हास्य-व्यंग
कानोंकान नारदजी के
ढिंडोरा विचार-अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता का
हाथ में कटोरा वोट की भीख का
बेटा: पिताजी।
पिता: हां बेटा।
बेटा: भारत में तो पिताजी, विचार की पूरी स्वतन्त्रता है न?
पिता: बिलकुल बेटा।
बेटा: और अभिव्यक्ति की भी?
पिता: हां-हां। पर तू यह क्यों पूछ रहा है?
बेटा: पिताजी, इसलिये कि आजकल बड़ा शोर है कि अब इस विचार व अभिव्यक्ति की संवैधानिक स्वतन्त्रता पर अंकुश लगा दिया गया है।
पिता: बेटा, समझदार व्यक्ति को सुनी-सुनाई पर नहीं, आंख देखी व कान सुनी पर विश्वास करना चाहिये। तूने कहां देखा या महसूस किया कि ऐसा कुछ है?
बेटा: मैंने तो ऐसा महसूस नहीं किया पर फिर यह शोरगुल है क्या? क्यों है? यह किस स्वतन्त्रता की बात कर रहे हैं?
पिता: तू जो रोज़ उलूल-जलूल की बकवास करता रहता है, जो तेरे दिल में आये वह बोलता रहता है, उसे ही तो विचार व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता कहते हैं।
बेटा: मैं तो पिताजी, वह कह मारता हूं जो मेरे मन में आये।
पिता: चाहे उसमें तर्क हो या न हो, बात में दम हो या न हो और वह सच हो या न हो। तो तू क्या कोई बड़ा आदमी है जो तुझे सब कुछ करने व कहने की आज़ादी दे दें?
बेटा: यह तो ठीक है पिताजी कि मुझ पर कोई लगाम नहीं है और न ही मेरे जैसे अन्य आम लोगों पर। तो फिर यह बावेला किस बात का है?
पिता: तो यह शोर तुमने देखा व सुना कहां?
बेटा: मैं तो पिताजी, या तो अखबार पढ़ता हूं या टीवी देखता हूं। कभी-कभी नेताओं के भाषण भी सुन लेता हूं।
पिता: तो बस यह समझ ले कि यह हल्ला भी वहीं तक सीमित है। तुझे कुछ फर्क पड़ा लगता है?
बेटा: मुझे और मेरे मित्रों में तो इस बात की कोई चर्चा नहीं है। न ही हम कोई ऐसा प्रतिबन्ध ही महसूस करते हैं। गांव-शहर के लोगों में भी इसकी कोई चर्चा नहीं है।
पिता: तो स्वयं ही इसका निष्कर्ष निकाल ले।
बेटा: पर पिताजी, राजनीतिक व विद्यार्थी नेताओं के भाषणों व मीडिया में तो इसकी बड़ी चर्चा है। वह तो इस स्थिति के विरूद्ध मोर्चा खोले बैठे हैं।
पिता: यही कारण है बेटा कि आज राजनेता और मीडिया अपनी विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं। वह आज जो बात या आरोप लगाते हैं कल को उसका स्वयं ही खण्डन कर देते हैं। कई बार उनकी भविष्यवाणियां व समीक्षायें धरातल पर खरी नहीं उतरती।
बेटा: फिर यह लोग ऐसा काम क्यों करते हैं?
पिता: यह तो बेटा एक धंधा है। यही तो उनकी दाल-रोटी है। यदि राजनेता अपनी ज़ुबान बन्द कर लेंगे और मीडिया सच्ची-झूठी बातों को छापना बन्द कर दे तो उनकी दुकान ही बन्द हो जायेगी।
बेटा: अच्छा, अब समझा। तभी लोग कहते हैं कि नेता तभी तक राजनीति व मीडिया में जि़न्दा होता है जब तक उसकी वाणी चलती रहती है। वरन् लोग समझने लगते हैं कि शायद उसकी राजनीति में बोलो राम ही हो चुकी है।
पिता: यही मीडिया की बात है। जितना मीडिया सनसनी फैलायेगा उतनी ही उसकी बिक्री बढ़ेगी
और टीआरपी ऊपर जायेगी।
बेटा: पर पिताजी, विश्वसनीयता भी तो कोई चीज़ होती है।
पिता: पर आजकी राजनीति में नहीं। तूने देखा नहीं कि राजनेता किस प्रकार सच्ची-झूठी बातें कह देते हैं और बाद में झूठा साबित हो जाने पर न उन्हें शर्म आती है और न खेद होता है।
बेटा: ऐसा क्यों है पिताजी?
