Monday, May 30, 2016

हास्‍य-व्‍यंग कानोंकान नारदजी के राजनीति तेरे रंग अनेक

हास्‍य-व्‍यंग
        कानोंकान नारदजी के
राजनीति तेरे रंग अनेक

बेटा:   पिताजी।
पिता:  हां, बेटा।
बेटा:   आपको पता है महाराष्‍ट्र के कुछ जि़लों में पीने के पानी का भ्‍यंकर संकट पैदा हो गया            है?      
पिता:  हां, बेटा। बहुत दु:खदपूर्ण स्थिति है।            
बेटा:   और हमारे दिल्‍ली के मुख्‍य मन्‍त्री श्री केजरीवाल तो बहुत ही दयावान निकले।
पिता: कैसे?
बेटा:  उन्‍होंने निर्णय ले लिया है कि वह महाराष्‍ट्र केलिये प्रतिदिन 10 लाख लीटर पानी दिल्‍ली से        भेजेंगे।   
पिता:  लेकिन इतनी दूर पानी पहुचेगा कैसे?
बेटा:   उसके लिये उन्‍होंने केन्‍द्र सरकार से अनुरोध कर दिया है कि वह यह पानी वहां पहुंचाने के लिये माल गाडि़यों का प्रबन्‍ध कर दे।
पिता:  रेल का भाड़ा कौन देगा?
बेटा:   यह तो साफ नहीं है पर लगता है इसका बोझ तो केन्‍द्र को ही सहना पड़ेगा।
पिता:   पर बेटा, क्‍या दिल्‍ली सरकार के पास इतना फालतू पानी है कि वह महाराष्‍ट्र केलिय
       जलदान कर सके?                                                            
बेटा:   पिताजी होगा तभी तो उन्‍होंने यह प्रस्‍ताव किया है।
पिता:  पर बेटा, सरकार और मीडिया कि रिपोर्ट तो यह कहती है कि दिल्ली में स्‍वयं पानी की 35 प्रतशि‍त की कमी है और सरकार दिल्‍ली की जनता को ही पानी की पूर्ति नहीं कर पा रही है।
बेटा:   और पिताजी उलटे अपनी पानी की पूर्ति के लिये हरियाण पर आश्रित है।
पिता:  यह तो बेटा है।
बेटा:   ऊपर से पिताजी सूर्य देवता भी कुछ ज्‍़यादा ही गर्म होते दिख रहे हैं। इससे तो दिल्‍ली में पानी की अपनी ही मांग बहुत बढ़ जायेगी। 
पिता:  बेटा, केजरीवाल मुख्‍य मन्‍त्री कम और राजनेता अधिक हैं और राजनेताओं की बातों को ज्‍़यादा संजीदगी से नहीं लेना चाहिये।
बेटा: फिर भी पिताजी, आदमी की ज़ुबान की भी तो कोई कीमत होती है।
पिता:  बेटा राजनीति में ज़ुबान तो छोड़ आदमी की कीमत नहीं होती। पर केजरीवाल हैं पक्‍के राजनेता। वह जानते हैं कि आवश्‍यकता पड़ी तो कोई बहाना भी घड़ लेंगे। नहीं होगा तो केन्‍द्र पर दोष मढ़ देंगे कि उसने गाडि़यों का प्रबन्‍ध नहीं किया।
बेटा:   तब तो पिताजी केजरीवालजी के दोनों होथों में लड्डू हैं। वह जो राजनीतिक लाभ अर्जित करना चाहते हैं वह तो मिल गया।
पिता:  इसे ही बेटा राजनीति कहते हैं।
बेटा:   मैं तो पिताजी उनकी राजनीति का कायल हो गया हूं।
पिता:  इस बात के लिये तो केजरीवाल की जितनी तारीफ की जाये उतनी ही कम है।
बेटा:   पिताजी, आजकल की राजनीति को देखते हुये मुझे तो लग रहा है कि मैंने अपने जीवन का बहुमूल्‍य समय यूंहि बर्बाद कर दिया। 
पिता:  तू कौनसे झण्‍डे गाड़ देना चाहता था?
बेटा:   मैंने सूझबूझ से काम लिया होता तो आज मैं भी अपने प्रदेश का मुख्‍य मन्‍त्री होता।
पिता:  आज तू फिर लगा वही पुरानी बकवास करने। आज तक कुछ कर तो पाया नहीं, हवाई किले अवश्‍य बनाता रहता है।
बेटा:   पिताजी, आपका बेटा इस बार सब सच कर दिखायेगा। तब आप मेरी पीठ भी थपथपायेंगे और गर्व से अपना सीना भी फुलायेंगे।
पिता:  मैं तेरी फिज़ूल बकवास से आगे ही तंग हूं। चुप हो जा अब।
बेटा:   पिताजी, ऐसा आप इसलिये कह रहे हैं क्‍योंकि आपको पता नहीं कि विदेशों की तर्ज़ पर अब हमारे देश में भी ऐसे व्‍यक्ति व कम्‍पनियां आ गई हैं जो किसी भी व्‍यक्ति को प्रधान मन्‍त्री व मुख्‍य मन्‍त्री बना सकती हैं।
पिता:  तेरा मतलब बन्‍दे में स्‍वयं कोई योग्‍यता हो या न हो, तब भी?
बेटा:   पिताजी, कहते हैं भारत में एक ऐसा करिश्‍माई व्‍यक्ति आ गया है जो किसी पार्टी को भी जिता सकता है और मुख्‍य मन्‍त्री बना सकता है। ऐसी कुछ कम्‍पनियां भी आ गई हैं। उनका चालू असम, पश्चिमी बंगाल व आने वाले पंजाब व उत्‍तराखण्‍ड चुनावों के लिये अनुबंध कर लिया गया है।
पिता: अच्‍छा?
बेटा:  आपको पता है पिछले लोक सभा चुनाव में मुख्‍य मन्‍त्री होते हुये भी नितीश कुमार की पार्टी बिहार में बुरी तरह हार गई थी और तब तय लगता था कि नितीश कुमार के भी दिन लद गये हैं।
पिता:  फिर क्‍या हुआ?
बेटा:   पहले हार केलिये नैतिक जि़म्‍मेदारी कबूल करते हुये नितीश जी ने मुख्‍य मन्‍त्री पद से इस्‍तीफा दे दिया। पर जिसके मुंह में सत्‍ता का खून लग जाये वह उसके बिना रह नहीं सकता। चुनाव से कुछ मास पूर्व उन्‍होंने फिर मुख्‍य मन्‍त्री की गद्दी सम्‍भाल ली। चुनाव रणनीति के माहिर को काम पर लगाया और वह देखो, उसने सभी को झूठा साबित कर दिया और नितीशजी को पुन: सत्‍ता में ला खड़ा कर दिया।
पिता:  तो बेटा, उसने मुंह मांगी फीस ली होगी।
बेटा:   पिताजी, जब नथ पहननी है तो नाक भी बिंध्‍वानी पड़ेगी और जेब भी ढीली रखनी पड़ेगी ही।
पिता:  अब तो सरकार में भी उसकी तूती बोलती होगी?
