महिलाओं के विरूद्ध अपराध रोकने केलिये हम भी तो कुछ करें
कहते हैं कि फ्रांस में रहने वाली एक भारतीय लड़की भारत आई तो वह प्रख्यात कवि स्वर्गीय रवीन्द्र नाथ
ठाकुर से मिली। उस लड़की ने उन्हे बताया कि फ्रांस में यदि कोई लड़का किसी सोई
लड़की के दस्ताने चुपके से उतार ले और उसे पता न चले तो उसे उस लड़की को को चूमने
का अधिकार मिल जाता है। थोड़ी ही देर में दस्ताने पहने वह लड़की सोफे पर ही लुढ़क
गई और उसे नींद आ गई। कौतुहल में रवि बाबू ने आहिस्ता-आहिस्ता उस लड़की के दस्ताने
उतार दिये। जब वह लड़की जागी तो उसने देखा कि उसके दस्ताने उतार लिये गये हैं। वह
हड़बड़ा उठी। रवि बाबू ने चुपचाप उसे दस्ताने लौटा दिये और कोई मांग नहीं की। उस
समय रवि बाबू बहुत युवा थे और अविवाहित ।
उस समय न तो सिनेमा था, न टीवी, न नग्न व भड़कीले चित्रों से भरपूर रंगीन
पत्र-पत्रिकायें और न इन्टरनैट ही। न स्कूलों में तब यौनशिक्षा का ज्ञान ही दिया
जाता था। पर यदि आज का आधुनिक ज़माना होता तो लड़का चाहे दस साल का ही क्यों न
होता, वह कई दिल दहला देने वाले दिलेराना करिश्में कर दिखाता जो रवि बाबू सोच भी
न पाये होंगे।
आज आये दिन बलात्कार व महिला उत्पीड़न के नये-नये किस्से घटित हो रहे हैं। उनके
पीछे कानून की ढिलाई से ज्य़ादा समाज में व्याप्त वातावरण का हाथ अधिक है। वस्तत:
यह कहना अतिशियोक्ति नहीं होगा कि हम बेहद पाखण्डी इनसान हैं जिन्हें अक़्ल सब
कुछ लुट जाने के बाद आती है, पहले नहीं।
बलात्कार और महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार पर मचे हो-हौआ को ही लीजिये। जब 16
दिसम्बर की शर्मनाक घटना घटी तो क्या-क्या नहीं घटा। सरकार ने भी बहुत ड्रामा
किया और जनता ने उससे भी अधिक। सरकार ने अपराधियों को दो मास में सज़ा सुना देने
की बात की। चार मास से अधिक हो गया पर यह कहना कठिन है कि कब।
तब लोग छातियां पीट-पीट कर चिल्ला-चिल्ला कर कहते थे कि अपराधियों को सूली
पर लटका दो। जब अपराधियों को फांसी देने का प्रावधान करने की बात आई तो कई इधर-उधर
झांकने लगे। कुछ कहने लगे कि ऐसे समय जब विश्व फांसी की सज़ा समाप्त करने की ओर
बढ़ रहा है तो हम फांसी की सज़ा देने के लिये नये से नये अपराध जोड़ते जा रहे हैं।
हमारे कानून में कमियां बहुत हैं। पर इन हालात केलिये उससे भी अधिक दोषी है
हमारा समाज जिसमें अनगिनत विकृतियां हैं। पहले कभी कोई लड़का किसी को बहन कह देता
था या लड़की किसी को भाई तो वह भाई-बहन हो जाते थे और उसकी मर्यादा निभाते थे। आज
तो महिलायें, बहुयें, बेटियां, बहनें व कमसिन बच्चियां अपने पिता, भाई, ससुर, देवर
आदि से ही अपने ही घर में सुरक्षित नहीं हैं। आये दिन ऐसे शर्मनाक समाचार आ रहे
हैं। यह सारा कसूर समाज का है, कानून या उसकी ढिलाई का नहीं।
जब हम देश में भूमण्डलीय व्यवस्था व पाश्चात्य सभ्यता के लिये द्वार खोलते
जस रहे हैं तो उसके साथ दहेज में बुराइयां तो आयेंगी ही। हम उनकी ओर ध्यान नहीं
देना चाहते।