पिता: बेटा, राजनीति पंजाबी की उस पुरानी कहावत को चरितार्थ कर रही है कि जिसमें कहते हैं कि जिसने की शर्म, उसके फूटे कर्म।
बेटा: बात तो आपकी टके की है पिताजी। मुझे तो लगता है कि राजनीति के शब्दकोश से शर्म शब्द ही ग़ायब कर दिया गया है। यही कारण है कि जब राजनेता हत्या, बलात्कार या भ्रष्टाचार जैसे अपराधों पर अपनी सज़ा काटने या ज़मानत मिल जाने के बाद लौटते हैं तो उनका ऐसा स्वागत किया जाता है मानो वह सज़ा भुगतकर नहीं, देश के लिये बहुत बड़ी लड़ाई लड़ने के बाद सफल होकर लौटे हैं। ऐसा तो सम्मान उनका भी नहीं होता जिन्हें वीरता के लिये सम्मानित किया जाता है या जिन्हें भारतरत्न जैसे अलंकारों से संवारा जाता है।
पिता: तूने ठीक याद दिलाया। जब अभिनेता संजय दत्त अपनी सज़ा काट कर लौटे, पूर्व संचार मन्त्री ए राजा आदि ज़मानत प्राप्त करने पर अपने घर लौटे तो उनका ऐसा स्वागत हुआ मानों वह तो अदालत द्वारा ससम्मान अपराधमुक्त ही घोषित कर दिये हों।
बेटा: यही नहीं पिताजी। जब देशद्रोह के अपराध में फंसे कन्हैय्या कुमार, उमर खालिद जैसे लोगों को ज़मानत मिली तो उन्होंने ट्वीट किया: सत्यमेव जयते। विजय रैली निकाली गई। यह क्या तमाशा है पिताजी?
पिता: बेटा, छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने विनायक सेन को देशद्रोह के अपराध में आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई। कई मास वह जेल में रहे। बाद में जब उनकी अपील पर विचार होने तक उच्चतम् न्यायालय ने उन्हें ज़मानत दी तो तत्कालीन यूपीए की मनमोहन सरकार ने उन्हें तत्कालीन योजना आयोग की एक प्रतिष्ठित कमेटी का सदस्य बना कर उनके अपराध को सम्मानित किया।
बेटा: मेरे विचार में तो पिताजी यह विचार व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का ही जीता-जागता नमूना है। वरन् ऐसे तमाशे कैसे हो सकते थे ?
पिता: यह बेटा हमारे उदार जनतन्त्र का ही सजीव उदाहरण है।
बेटा: पिताजी, आपको याद है कि हैदराबाद विश्वविद्यालय में उच्चतम् न्यायालय द्वारा 1993 के धारावाहिक बम ब्लास्ट के दोषी याक़ूब मैमन को फांसी दिये जाने के विरोध में प्रदर्शन हुआ था। इस 9 फरवरी को जवाहरलाल विश्वविद्यालय के प्रांगण में संसद पर हुये हमले के दोषी अफज़ल गुरू की फांसी की वर्षगांठ मनाई गई और उसे निर्दोष बताकर उसकी फांसी को न्यायायिक कत्ल करार दिया गया। अफज़ल को एक हीरो बनाया गया। भारत की बर्बादी के नारे लगाये गये। अनेक प्रदेशों के लिये आज़ादी का आह्वान किया गया। जब पुलिस ने इस देशद्रोह के अपराध में कुछ विद्यार्थियों को पकड़ने का प्रयास हुआ तो कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी व दिल्ली के मुख्य मन्त्री अरविन्द केजरीवाल उन अपराधियों के साथ खड़े हो गये और कहा कि जो विद्यार्थियों की आवाज़ दबाने का प्रयास कर रहे हैं वह सबसे बड़े देशद्राही हैं।
पिता: बेटा, यह विचार व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता नहीं है तो और क्या है? यदि स्वतन्त्रता न होती तो क्या वह ऐसा कुछ कर पाते या कह पाते?
बेटा: पर क्या हम न्याय प्रक्रिया में जन अविश्वास पैदा कर देने के प्रयास को विचार व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की संज्ञा दे सकते हैं? क्या हम इस बहाने देश की प्रभुसत्ता व अखण्डता पर प्रहार नही कर रहे?
