा वह आसानी से खुश होकर दे भी देंगे। पुरानी वर्दी तो उन्हीं भी फेंकनी ही है या फिर कबाड़ी को बेच देनी है। फिर इकट्ठे रह कर इतना भाईचारा तो पर पैदा हो जाना स्वाभाविक भी है उनके ही कपडे पहन लेने से तो उनका काम और भी आसान हो जायेगा। मुझे मार देने पर उतारू शत्रु जान ही न पाएंगे कि मैं कहाँ हूँ। वह समझ बैठेंगे कि उनके बीच बैठा मैं भी पुलिसकर्मी हूँ, न कि उनका निशाना मैं। सुरक्षा का काम भी आसान हो जायेगा।
पर यह काम ग़रीबों के तथाकथित मसीहा कहाँ करेंगे? और एक दिन मैं सड़क के किनारे मर जाऊँगा असुरक्षित, भूखा और प्यासा। तब आतंकवादियों की भी पोल खुल जाएगी1 सब उन्हें भी सरमायदारों का पिट्ठू मान लेंगे। वह सब नंगे हो जायेंगे। वक्‍त अभी भी नहीं गुज़रा। वह मुझे धमकी अभी भी दे सकते हैं और अपनी इज्‍़जत बचा सकते हैं। मेरा काम हो जायेगा। मैं उन्‍हें पुन: अपना और ग़रीबों का मसीहा समझने लगूंगा।***


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