अपने कपड़े उतार कर पैसे के लिये अपने फोटो खिचवाना व सिनेमा, टीवी, पत्र-पत्रिकाओं में दिखाना अभिव्यकित
की स्वतन्त्रता मानते हैं। हम कहते हैं कि अश्लीलता अपना शरीर दिखाने वालों के
मन में नहीं उसे देखने वालों के मन में है। उसका अधपके अव्यस्क किशोर-किशोरी मन
पर कोई दुष्प्रभाव नहीं मानते। अनेक बार समाचार आते हैं कि किसी बच्चे या अपराधी
ने अमुक अपराध अमुक फिल्म या सीरियल से प्रेरणा प्राप्त कर अंजाम दिया। ऐसी फिल्मों,
पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, सीरियल आदि पर प्रतिबन्ध लग जाये या किसी फिल्म का
कोई दृश्य या गाना सैंसर बोर्ड काट दे तो यह विचार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता
पर कुठाराघात बन जाता है। भारत में स्वतन्त्रता व जनतन्त्र पर ही प्रश्नचिन्ह
खड़ा कर दिया जाता है।
हमें विश्व के साथ कदम से कदम मिला कर चलना है। इसलिये हमारे शहरों में नाइट
लाइफ होनी चाहिये। पब होने चाहिये। शराब पीने की स्वतन्त्रता होनी चाहिये। अब तो
मांग चल रही है कि शराब पीने की उम्र भी कम कर दी जाये। पर शादी की उम्र बढ़ा कर
लड़की के लिये 18 और लड़के के लिये 21 ही है। लड़का-लड़की शराब तो इससे कम उम्र
में पी सकते हैं पर शादी नहीं कर सकते। जब नाइट लाइफ का लुत्फ उठा कर रात को लोग पब
से निकलेंगे तो वह नशे में तो होंगे ही क्योंकि वह वहां मौज-मस्ती करने आये थे,
माला जपने नहीं। जब आधी रात के बाद कोई महिला या पुरूष नशे की हालत में बाहर
निकलेगा तो ऐसे मौके का फायदा उठाने के लिये कोई अपराधी भी ताक में बैठ सकता है।
शराब के नशे में जब कोई गाड़ी चलायेगा तो पुलिस उसका चालान भी कर सकती है। उनकी
ऐसी नशे की हालत का कोई व्यक्ति ग़लत लाभ भी उठा कर सकता है।
मात्र कानून को ही सख्त करने से अपराध ओझल नहीं हो सकते। समाज
को भी कुछ सावधानियां बर्तनी होंगी ताकि कोई अप्रिय घटना न घटे। यह ठीक है कि हमें
रात के किसी भी समय घर से बाहर निकलने व पार्क या बाग़ में घूमने की पूरी स्वतन्त्रता
होनी चाहिये। पर इसके साथ इस स्वतन्त्रता व हक का मज़ा उठाने की जोखिम उठाने के
लिये भी तो हमें तैय्यार रहना होगा। एक सभ्य व सुशील समाज में किसी व्यक्ति को
किसी भी समय कितनी भी बड़ी रक़्म लेकर चलने की पूर्ण स्वतन्त्रता तो होनी ही
चाहिये। पर उसे साथ ही सावधानी भी बर्तनी होगी। यदि मैं एक पारदर्शी थैले में दस
लाख रूपये अपने कन्धे पर लटका कर रात के बारह बजे बाद किसी सुनसान सड़क पर घूमता
फिरूं और कोई यह राशि लूट कर ले जाये तो पुलिस या कानून क्या कर लेगा\
इस लिये जहां कानून को कठोर बनाने की आवश्यकता है कि अपराधी सज़ा से न बच निकले वहीं समाज को भी पूरी
सावधानी बर्तेने का अपना कर्तव्य निभाना होगा जिससे कि अपराध की भावना न पनपे। यदि
हमें बाह्य संस्कृति को ही अपनाना है तो हमें उस के साथ आने वाली बुराईयों को भी
स्वीकार करना पड़ेगा। हमें केक खाने और उसे अपने पास संजो कर रखने का प्रपंच व
ढोंग नही रचना होगा।
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