Friday, October 31, 2014

'कल्‍चर्ड' की परिभाषा

'कल्‍चर्ड' की परिभाषा

विख्‍यात उर्दू कवि अकबर इलाहाबादी अपने समय में सेशन जज थे। पर पाश्‍चात्‍य सभ्‍यता के घोर विरोधी थे। अंग्रेज़ों के प्रभाव में भारतीय सभ्‍यता पर भी बड़ा असर पड़ रहा था। तो उन्‍होंने आधुनिक कल्‍चर (सभ्‍यता) पर कटाक्ष करते हुये उसे परिभाषित किया —

खुदा के फज्‍़ल से मियां-बीवी दोनों मुहज़ज़ब हैं
हया उनको नहीं आती, उन्‍हें ग़ुस्‍सा नहीं आता। 

(खुदा — ईश्‍वर, फज्‍़ल — कृपा, मुहज़ज़ब — कल्‍चर्ड, हया — शर्म)


आपकी क्‍या राय है\

एक सच्‍ची घटना — ''मेरे लिये केवल थोड़ा-सा भूसा''

एक सच्‍ची घटना
''मेरे लिये केवल थोड़ा-सा भूसा''

चण्‍डीगढ़ में एक डीऐसपी थे। उनके पिता भी पुलिस ही में थे थानेदार। वह रोहतक जि़ला के थे जो आजकल हरियाणा में है। उन्‍होंने बताया कि एक बार उनके पिता अपने प्रवास पर एक गांव गये। गांव के लम्‍बरदार ने उन्‍हें अपने घर खाने पर बुलाया और पूछा — आप क्‍या खाना पसन्‍द करेंगे\

थानेदार न मांस खाते थे, न मछली। उन्‍होंने कहा — मुझे तो बस मक्‍की की मिस्‍सी रोटी और लस्‍सी दे दो। और कुछ नहीं चाहिये। मेरे लिये इससे बढि़या और कोई चीज़ नहीं है।

थानेदार साहिब के साथ एक अरदली सिपाही भी था। लम्‍बरदार ने उससे पूछा — भाई साहिब, आपके लिये क्‍या बनवाऊं\

सिपाही सहज भाव से बोला — साहिब, मेरे लिये तो आप बस थोड़ा सा भूसा ही मंगवा दीजिये।

लम्‍बरदार अचम्‍भे में पड़ गया। उसने पूछा — हवलदार साहिब, क्‍या मुझसे कोई ग़लती हो गई\

सिपाही बोला — साबॅ, आप क्‍या बोल रहे हैं\ मैं तो यह बता रहा था कि मेरा बॉस मिस्‍सी रोटी व लस्‍सी पी रहा है। मैं तो उसके बराबर का खाना नहीं खा सकता और उससे नीचे तो बस भूसा ही है जो में खा सकता हूं।



सब हंस पड़े।                                 $$$

Saturday, October 18, 2014

HYPOCRISY AT ITS BEST — Extracting the soul out of Diwali

Hypocrisy at its best
Extracting the soul out of Diwali
By Amba Charan Vashishth
Fairs and festivals are the very life and soul of a people and a nation. All over the world,  these are celebrated with zeal, gaiety, gusto and spirit. If you look at the celebrations and the rituals observed on such occasions, one would laugh and snide at some of them. Some look injurious to the society's health. Such things are not in tune with the present day thinking. Yet, these are observed religiously all over the world. And these should be!
In India, two festivals of Diwali and Holi are times when one goes riot with joy while playing with fireworks, distributing sweets and gift. Holi is a crack of colours, people going wild with joy. These are the festivals which transcend the contours of caste, creed, sex, colour and region.  In both the festivals the crackers, the fireworks, sweets and colours are the very life and soul. If one takes out fireworks and colours out of these festivals, these are rendered colourless, odourless, devoid of fun and merrymaking. These then become a body without a spine and soul.

But, of late, some liberals, social 'reformers' wish to deprive Diwali of its mirth by calling for a cracker-less Diwali and a Holi robbed of its colours. They argue that bursting of firecrackers on Diwali "raises air and sound pollution levels to an alarming high…. and levels of noxious gases ……rise to hazardous levels". But does it, in their great thoughts, exist only in the Hindu way of life that is suffering from 'ills' of their thinking? Do crackers raise the level of "air and sound pollution" only on the Diwali day and playing Holi is harmful only during the Holy festival and not on other occasions?

Do other faiths not have rituals and customs that are obnoxious to the eye and heart when performed in public places? Do crackers not raise the levels of "air and sound pollution" high when these are burst at political party functions and victories? Every other day, political parties play Holi on the occasion of the victory of their party and leaders. Recently, the air in Chennai was raised to high levels of pollution when DMK workers and leaders burst crackers when Miss Jayalalitha was jailed and, later, on their turn by AIDMK leaders and workers when she was released?

