कांग्रेस की नज़रों में
राष्ट्र विकास के
लिये भ्रष्टाचार रामबाण और विरोध राष्ट्रद्रोह?
आज की तारीख में यह कहना कठिन है कि देश में सुशासन की
परिभाषा ''राम राज्य'' है। फिर क्योंकि इसके साथ राम का नाम लगा हुआ है इसलिये
यह तो स्वत: ही 'साम्प्रदायिक' बन जाता है जिससे ''सैकुलर'' कांग्रेस को तो
कोसों दूर रहना है। फिर आज की कांग्रेस को 1947-48 वाली कांग्रेस कह देना तो दोनों
कांग्रेस व महात्मा गांधी को ही नकार देना होगा क्योंकि महात्मा ने तो स्वतन्न्त्रता
प्राप्त होते ही सलाह दे दी थी कि इस संगठन को यहीं पर
समाप्त कर दिया जाये। लगता है महात्मा गांधी को आने वाले समय में इस संगठन के
भविष्य का पूर्वाभास हो गया था। यदि कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं ने उनकी बात
मान ली होती तो आज कांग्रेस भी जनता के सम्मान व श्रद्धा की उतनी ही पात्र होती
जितना कि आज महात्मा गांधी हैं। पर कांग्रेस को तो स्वतन्त्रता की लड़ाई को सत्ता
पाने के लिये भूनाना था। वह महात्मा का नैतिक पाठ कैसे सुन व मान सकती थी?
आज तो ऐसा प्रतीत होने लगा है कि कांग्रेस व भ्रष्टाचार एक
दूसरे के प्रायवाची बन गये हैं। कांग्रेसनीत सम्प्रग के पिछले 9 वर्ष से अधिक के
दो कार्यकालों में तो भ्रष्टाचार के सभी रिकार्ड टूट कर रह गये हैं। अब तो भ्रष्टाचार
का कोई नया मामला जब भी उठता है तो उसमें कुछ नया लगता ही नहीं। यह सब तो बस उसकी अपनी
ही संस्कृति की ही एक और झलक बन कर रह गई है।
अपने तौर पर
कांग्रेस भी इन आरोपों का खण्डन करना कुछ आवश्यक व उचित नहीं समझती। जब-जब किसी
नये भ्रष्टाचार घोटाले का भाण्डा फूटता है तो यह अपने आरोपियों व आलोचकों पर ही
उलटे प्रत्यारोप मढ़ कर यह साबित करने की कोशिश करती है कि भ्रष्ट केवल वह ही
नहीं है उसके विराधी भी उससे कम नहीं हैं। मानो कांग्रेस ने तो देश में सारा प्रशासनिक
व राजनीतिक वातावरण ही भ्रष्टाचारमय बना दिया हो जिसमें ईमानदार के लिये तो कोई
स्थान ही नहीं बचा है।
कहते हैं सावन के अन्धे को हरा-हरा ही दिखाई देता
है। उसी प्रकार कांग्रेस को भी सभी भ्रष्ट ही दिखते हैं। पर इतना अवश्य प्रतीत
होता है कि कांग्रेस भ्रष्टाचार की दौड़ में भी अपने प्रतिद्वन्दियों को पीछे ही
पछाड़ना चाहती है।
एक ओर तो 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले में आरोपियों को
जेल में बन्द करने कं लिये कांग्रेस अपनी पीठ स्वयं ही ठोंकती फिरती है तो दूसरी
ओर आरोपियों व उनके दल का नाम लेने से भी वह उसी प्रकार झिझकती व शर्माती है जिस प्रकार एक भारतीय
नारी अपने 'उन' का नाम लेने से कतराती है।
एक ओर तो कांग्रेस दूसरे दलों को संवैधानिक संस्थाओं
का आदर-सम्मान करने की नसीहत देती है तो दूसरी ओर पिछले चार साल के अपने दूसरे
कार्यकाल में उसने भारत के नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (निमहापरी) जैसी
अनेक ऐसी संस्थाओं की हर बार भर्त्स्ना की है जब उन्होंने एक के बाद अपनी एक
रिपोर्ट में संप्रग सरकार की पोल खोली है और अनेकों स्कैमों का पर्दाफाश किया है।