पिता: कर तो रहे हैं पर बेटा, इसे ही तो पालिटिक्स कहते हैं। भोले-भाले दयालू लोगों से भीख ऐंठ लेने केलिये लोग आजकल क्या कुछ नहीं करते। यदि वोटों की भीख हथियाने के लिये हमारे राजनीतिज्ञ भी ऐसा सब कुछ कर बैठते हैं तो इसमें नई चीज़ क्या है? व्यापारी के लिये लाभ सर्वोपरि होता है और हमारे राजनेताओं केलिये पालिटिक्स व वोट।
बेटा: आपके कहने का क्या यह मतलब है कि भीख मांगने की तर्ज़ पर राजनीति भी एक व्यवसाय बन गया है?
पिता: इसका निष्कर्ष तू और जनता स्वयं ही निकाल ले।
बेटा: अच्छा, इसी स्वतन्त्रता का ही परिणाम है कि ओवेसी साहब ने कह दिया है कि अगर कोई
मेरी गर्दन पर छुरी भी रख दे तो भी मैं भारत माता की जय नहीं बोलूंगा।
पिता: यह तो बेटा कुछ उंगली पर गिने जा सकने वालों के भोली-भाली जनता को गुमराह करने के चोंचले हैं। कौन किसी को ज़बरदस्ती यह जय-जयकार करने के लिये कहता है? हमारे को तो जबरन बुलवाने के लिये किसी ने नहीं कहा। समय पर तो यह नारा स्वयं ही हर भारतीय के मुंह पर आ जाता है।
बेटा: पर पिताजी, अपने आप में ही यह सबूत नहीं है कि भारत में विचार व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है। यदि न होती, तो क्या वह ऐसा कहने की हिम्मत कर पाते?
पिता: पर हमारे कुछ राजनेता सूर्य की रोशनी वाली इस सच्चाई पर जानबूझ कर अपनी आंखें मूंदे
रहना चाहते हैं अपने संकीर्ण स्वार्थपूर्ति के लिये।
बेटा: पर पिताजी, कुछ लोगों को भारत माता की जय कहने में परेशानी क्या है? क्या हम और
वह भारतीय नहीं हैं?
पिता: बेटा, हम सब भारतीय हैं चाहे हम किसी भी धर्म या पंथ को मानने वाले क्यों न हों।
बेटा: तो क्या वह अपने आपको भारत का सपूत नहीं समझते?
पिता: वह समझते हैं पर उनका तर्क है कि उनका धर्म अल्लाह के सिवा किसी अन्य की जय कहने
की इजाज़त नहीं देता।
बेटा: पर कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़ सभी धर्मों के हमारे भाई समय समय पर अपने आप ही
भारत माता की जय बोलते रहते हैं।
पिता: इन कुछ लोगों की हरकतों के कारण ही तो हमारे मुस्लिम भाई परेशान हैं। ये कुछ व्यक्ति
अपने भोले-भाले लोगों को शक के घेरे में ला रहे हैं मानों उनके लिये उनका धर्म पहले है और राष्ट्र बाद में। यह सच नहीं है1
बेटा: पिताजी, अन्य धर्मों में भी अपने देश को 'मदरे वतन' व 'मदरलैंड' बोलते हैं। किस धर्म में
अपनी माता की जय या जि़न्दाबाद बोलने की मनाही है ?
पिता: किसी में नहीं बेटा। स्वतन्त्रता संग्राम के समय सभी धर्मों के सेनानी 'जय हिन्द' और भारत
माता की जय के उद्घोष के साथ सूली पर चढ़ गये थे। जय हिन्द व भारत माता की जय में कोई अन्तर नहीं है।
बेटा: तो फिर ये विचार व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को खतरे का हौआ खड़ा करने वाले चाहते क्या
हैं?
पिता: उनके आचरण से तो स्पष्ट है कि वह सब कुछ करने की स्वतन्त्रता चाहते हैं जो देश और
राष्ट्र के हितों व उसकी प्रभुस्त्ता और अखण्डता को खतरा पैदा करने की छूट दे दे।
बेटा: मेरे विचार में वह स्वतन्त्रता नहीं उच्छृंखलता का मांग कर रहे हैं।
पिता: लगता तो यही है।
बेटा: पर इसे दे कौन सकता है?
पिता: यह तो बेटा राहुल गांधी, अरविन्द केजरीवाल व वामपंथी नेता ही बता सकते हैं। शायद वह अपने अगले चुनाव घोषणापत्र में इस उच्छृंखलता को देने का वादा कर दें। ***
CourtesY: UdayIndia Hindi
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