बेटा:   पिताजी, जब काम किया है तो उसका फल भी तो मिलेगा ही।
पिता:  तेरा मतलब ये चुनाव के महारथी किसी को भी चुनाव जिता सकते हैं? तेरे जैसे को भी?
बेटा:   बिलकुल।
पिता:  मैं तो विश्‍वास नहीं कर सकता कि वह तेरे जैसे को भी जीत दिला सकते हैं।
बेटा:   पिताजी, नितीश कुमारजी लगभग 14 मास पूर्व ही बुरी तरह लोक सभा चूनाव हार गये थे। तब तो ऐसा लग रहा था कि विधान सभा चुनाव में भी उसकी लुटिया डूबी ही समझो। पर उस रणनीतिकार ने कर दिखाया न करिश्‍मा? 
पिता:  पर तू कहां से लायेगा करोड़ों रूपये? मेरे पास तो तुझे देने केलिये लाखों भी नहीं हैं।
बेटा:   करोड़ों नहीं, पिताजी अरबों।
पिता:  तो तू यह सारे लायेगा कहां से?
बेटा:   पिताजी, जनता और अपने समर्थकों से। आपको शायद पता नहीं कि चुनाव कोई अपने पैसे से नहीं लड़ता। इस देश में खुले दिल से दान देने वाले दानवीरों की कमी नहीं है।  
पिता:   वह क्‍यों लुटायेंगे तुझ पर लाखों-करोड़ों?
बेटा:   पिताजी, ये व्‍यक्ति व संस्‍थायें किसी को भी जिताने व मुख्‍य मन्‍त्री बनाने में इतनी मशहूर हैं कि ज्‍योंहि लोगों को पता चलेगा कि मैंने उनकी सेवायें प्राप्‍त कर ली हैं तो सभी को तसल्‍ली हो जायेगी कि मेरा मुख्‍य मन्‍त्री बनना तो अब तय है। तब सभी काली कोठरियों में बेकार पड़ी अपनी गठरियों को निकालकर मेरे घर लाइन लगा कर खड़े हो जायेंगे अपना पहला नम्‍बर लगवाने के लिये। मुझे अपनी तुच्‍छ सी भेंट स्‍वीकार करने के लिये प्राथर्ना करेंगे। कहेंगे कि फिर हाजि़र होते रहेंगे। उन्‍हें पता है कि यदि वह बार-बार आकर अपनी शक्‍ल नहीं दिखाते रहेंगे तो मैं उन्‍हें पहचान नहीं पाऊंगा क्‍योंकि सत्‍ता प्राप्ति पर व्‍यक्ति की अपनी यादाश्‍त क्षीण हो जाती है और कई बार तो वह अपनों को भी पहचानने से इनकार कर देता है।    
पिता:  तब तू कहीं मेरे साथ भी ऐसा तो नहीं करेगा?
बेटा:   नहीं पिताजी, मैं कभी इतना नहीं गिर सकूंगा।
पिता:  चलो, ईश्‍वर सब कुछ करे। मेरी शुभकामनायें तेरे साथ हैं। किसे बुरा लगेगा जब उसका पुत्र मुख्‍य मन्‍त्री बन जाये चाहे वह कितना भी निकम्‍मा या नालायक क्‍यों न हो।
बेटा:   पिताजी, सच्‍चाई यह है कि सत्‍ता मिल जाने पर व्‍यक्ति के अवगुण अपने आप ही छुप जाते हैं।
पिता:  ऐसा तो है बेटा।
बेटा:   पर पिताजी, मुझे एक ही बात से डर लगता है।
पिता:  किस से?
बेटा:   राजनीति में जब विरोधी विरोध केलिये किसी भी हद तक गिर जाते हैं। 
पिता:  क्‍या हुआ?
बेटा:   आपने मीडिया में नहीं देखा कि कश्‍मीर के एक गांव में किस प्रकार सेना के विरूद्ध घोर प्रदर्शन व हिंसा हुई जिसमें पांच-छ: निर्दोष जाने भी चली गईं?
पिता:  यह तो बेटा बहुत बुरा हुआ। पर लोग भी तो इस बात पर उत्‍तेजित हो उठे थे कि सेना के कुछ जवानों ने वहां की स्‍थानीय किसी छात्रा से बदसलूकी की थी।
बेटा:   पिताजी, दु:ख की बात तो यह है कि लोग अफवाहों पर विश्‍वास कर अपना आप खो बैठते हैं और कोई सच्‍चाई जानने की कोशिश नहीं करता।
पिता:  तो सच्‍चाई क्‍या है?
बेटा:   अब देखो सच्‍चाई आपको भी पता नहीं। सारा दिन तो आप टीवी से चिपके रहते हैं और अखबार में छपी खबरों को भी पूरी तरह चाट जाते हैं पर इस मामले की सच्‍चाई आपको भी पता नहीं।
पिता:  बेटा हम वही पढ़ते हैं, सुनते हैं जो अखबार में छपता है या टीवी में दिखाया जाता है। सच्‍चाई जानने केलिये हमारे पास क्‍या साधन है?
बेटा:   यही तो पिताजी हमारे जनतन्‍त्र की ट्रैजडी है। हर नेता, हर अखबार व टीवी चैनल सच्‍चाई पर रंग चढ़ा कर अपने हिसाब से इस प्रकार प्रस्‍तुत करता है कि इस स्‍वार्थ की बाढ़ में सच्‍चाई जानने वाला डूब कर मर जाता है।
पिता:  पर हुआ क्‍या? तू तो अपने बाप को बता।
बेटा:   हिंसा के अंधेरे में कोई सच्‍चाई के उजाले तक पहुंच ही न सका। अब पुलिस उस लड़की से सम्‍पर्क साध पाई है और उसने पुलिस व अदालत में अपना ब्‍यान दर्ज करवाया है कि सेना के किसी अधिकारी या जवान ने उसके साथ कोई बदसलूकी नहीं की। उल्‍टे हुआ यह कि वह जब शौचालय से निकली तो उसके ही गांव के दो लड़कों ने उसे घेर लिया और दुर्व्‍यवहार किया। उसने उनके नाम भी बताये हैं और पुलिस ने एक को पकड़ भी लिया है। दूसरे को पकड़ने की कोशिश की जा रही है।
पिता:  तो तेरा मतलब उन दो अपराधी लड़कों को बचाने केलिये दोष सेना के माथे मढ़ दिया गया जिस कारण हिंसा भड़क उठी और निर्दोष जाने भी चली गईं।
बेटा:   बिलकुल। भीढ़ ने पहले तो जांच होने ही नहीं दी। सच्‍चाई तक किसी को पहुंचने ही नहीं दिया गया। असमाजिक तत्‍व अपने षड़यन्‍त्र में सफल हो गये।
पिता:  यह तो राजनीति का बड़ा भ्‍यावह चेहरा सामने आ रहा है।
बेटा:   पर पिताजी, राजनेताओं को जनता की भावनाओं से इस हद तक खिलवाड़ नहीं करना चाहिये कि हिंसा हो, सरकारी व निजि सम्‍पत्ति का नुक्‍सान पहुंचे और निर्दोष लोगों की जान चली जाये।