इसका तो एक ही निष्कर्ष निकलता है कि कांग्रेस की वाह-वाह लूटने के लिये तो किसी
भी संवैधानिक संस्था को सत्य से मुंह मोड़ कर कांग्रेस सरकार की भूरी-भूरी
प्रशंसा ही करने पड़ेगी।
पिछले दिनों भारत का सब से बड़ा घोटाला कोलगेट हुआ 1.86 लाख करोड़ रूपये का।
जब उच्चतम् न्यायालय ने इसका संज्ञान लिया और केन्द्रिय जांच ब्यूरो को इसकी
जांच का आदेश दिया तब ही ब्यूरो हरकत में आया। पहले तो उसने एक कांग्रेस सांसद
नवीन जींदल और बाद में बिड़ला ग्रुप के एक प्रमुख औदृोगिक घराने व एक सेवानिवृत
कोल सचिव को अपराधी बनाया। सेवानिवृत कोयला सचिव ने कहा कि उन्हें अपराधी बनाने से
पहले अपराधियों में प्रथम नाम तो प्रधान मन्त्री का होना चाहिये जिनकी लिखित स्वीकृति
व आदेश के फलस्वरूप ही यह निर्णय हुआ क्योकि उस समय प्रधान मन्त्री के पास ही
कोयला मन्त्रालय का कार्यभार था। मीडिया के अनुसार प्रधान मन्त्री को बचाने के
उद्देश्य से ही बिड़ला ग्रुप के विरूद्ध मामला दर्ज किया गया है। 19 अक्तूबर को
अपनी चुप्पी तोड़ते हुये प्रधान मन्त्री ने भी अपने इस निर्णय को उचित ठहराया है
और उसका पूरा उत्तरदायित्व स्वीकार किया है। कुछ-कुछ तो अब स्पष्ट होने ही लगा
है।
अब प्रश्न तो यह उठता है कि जब प्रधान मन्त्री इस निर्णय को न्यायोचित बता
रहे हैं और उसपर अपनी जवाबदेही भी जता रहे हैं तो यह जो आपराधिक मामला जांच ब्यूरा
ने बनाया है उसमें प्रधान मन्त्री एक अपराधी क्यों नहीं? यह मान बैठना
सरासर ग़लत होगा कि फाइल को देखे और सोचे-समझे बिना ही प्रधान मन्त्री या अन्य
मन्त्री अपने हस्ताक्षर छाप देता है। और फिर अन्तत: उस ग़लत या ठीक निर्णय के
लिये अधिकारी ही जि़म्मेवार हैं तो मन्त्रिमण्डल की आवश्यकता ही क्या है?
चीन की यात्रा से लौटते समय प्रधान मन्त्री ने कहा कि वह
कानून से ऊपर नहीं हैं और जांच ब्यूरो के सामने पेश होने को तैय्यार हैं। हमें
याद रखना होगा कि 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले के समय भी प्रधान मन्त्री ने संयुक्त
संसदीय समिति के सामने पेश होने का दमदार वादा किया था। पर जब जांच समिति बनी तो न
तो प्रधान मन्त्री स्वयं पेश हुये जैसे कि उन्होंने वादा किया था और न ही मुख्य
आरोपी ए राजा को ही पेश होने दिया। इस बार वह अपने दावे पर कायम रहेंगे यह कहना तो
कांग्रेस के लिये भी मुश्किल है।
अब जबकि भारत की विकास दर प्रति वर्ष कम होती जा
रही है और नवीनतम् संकेतों के अनुसार उसके 4.4 प्रतिशत तक लुढ़क जाने की शंका जताई
जा रही है तो कांग्रेस के नेता अपनी अकर्मण्यता व ग़लत नीतियों का सारा ठीकरा निमहापरी
की रिपोर्ट के सिर फोडने का प्रयास कर रहे हैं। सरकार यह भ्रम फैलाने
का प्रयास कर रही है कि ये सारे घोटाले वास्तव में निमहापरी के दिमाग़ की उपज हैं1
तो इसका निष्कर्ष क्या यह निकाला जाये कि
कांग्रेस सरकार की नज़रों में भ्रष्टाचार राष्ट्र के विकास के लिये अचूक रामबाण
है और जो भ्रष्टाचार मिटाना चाहते हैं वह राष्ट्रद्रोही हैं?
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