Only those political and social leaders have the moral right to talk of "air and sound pollution" when they first ban cracking of firecrackers one the occasion of their own and their party's win in elections. When there is a marriage or other function in their own houses. Otherwise, it is only hypocrisy.

People are put to great inconvenience when religious and social processions, like on marriage, are taken out on the busy roads of cities. Protest demonstrations also raise the level of "noise pollution" in the area through which they pass. Even plying of motor vehicles raises the level of "air and noise" pollution. In certain small markets, the hawkers raise a great noise to attract customers. Loudspeakers installed in religious places blare unwanted songs and teachings in the area they are situated.

Unless our social reformers and administrators succeed in preventing such "air and sound pollution" they have no right to preach for asking people not to burst crackers and fireworks on Diwali and use colours on Holi.


At the same time, there is need to take precautions that such bursting is not careless and does not cause injury to an individual and property. Further, the colours used during Holi are safe and cause no harm to the body, ear, nose and eyes.                                        ***

Sunday, October 12, 2014

हंसी-ठिठोली — किस्‍से बीवियों के

हंसी-ठिठोली
किस्‍से बीवियों के

खाना तैय्यार है — रैस्‍तरां में

बेचारा पति दफ्तर से थका-मांदा घर पहुंचा। उसे बहुत भूख लगी थी। आते ही बीवी से पूछा, ''खाना तैय्यार है\''
बीवी ने मटकते हुये कहा, ''हां, रैस्‍तरां में।''

पांच सौ और दीजिये, सॉब

एक पति ने अपने नौकर को पांच सौ रूपये का नोट थमा कर कहा, ''देखो, बीबीजी को मत बताना कि पीछे से कोई आई थी।''
नौकर बोला, ''सॉब, तब तो पांच सौ का एक नोट और दीजिये''।
''क्‍यों\'' पति ने हैरान होकर रौब से पूछा।
''सॉब, ऐसे मौके पर तो बीबीजी एक हज़ार रूपया देती हैं,'' नौकर ने सहज भाव से बताया।

ताकि वह सदा सिर झुका कर बात करे

दो लड़किया आपस में बात कर रही थी और बता रहीं थी कि उसे कैसा पति चाहिये। एक ने कहा कि मुझे पति अपने से बहुत लम्‍बा चाहिये।
क्‍यों\ दूसरी ने पूछा।
ताकि मैं जब भी उससे बात करूं तो सिर उठा कर और वह जब भी मुझ से बात करे तो सिर झुका कर।

क्‍या मैं इस समय पच्‍चीस की नहीं हूं\

पचास साल से भी अधिक की बात। बताते हैं उन दिनों लकड़ी के चूल्‍हे जलते थे। चूल्‍हे के सामने ही पत्नि तवे पर से गर्म-गर्म रोटी खिलाती जा रही थी। दाल-भाजी भी बड़ी स्‍वाद थी। पति ने मस्‍का लगाते हुये कहा, ''जब तुम पच्‍चीस साल की थी तब तुम बहुत सुन्‍दर लगती थी।''
पत्नि एक दम गुस्‍से से लाल हो गई। चूल्‍हे से एक जलती लकड़ी उठा कर उस पर ज़ोर से सटाते हुये कहा, ''क्‍यों, मैं आज भी पच्‍चीस साल की नहीं हूं\''

हाय-हाय, मैं ही रंडी हो जाऊं

प्रात: उठा तो पत्नि ने देखा कि पति बड़ा उदास है। उसने कारण पूछा। पति ने यह कह कर टाल दिया कि कोई विशेष बात नहीं है।
पत्नि को लगा कि वह उससे कुछ छुपा रहा है। उसने कहा, ''नहीं, कुछ बात तो है''।
पति ने फिर अनमने से कहा कि नहीं, कुछ बात नहीं।
पर पत्नि कहां मानने वाली थी इतनी आसानी से। उसने कहा कि तुम्‍हें मेरी कसम। सच्‍च-सच्‍च बता दो कि क्‍या बात है।
अब पति हार गया। बोला – ''सपने में मैंने एक बुरा सपना देखा''।
क्‍या देखा\ सच्‍च–सच्‍च बताओ, पत्नि ने कौतूहल में पूछा।
पति ने बताया कि रात उसने स्‍वप्‍न में देखा कि वह रंडुआ हो गया।
अपनत्‍त दिखानी हुई पत्नि बोली - हाय-हाय, आप क्‍यों रंडुये होओ। मैं ही रंडी हो जाऊं।