पिता:  इससे तो बेटा हमारे गणतन्‍त्र व अभिव्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता का ही कुरूप चेहरा सामने आ रहा है। यदि ऐसा होता रहा और उसपर अंकुश न लगाया गया तो हमारा गणतन्‍त्र, अभिव्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता और कानून व्‍यव्‍स्‍था ही खतरे में पड़ जायेगी।                                               *** 
Courtesy: Uday India (Hindi)

Wednesday, May 25, 2016

Panacea for innocence: Harish Rawat style

Today's Take (May 25)

Panacea for innocence: Harish Rawat style

 It is but natural that Uttarakhand CM Harish Rawat should feel uneasy over the prick of an investigation by the Central Bureau of Investigation (CBI) over the allegged sting operation in which he is allegedly shown to be promising money to MLAs for supporting him in the vote of confidence in the Assembly. Now that he has won the vote and is back in chair, the CBI questioning him in connection with the sting operation adds to his uneasiness. On May 24 he is reported to have been quizzed by the CBI in Delhi for about five hours. There are reports that he may be called once again for interrogation.

What transpired during investigation is not known, but reports of his being summoned again give a clear indication that Rawat is not out of woods for the moment. That seems to be the cause of his frustration when he threatened PM Narendra Modi saying "Sometimes even an ant can trouble an elephant". But such diatribes do not amount to anyone's innocence. Rawat needs to understand that no chief minister is above law. A floor test on the floor of the legislature can enthrone or dethrone an individual as chief minister but it cannot be a verdict on a crime he/she may or may not have committed. His innocence can be proved only during investigation or in a court trial.

He also needs to understand that if the CBI probe stings him, the sting irritates the eyes of the common man who saw it on the news channels. The people and the representatives of the people had not chosen him for what he is alleged to have been shown in the sting. Let the truth come out and Rawat can certainly help in this matter.


Delhi Power Shortage
Bold Words no Substitute for Action

Cornered by both the opposition groups, BJP and Congress, over the deteriorating power situation in Delhi at a time when the day temperatures are touching new high and June is still a week ahead, the Delhi Chief Minister  Arvind Kejriwal decided to go bold. In a stern warning to the private power distribution companies to address the problem of outages saying government will not hesitate to cancel their licences if they fail to comply with the directive. So far, so good.

But the warning is not the solution. This could be the panacea if the Kejriwal government was sure and convinced that the power companies were the culprit and they had ample power to distribute to meet the everyday growing demand in this summer season. On the face of it, it is not the companies who appear to be the only deliberate villain.

But has the Kejriwal government an emergency and alternative in position. In case the companies fail to come up to the expectation of the government and the people and Kejriwal proves true to his threat and cancels the licences, will the situation improve on its own, automatically? Will the national capital not be pushed to a state of darkness and misery in this burning hot season? No government agency or a new company can instantly come into operation the moment licences of old companies are cancelled.

Provoking to name a Toilet after Rahul

Congress is not used to taking things lying down. Only the other day actor Rishi Kapoor questioned why innumerable public institutions have been named after Gandhi-Nehru family. Baap ka maal samajh rakha tha? (Did they consider it their father's property?), tweeted the actor.

As a matter of fact, Congress has no convincing explanation. Former prime ministers Lal Bahadur Shastri, P. V. Narasimha Rao, former Presidents, Sardar Patel and many others have been pushed to oblivion.

But Congress workers did not let the things to rest at that. In Allahabad some Congress enthusiasts went to the extent of retorting by 'naming' a Sulabh public toilet after the actor Rishi Kapoor. They hung a poster "Rishi Kapoor" naming it as such.

So far, Congress party has not come out with its reaction on the action. But has the Congress not given its detractors the handle and provocation to name similar places by Rahul and Gandhi-Nehru family? Will it then come out with a sporting and smiling reaction?                                                                            ***




Wednesday, May 11, 2016

Justice in Uttarakhand? Yes

Justice in Uttarakhand? Yes
But how much, till when?

By Amba Charan Vashishth

No gainsaying the fact that the Supreme Court of India has dispensed justice in Uttarakhand by restoring the Harish Rawat led Congress government supported by other splinter groups after defection by its 9 MLAs. But how much and for how long? That remains the question.
The origin of the trouble lay in the failure of the Uttarakhand CM, state and Central Congress leadership to stem the rot. Opposition party in the State or at the Centre whichever it may be, is the easiest whipping boy in such situations. When a group in any political party fails to be assuaged of its grievances, it is but natural for it to look for the opposition party to take its revenge. That is what happened in Uttarakhand. The disgruntled 9 MLAs sought succour with the opposition BJP, ruling at the Centre.
The second irritant was the refusal of the Speaker to accede to the demand of the dissident MLAs for a division after he announced passage of the Budget with a voice vote, knowing full well that these MLAs besides the opposition BJP were opposing it. Even in the normal course, it is a tradition with Speakers to allow division whenever a member or group demands. To cite one instance, during the consideration of the amendments to the Vote of Thanks to the President in the Lok Sabha in March this year, a member refused to withdraw his amendment. It was put to vote. The Speaker after seeking Ayes and Noes, announced that the amendment stood rejected. But the mover of the amendment wanted a division which the Speaker instantly granted. Everybody knows that the ruling party at the Centre enjoys unquestioned majority. Yet the Speaker generously consented. But in Uttarakhand, when the majority of the Government was in question, it was but desirable that the division should have been allowed. That precipitated the matter. The matter is before the court.

The Governor had fixed April 28 as the date for the CM to seek a vote of confidence on the floor of the House. In the meantime, CM sought disqualification of the 9 MLAs. On the eve of vote of confidence, the Speaker on April 27 — according to some media reports — after the promulgation of President's rule by the Centre on that very day — disqualified them putting the CM in a win-win situation. Two days earlier had appeared a sting operation which clearly showed CM Rawat telling that he is willing to pay a hefty sum the next day after MLAs vote in his favour. How could this sting be brushed aside as of now consequence without investigation? Was the government — and for that matter, even law and judiciary — allow corruption to take place and not take preventive action?

There was a great drama on the judiciary level too. First, the High Court set aside the promulgation of the President's rule and fixed date for vote of confidence. The CM instantly took charge again, held a cabinet meeting where some policy decisions were taken even without getting a copy of the High Court order. How could a CM who had to prove his majority in the House after three days take policy decisions? But nobody took offence to it.
The Central government knocked the door of the Supreme Court which immediately stayed the operation of the High Court order and cancelled the date fixed for vote of confidence. The President's rule stood imposed again within 24 hours and Harish Rawat was no longer the CM. After hearing both the parties during which Centre agreed for a vote of confidence, the Supreme Court directed that the President's rule shall stand lifted for two hours between 11 AM to 1 PM on May 10 during which the assembly will meet for a vote of confidence. In other words Harish Rawat was again CM for two hours.Then came the announcement that the SC will hear the petition of the 9 MLAs against their disqualification on May 9, a day before the vote of confidence. That added suspense to the whole drama. But on that day it refused to stay the disqualification and directed that the concerned MLAs will not be allowed to vote. But SC fixed a regular hearing of the case after summer vacations in July. Obviously, this tilted the balance in favour of the CM, unless there was another bout of defections and re-alignment of political forces in between.

(It is worth recalling that in 2011 the Karnataka High Court had allowed 16  disqualified MLAs to vote in the confidence sought by the then chief minister.)

After the count was over, a report was sent to the Supreme Court which on May 11 accepted that Rawat commanded a majority.

But the Sword of Damocles continues to hang and torment the Harish Rawat government. What will happen in July if the SC sets aside the disqualification of the 9 MLAs?  Then the result of the vote of confidence in the Assembly on May 10 will become a nullity. The absence of a final decision in the matter is responsible for injecting this element of uncertainty. What will be the legal position of the Rawat government and the decisions taken by it in the interregnum?