मेरे रहते ऐसा कभी मत कहना

पति बड़ा हताश था। बोला — अब तो मैं इस निष्‍कर्ष पर पहुंचा हूं कि मैं ही अपन सब से बड़ा शत्रु हूं।
पत्नि ने पति का हाथ पकड़ा और आंखों में आंसू छलकाते हुये सहानुभूति से कहा — देखो, जब तक मैं जि़न्‍दा हूं ऐसा कभी मत कहना।
गृह-लक्ष्‍मी कौन\

गृह-लक्ष्‍मी वह जो घर को स्‍वर्ग और घरवालों को स्‍वर्गवासी बना दे।


6 अक्‍तूबर 2014 को कर्वाचौथ वाले दिन फेसबुक पर ली चुटकियां

एक ने लिखा :-
 वह न जीने देती हैं, न मरने

                  बीवियां
जीने नहीं देतीं
ऊपर से कर्वाचौथ का ब्रत रखती हैं और
मरने भी नहीं देतीं।

दूसरे ने लिखा :-

तुम्‍हारा ब्रत टूट जायेगा

     कर्वाचौथ का ब्रत रख कर भी एक बीवी पति के साथ चकचक करने से बाज़ नहीं आ रही थी। तंग आकर पति ने कहा — बस करो। तुमने ब्रत रखा है कुछ न खाने का। पर यदि तुम मेरा दिमाग़ खाती जाओगी तो तुम्‍हारा ब्रत टूट जायेगा।
 
  

Thursday, October 9, 2014

'Seculars' feeling hurt by RSS chief Bhagwat's petals

'Seculars' feeling hurt by RSS chief Bhagwat's petals 

By Amba Charan Vashishth


She must find fault with anything, everything the husband does. And that is exactly what, like a nagging wife, the opposition seems to be doing. The latest is the din raised by the opposition over the public broadcaster Doordarshan (DD) relaying live the customary  Dussehra address by the Rashtriya Swayamsewak Sangh (RSS) Sarsanghchalak Shri  Mohan Bhagwat.

The criticism could have been based, primarily, on two grounds. First, Shri Bhagwat was an non-entity and by relaying it DD provided him a platform he otherwise didn’t deserve. Secondly, what he spoke on the occasion hurt the sentiments of the nation or an individual, a group, a caste, creed, region or sex. But there is nothing of the sort. His address was tinged with the spirit of swadeshi, nationalism and nation’s pride. But what for is the opposition, like the ever-complaining wife, if it doesn’t find fault with the government? Surprisingly – and comforting for Shri Bhagwat – none of them has criticized him the contents of his Vijayadashmi speech.  Consequently, the comments of the critics prove turn wanton without substance, opposition for opposition sake.

 Their (il)logic

CPI-M leader Dipankar Bhattacharya puts the strange logic. “Modi on AIR, thugs on streets, trolls on twitter”, he argues, “let the mind still be free and without fear”. As if, in traditional communist mindset, flow of different opinions from all shades and sides is a hurdle to the mind being “free and without fear”.

To the erudite Congress spokesperson Abhishek Singhvi’s mind it “reinforces the fear that the country is ruled for and from Nagpur…..Misusing official broadcaster to mandatorily cover RSS head with no official locus; a taste of times to come”. The Party had no objection when the “official broadcaster” was used to give wide and live coverage to Rahul Gandhi and Sonia Gandhi’s visits to their parliamentary constituencies out and out a political campaign. Not to speak of non-Congress MPs, even other Congress MPs were denied this very special “privilege” the mother-son due was singled out for special treatment as if DD belonged not to the nation but the two individuals of Congress alone. Further, the visits were of interest only to a section of these two constituencies and the whole nation was fed with unwanted reports of least interest to them.

History is an objective, fair and impartial document. But our historian Ramchandra Guha could not hide where his sympathies lay in his research when he commented: “This naked state majoritarianism must be resisted”. The majoritarianism he despises he doesn’t elaborate. As a historian of his clan he believes in being autocratically authoritarian to the exclusion of majority of facts and opinion. Obviously, he wishes people to believe, as he does, that democracy is not rule by majority but by self-righteous opinion holders like him.

The RSS function was obviously an important event which DD viewers had all through been denied by the Congress rulers all these years. The other private channels availed themselves of this opportunity and added to the viewership and the resultant ad revenue. It is here that the DD was the loser on both counts. Diatribes of the critics are a clear indication why DD remained a losing institution all these years.


Nobody can deny the fact that RSS is the world’s largest voluntary organization which has done a Yoeman’s service everywhere whenever the country was in distress – in recent J&K floods, Kedarnath tragedy, tsunami catastrophie and what not. Why should DD shy away from reporting their activities which are of interest to a vast majority of the people? In a way, it has benefitted RSS criticis because it provided them fodder for their criticism. They should welcome it.                                                                                             ***'   
Published in the ORGANISER Weekly in its October 19, 2014 issue
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