The whole situation in Uttarakhand seems to be emerging like a circus. Nobody knows what will happen next. Leave aside the difficulties Harish Rawat will encounter because of re-alignment of political forces and his total dependence for subsistence on the support of independents and other splinter groups which are sure to demand their pound of flesh. The State is due for general elections after about 7 months. And nobody knows what will happen in between after two months. If political forces are responsible for the present mess in the State, the judiciary too has failed to clear the clouds by having not given its final verdict.***   


Secularism' redefined?

Secularism' redefined?
By Amba Charan Vashishtha

Today's (May 11) The Statesman carried a news saying that Maulana Badruddin Ajmal, the head of the All-India United Democratic Front (AIUDF) pads for 'secular forces' to join hands to prevent BJP from coming into power in Assam.
It is an irony — and to a great extent, hypocrisy — if a person like Ajmal claims himself to be a 'secular'. Though nobody, not the Constitution  and even courts, have so far defined secularism, yet if people like Ajmal claim themselves to be 'secular', then god save this pious concept.
Reality is that many political parties which have confined their membership to one community, like the Indian Union Muslim League and others, claim themselves to be 'secular' outfits while they condemn BJP, RSS, Shiv Sena and others who join hands with NDA as 'communal'. This is true of JD (U) even. Till JD (U) was having a coalition government in Bihar with BJP and had joined NDA government at the Centre, both BJP and RSS were not 'communal' for it. But when for political and electoral opportunism, JD (U) snapped its about 18-19 years old political-cum-electoral association, BJP and its allies instantly became rank 'communalists'.
The fact of the matter is that practically every political party, except the Congress, has at one time or the other shared power with or got outside support of BJP — the same BJP whom they today condemn as 'communal' and, to a great extent, untouchable.
Late V. P. Singh had no qualms of conscience to accept the outside support of 'communal' BJP to occupy the chair of Prime Minister which, he knew, he  could never without it. But the moment it withdrew support, it became 'communal'.
In the sixties during the Samyukta Vidhayak Dal governments formed in various State, even communists shared power with Jana Sangh, the earlier avtar of BJP of today. BJP, it looks, becomes 'secular' and 'communal' to these 'secular' parties depending upon whether they need it for power or not.

When will our political parties stop befooling the public on the issue of 'communalism' and 'secularism' with their hypocritical conduct?

Monday, May 9, 2016

Native dress code 'moral policing', alien a 'virtue'


Native dress code 'moral policing', alien a 'virtue'
By Amba Charan Vashishth

What an irony that when people are advised to dress property as per Indian traditions, there is a hoarse cry of 'moral policing'. But these very people are religiously obeying the dress code imposed by our alien British masters.

The National Commission of Women (NCW) on April 27, 2016  issued a show cause notice to Delhi University's Hindu college seeking an explanation about the new hostel rules which students have termed moral policing. 
The rules listed in the new hostel prospectus ask students to dress as per "normal norms of the society"; warn that no visitors will be allowed without prior permission "including girl students"; allow only one night-out in a month. How can this be termed "moral policing?" What should one call the absence of it?
Would the NCW have found nothing offensive if the new rules provided students to dress against the "normal norms of the society"? Girl students should be allowed "without prior permission" in the boys hostels?
In no educational institution, Hindu College included, is staying in the college hostel mandatory. Students have the liberty to stay  out where there is no 'moral policing'. But if they wish to stay in the hostel, they have to stand by the rules. Should it not the college management, but the students who should frame the rules? Such a scenario is unheard of even in the most permissive democracies in the world. Can the opponents  visualise the consequences of the absence of 'moral policing'?
            The opponents of "moral policing" are privy to promoting western culture and values as against the Indian ones and encouraging young girls and women to be "bold" which, in effect, means shedding as much clothes as they wish and can and exposing their bodies as much as they feel proud of. Looking beautiful is out of fashion these days; looking sexy is the latest fad. 
It is a hot ticket to oppose whenever anybody calls for adherence to Indian traditions, way of life, dress and values. India remained a slave to foreign rule for over 1000/1200 years and they did everything to demean Indian culture and traditions. Even after about 69 years of freedom, we still seem not to have been able to come out of those slavish grooves. The invaders tried to hammer into our head that the Indian culture, various faiths, way of life, morals and traditions are much much inferior to the alien ones. They wanted us to forego what India stood for. Many, though only a fraction of our population, did so for fear and favour. It will, therefore, be no an exaggeration to say that we continue to suffer from that inferiority complex. Everything that is un-Indian and western, and against the Indian traditions and culture is welcome to them.
They cry hoarse at the 'dress code' today, but not against the one alien British rulers imposed and which we continue to religiously obey even today for courts, hospitals, offices, in the then Viceroy's House (now Rashtrapati Bhawan), Governor's houses, military messes, airlines, railways.
 It is a legacy of our slavish past that judges and lawyers are required to put on black gowns and coats even when the mercury in Delhi and other cities rises above 40-480. The chancellor, vice-chancellor, chief guest, the students are made to wear special gowns and dresses on the occasion of convocation of the universities and colleges.
The Indian Penal Code (IPC) was imposed by the then British rulers  to suit their designs. Since independence  we have not been able to attune it to India's cultural traditions and changing needs.
Irony is that we pounce upon what is negative in the western way of life, system of government and law but everything positive there is repulsive to us.
There are clubs in the country where a dress code is strictly enforced. In a prestigious club in Shimla which had it birth during the British rule, the dress code is so strict that the attendant there has the right to ask even a member to leave the premises if not properly dressed as per club rules.
This makes clearly manifest that the cry of our 'secular-liberal-democrats' is restricted to areas where individuals, organisations and institutions wish people to attire themselves elegantly and decently in keeping with India's culture and traditions.
Going by the recent trends in India, it looks every Indian tradition is orthodox, obnoxious and barbaric which must be broken making way for new ones. Even the political and constitutional traditions evolved since independence are made to crumble and violated. On the other hand, Britain has no written Constitution of its own. The government of the country is run on the strength of healthy traditions that were evolved — and religiously followed — in the course of time to meet exigencies of administration during the last so many centuries. The British do not agitate for doing away with the age-old traditions. On the contrary, they take pride in those traditions. What will happen if the Britishers too, like Indians, started demolishing their rich social, legal and constitutional traditions?
 For the British their traditions are a valuable national asset, for Indians these are stale and rotten which must be demolished and shunted to the archives of our inglorious past. This is so because the British never remained slave and were expansionist and colonial in their attitude. India, on the other side,  never entertained expansionist designs and remained slave to foreign rulers for many centuries.
Since Independence India has only evolved itself into a permissive society where family, social and religious traditions are meant to be smashed. As a result, the institution of family is crumbling. Fidelity between husband and wife is giving way to licentious relations between consenting adult persons. Married life is giving way to live-in relationship with the liberty to change partner like changing hotel and room any time one likes. Sticking to life partner is becoming an old-fashioned orthodox way of life; divorce is the in-thing. Looking after one's parents who looked after their children for so long is no longer a moral obligation. The guru-shishya (teacher-student) tradition is being given a go-bye. Now teachers are being punished if they punish or even scold students for not doing their home work and learning some lesson.
To where is the country being drifted?

Tuesday, May 3, 2016

हास्‍य-व्‍यंग — राजनीति तेरे रंग अनेक

हास्‍य-व्‍यंग
        कानोंकान नारदजी के
राजनीति तेरे रंग अनेक

बेटा:   पिताजी।
पिता:  हां, बेटा।
बेटा:    आपको पता है महाराष्‍ट्र के कुछ जि़लों में पीने के पानी का भ्‍यंकर संकट पैदा हो गया है?      
पिता:  हां, बेटा। बहुत दु:खदपूर्ण स्थिति है।            
बेटा:   और हमारे दिल्‍ली के मुख्‍य मन्‍त्री श्री केजरीवाल तो बहुत ही दयावान निकले।
पिता: कैसे?
बेटा:   उन्‍होंने निर्णय ले लिया है कि वह महाराष्‍ट्र केलिये प्रतिदिन 10 लाख लीटर पानी दिल्‍ली से भेजेंगे।   
पिता:  लेकिन इतनी दूर पानी पहुचेगा कैसे?
बेटा:   उसके लिये उन्‍होंने केन्‍द्र सरकार से अनुरोध कर दिया है कि वह यह पानी वहां पहुंचाने के लिये माल गाडि़यों का प्रबन्‍ध कर दे।
पिता:  रेल का भाड़ा कौन देगा?
बेटा:   यह तो साफ नहीं है पर लगता है इसका बोझ तो केन्‍द्र को ही सहना पड़ेगा।
पिता:   पर बेटा, क्‍या दिल्‍ली सरकार के पास इतना फालतू पानी है कि वह महाराष्‍ट्र केलिय जलदान कर
सके?                                                             
बेटा:   पिताजी होगा तभी तो उन्‍होंने यह प्रस्‍ताव किया है।
पिता:  पर बेटा, सरकार और मीडिया कि रिपोर्ट तो यह कहती है कि दिल्ली में स्‍वयं पानी की 35 प्रतशि‍त की कमी है और सरकार दिल्‍ली की जनता को ही पानी की पूर्ति नहीं कर पा रही है।
बेटा:   और पिताजी उलटे अपनी पानी की पूर्ति के लिये हरियाण पर आश्रित है।
पिता:  यह तो बेटा है।
बेटा:   ऊपर से पिताजी सूर्य देवता भी कुछ ज्‍़यादा ही गर्म होते दिख रहे हैं। इससे तो दिल्‍ली में पानी की अपनी ही मांग बहुत बढ़ जायेगी। 
पिता:  बेटा, केजरीवाल मुख्‍य मन्‍त्री कम और राजनेता अधिक हैं और राजनेताओं की बातों को ज्‍़यादा संजीदगी से नहीं लेना चाहिये।
बेटा: फिर भी पिताजी, आदमी की ज़ुबान की भी तो कोई कीमत होती है।
पिता:  बेटा राजनीति में ज़ुबान तो छोड़ आदमी की कीमत नहीं होती। पर केजरीवाल हैं पक्‍के राजनेता। वह जानते हैं कि आवश्‍यकता पड़ी तो कोई बहाना भी घड़ लेंगे। नहीं होगा तो केन्‍द्र पर दोष मढ़ देंगे कि उसने गाडि़यों का प्रबन्‍ध नहीं किया।
बेटा:   तब तो पिताजी केजरीवालजी के दोनों होथों में लड्डू हैं। वह जो राजनीतिक लाभ अर्जित करना चाहते हैं वह तो मिल गया।
पिता:  इसे ही बेटा राजनीति कहते हैं।
बेटा:   मैं तो पिताजी उनकी राजनीति का कायल हो गया हूं।
पिता:  इस बात के लिये तो केजरीवाल की जितनी तारीफ की जाये उतनी ही कम है।
बेटा:   पिताजी, आजकल की राजनीति को देखते हुये मुझे तो लग रहा है कि मैंने अपने जीवन का बहुमूल्‍य समय यूंहि बर्बाद कर दिया। 
पिता:  तू कौनसे झण्‍डे गाड़ देना चाहता था?
बेटा:   मैंने सूझबूझ से काम लिया होता तो आज मैं भी अपने प्रदेश का मुख्‍य मन्‍त्री होता।
पिता:  आज तू फिर लगा वही पुरानी बकवास करने। आज तक कुछ कर तो पाया नहीं, हवाई किले अवश्‍य बनाता रहता है।
बेटा:   पिताजी, आपका बेटा इस बार सब सच कर दिखायेगा। तब आप मेरी पीठ भी थपथपायेंगे और गर्व से अपना सीना भी फुलायेंगे।
पिता:  मैं तेरी फिज़ूल बकवास से आगे ही तंग हूं। चुप हो जा अब।
बेटा:   पिताजी, ऐसा आप इसलिये कह रहे हैं क्‍योंकि आपको पता नहीं कि विदेशों की तर्ज़ पर अब हमारे देश में भी ऐसे व्‍यक्ति व कम्‍पनियां आ गई हैं जो किसी भी व्‍यक्ति को प्रधान मन्‍त्री व मुख्‍य मन्‍त्री बना सकती हैं।
पिता:  तेरा मतलब बन्‍दे में स्‍वयं कोई योग्‍यता हो या न हो, तब भी?
बेटा:   पिताजी, कहते हैं भारत में एक ऐसा करिश्‍माई व्‍यक्ति आ गया है जो किसी पार्टी को भी जिता सकता है और मुख्‍य मन्‍त्री बना सकता है। ऐसी कुछ कम्‍पनियां भी आ गई हैं। उनका चालू असम, पश्चिमी बंगाल व आने वाले पंजाब व उत्‍तराखण्‍ड चुनावों के लिये अनुबंध कर लिया गया है।
पिता: अच्‍छा?
बेटा:   आपको पता है पिछले लोक सभा चुनाव में मुख्‍य मन्‍त्री होते हुये भी नितीश कुमार की पार्टी बिहार में बुरी तरह हार गई थी और तब तय लगता था कि नितीश कुमार के भी दिन लद गये हैं।
पिता:  फिर क्‍या हुआ?
बेटा:   पहले हार केलिये नैतिक जि़म्‍मेदारी कबूल करते हुये नितीश जी ने मुख्‍य मन्‍त्री पद से इस्‍तीफा दे दिया। पर जिसके मुंह में सत्‍ता का खून लग जाये वह उसके बिना रह नहीं सकता। चुनाव से कुछ मास पूर्व उन्‍होंने फिर मुख्‍य मन्‍त्री की गद्दी सम्‍भाल ली। चुनाव रणनीति के माहिर को काम पर लगाया और वह देखो, उसने सभी को झूठा साबित कर दिया और नितीशजी को पुन: सत्‍ता में ला खड़ा कर दिया।
पिता:  तो बेटा, उसने मुंह मांगी फीस ली होगी।
बेटा:   पिताजी, जब नथ पहननी है तो नाक भी बिंध्‍वानी पड़ेगी और जेब भी ढीली रखनी पड़ेगी ही।
पिता:  अब तो सरकार में भी उसकी तूती बोलती होगी?
बेटा:   पिताजी, जब काम किया है तो उसका फल भी तो मिलेगा ही।
पिता:  तेरा मतलब ये चुनाव के महारथी किसी को भी चुनाव जिता सकते हैं? तेरे जैसे को भी?
बेटा:   बिलकुल।
पिता:  मैं तो विश्‍वास नहीं कर सकता कि वह तेरे जैसे को भी जीत दिला सकते हैं।
बेटा:   पिताजी, नितीश कुमारजी लगभग 14 मास पूर्व ही बुरी तरह लोक सभा चूनाव हार गये थे। तब तो ऐसा लग रहा था कि विधान सभा चुनाव में भी उसकी लुटिया डूबी ही समझो। पर उस रणनीतिकार ने कर दिखाया न करिश्‍मा? 
पिता:  पर तू कहां से लायेगा करोड़ों रूपये? मेरे पास तो तुझे देने केलिये लाखों भी नहीं हैं।
बेटा:   करोड़ों नहीं, पिताजी अरबों।
पिता:  तो तू यह सारे लायेगा कहां से?
बेटा:   पिताजी, जनता और अपने समर्थकों से। आपको शायद पता नहीं कि चुनाव कोई अपने पैसे से नहीं लड़ता। इस देश में खुले दिल से दान देने वाले दानवीरों की कमी नहीं है।  
पिता:   वह क्‍यों लुटायेंगे तुझ पर लाखों-करोड़ों?
बेटा:   पिताजी, ये व्‍यक्ति व संस्‍थायें किसी को भी जिताने व मुख्‍य मन्‍त्री बनाने में इतनी मशहूर हैं कि ज्‍योंहि लोगों को पता चलेगा कि मैंने उनकी सेवायें प्राप्‍त कर ली हैं तो सभी को तसल्‍ली हो जायेगी कि मेरा मुख्‍य मन्‍त्री बनना तो अब तय है। तब सभी काली कोठरियों में बेकार पड़ी अपनी गठरियों को निकालकर मेरे घर लाइन लगा कर खड़े हो जायेंगे अपना पहला नम्‍बर लगवाने के लिये। मुझे अपनी तुच्‍छ सी भेंट स्‍वीकार करने के लिये प्राथर्ना करेंगे। कहेंगे कि फिर हाजि़र होते रहेंगे। उन्‍हें पता है कि यदि वह बार-बार आकर अपनी शक्‍ल नहीं दिखाते रहेंगे तो मैं उन्‍हें पहचान नहीं पाऊंगा क्‍योंकि सत्‍ता प्राप्ति पर व्‍यक्ति की अपनी यादाश्‍त क्षीण हो जाती है और कई बार तो वह अपनों को भी पहचानने से इनकार कर देता है।    
पिता:  तब तू कहीं मेरे साथ भी ऐसा तो नहीं करेगा?
बेटा:   नहीं पिताजी, मैं कभी इतना नहीं गिर सकूंगा।
पिता:  चलो, ईश्‍वर सब कुछ करे। मेरी शुभकामनायें तेरे साथ हैं। किसे बुरा लगेगा जब उसका पुत्र मुख्‍य मन्‍त्री बन जाये चाहे वह कितना भी निकम्‍मा या नालायक क्‍यों न हो।
बेटा:   पिताजी, सच्‍चाई यह है कि सत्‍ता मिल जाने पर व्‍यक्ति के अवगुण अपने आप ही छुप जाते हैं।
पिता:  ऐसा तो है बेटा।
बेटा:   पर पिताजी, मुझे एक ही बात से डर लगता है।
पिता:  किस से?
बेटा:   राजनीति में जब विरोधी विरोध केलिये किसी भी हद तक गिर जाते हैं। 
पिता:  क्‍या हुआ?
बेटा:   आपने मीडिया में नहीं देखा कि कश्‍मीर के एक गांव में किस प्रकार सेना के विरूद्ध घोर प्रदर्शन व हिंसा हुई जिसमें पांच-छ: निर्दोष जाने भी चली गईं?
पिता:  यह तो बेटा बहुत बुरा हुआ। पर लोग भी तो इस बात पर उत्‍तेजित हो उठे थे कि सेना के कुछ जवानों ने वहां की स्‍थानीय किसी छात्रा से बदसलूकी की थी।
बेटा:   पिताजी, दु:ख की बात तो यह है कि लोग अफवाहों पर विश्‍वास कर अपना आप खो बैठते हैं और कोई सच्‍चाई जानने की कोशिश नहीं करता।
पिता:  तो सच्‍चाई क्‍या है?
बेटा:   अब देखो सच्‍चाई आपको भी पता नहीं। सारा दिन तो आप टीवी से चिपके रहते हैं और अखबार में छपी खबरों को भी पूरी तरह चाट जाते हैं पर इस मामले की सच्‍चाई आपको भी पता नहीं।
पिता:  बेटा हम वही पढ़ते हैं, सुनते हैं जो अखबार में छपता है या टीवी में दिखाया जाता है। सच्‍चाई जानने केलिये हमारे पास क्‍या साधन है?
बेटा:   यही तो पिताजी हमारे जनतन्‍त्र की ट्रैजडी है। हर नेता, हर अखबार व टीवी चैनल सच्‍चाई पर रंग चढ़ा कर अपने हिसाब से इस प्रकार प्रस्‍तुत करता है कि इस स्‍वार्थ की बाढ़ में सच्‍चाई जानने वाला डूब कर मर जाता है।
पिता:  पर हुआ क्‍या? तू तो अपने बाप को बता।
बेटा:   हिंसा के अंधेरे में कोई सच्‍चाई के उजाले तक पहुंच ही न सका। अब पुलिस उस लड़की से सम्‍पर्क साध पाई है और उसने पुलिस व अदालत में अपना ब्‍यान दर्ज करवाया है कि सेना के किसी अधिकारी या जवान ने उसके साथ कोई बदसलूकी नहीं की। उल्‍टे हुआ यह कि वह जब शौचालय से निकली तो उसके ही गांव के दो लड़कों ने उसे घेर लिया और दुर्व्‍यवहार किया। उसने उनके नाम भी बताये हैं और पुलिस ने एक को पकड़ भी लिया है। दूसरे को पकड़ने की कोशिश की जा रही है।
पिता:  तो तेरा मतलब उन दो अपराधी लड़कों को बचाने केलिये दोष सेना के माथे मढ़ दिया गया जिस कारण हिंसा भड़क उठी और निर्दोष जाने भी चली गईं।
बेटा:   बिलकुल। भीढ़ ने पहले तो जांच होने ही नहीं दी। सच्‍चाई तक किसी को पहुंचने ही नहीं दिया गया। असमाजिक तत्‍व अपने षड़यन्‍त्र में सफल हो गये।
पिता:  यह तो राजनीति का बड़ा भ्‍यावह चेहरा सामने आ रहा है।
बेटा:   पर पिताजी, राजनेताओं को जनता की भावनाओं से इस हद तक खिलवाड़ नहीं करना चाहिये कि हिंसा हो, सरकारी व निजि सम्‍पत्ति का नुक्‍सान पहुंचे और निर्दोष लोगों की जान चली जाये।

पिता:  इससे तो बेटा हमारे गणतन्‍त्र व अभिव्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता का ही कुरूप चेहरा सामने आ रहा है। यदि ऐसा होता रहा और उसपर अंकुश न लगाया गया तो हमारा गणतन्‍त्र, अभिव्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता और कानून व्‍यव्‍स्‍था ही खतरे में पड़ जायेगी।                                               ***
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